इंद्र वशिष्ठ
सावधान: बेईमान नेताओं से ही नहीं अन्ना की टोली से भी लोगों को चौकन्ना रहना चाहिए। लोग अगर समय रहते नहीं चेते तो बाद में पछताना भी पड सकता है। इसलिए लोगों को इन पर भी आंख मूंद कर भरोसा नही करना चाहिए। अन्ना टोली भी दूध की धुली नहीं लग रही है। कहीं ऐसा न हो कि भ्रष्ट नेताओं से दुखी लोगों का इस्तेमाल अन्ना टोली अपने फायदे के लिए कर लें और बाद में लोग खुद को ठगा हुआ पाए। अन्ना टोली के आचरण ,चरित्र और ईमानदारी की परख खुले दिमाग और विवेक से लोग करे तो उनके सामने अन्ना की टोली के लोगों की असलियत आते देर नहीं लगेगी। अन्ना टोली की किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल आदि एनजीओ चलाते है। विदेशो से भी उनको मोटी रकम मिलती है। लेकिन ये एनजीओ को लोकपाल के दायरे में नहीं लाना चाहते है। इसका मतलब ये नहीं चाहते कि उनको मिले धन का हिसाब-किताब कोई उनसे मांगें। अगर एनजीओ मिले धन का इस्तेमाल ईमानदारी से सेवा के कार्य में कर रहें है तो लोकपाल के दायरे से बाहर क्यों रहना चाहते है? एनजीओ वाले दान में मिले धन का इस्तेमाल अपने निजी हित के लिए तो नहीं कर रहे यह जानने का हक दानदाता को ही नहीं आम आदमी को भी होना चाहिए।
किस तरह सरकारी अफसर पद का दुरुपयोग अपने निजी फायदे के लिए करते है इसका सबसे बडा उदाहरण पूर्व पुलिस अफसर किरण बेदी और आमोद कंठ है। दिल्ली पुलिस ने समाज सेवा के मकसद से प्रयास और नवज्योति संस्थाएं दो दशक पहले बनाई थी। आमोद कंठ और किरण बेदी इन संस्थाओं के महासचिव थे। लेकिन इन दोनों धूर्त अफसरों ने अपने निजी हित के लिए पुलिस का मानवीय चेहरा दिखाने वाली पुलिस की इन दोनों संस्थाओं को चालाकी से हथिया कर उसका निजीकरण कर लिया। इसके बाद भी इन दोनो ने दिल्ली पुलिस के संसाधनों और पुलिसवालों का इस्तेमाल अपने एनजीओ के लिए किया। किरण बेदी ने पुलिस थानों की इमारतों का इस्तेमाल अपने एनजीओ के लिए किया। पुलिस वालों से चंदा एकत्र यानी वसूल कराया गया। क्या पुलिस अफसर रहते अपने निजी फायदे के लिए पुलिस मशीनरी का इस्तेमाल करना बेईमानी नहीं है? इससे ही साफ पता चलता है कि इन अफसरों ने वेतन तो सरकार से लिया लेकिन उस दौरान कार्य पुलिस का नहीं अपना निजी किया। क्या यह सरासर बेईमानी नहीं है? किरण बेदी ने पहली महिला आईपीएस होने को सबसे ज्यादा मीडिया में भुनाया। किरण बेदी को जरुरत से ज्यादा प्रचारित करने वाले मीडिया ने अपनी भूमिका ईमानदारी से निभाई होती तो लोगों के सामने बहुत पहले ही उनकी ईमानदार और काबिल अफसर होने के दावे की पोल खुल जाती। ये देश-विदेश से असहाय लोगों की मदद करने के नाम पर दान में मोटी रकम लेते है। लेकिन इनाम पाने की नीयत से कथित सेवा के नाम पर अपना प्रचार करते है।
इन पूर्व अफसरों के एनजीओ का सरकार को अधिग्रहण कर लेना चाहिए। क्योंकि इन दोनो एनजीओ की असली मालिक तो दिल्ली पुलिस और वो जनता है जिनसे इन एनजीओ के लिए पुलिस ने पैसे एकत्र या वसूल किए थे। दिल्ली में पिछले विधान सभा चुनाव मे आमोद कंठ तो कांग्रेस के टिकट पर चुनाव हार चुके है आमोद कंठ की तरह किरण बेदी भी अगर नेता बनना चाहती है तो उनका भ्रम भी लोगों को दूर कर देना चाहिए। जिस अफसर ने अपनी डयूटी ही ईमानदारी से नहीं की हो और पुलिस की संस्थाओं को हडप लिया हो वह लोगों का नुमाइंदा बनने लायक कैसे हो सकता है ?
अगर पुलिस अफसर ईमानादारी से अपनी डयूटी ही कर लें तो वही सबसे बडी सेवा होगी। इसके बाद उनको सेवा करने के लिए अलग से कोई एनजीओ बनाने की जरुरत ही नहीं पडेगी और न ही एनजीओ के लिए उसके पास वक्त होगा। अपनी डयूटी को ईमानदारी से न करने वाले अपने निजी फायदे के लिए इस तरह के काम करते है। सरकार को भी सरकारी अफसरों के एनजीओ बनाने पर रोक लगानी चाहिए। अरविंद केजरीवाल ने भी इनकम टैक्स अफसर रहते हुए अपना एनजीओ बनाया । सरकारी अफसरों को वेतन जिस कार्य के लिए दिया जाता है उसके अलावा अपने पद का दुरुपयोग कर दूसरा कार्य करना क्या बेईमानी नहीं होती?
चाणक्य से एक बार सिकंदर का एक दूत मिलने आया तो चाणक्य ने उससे पूछा कि राजकीय बातचीत करने आए हो या निजी। दूत ने कहा निजी इस पर चाणक्य ने दीया बुझा दिया और कहा कि इस दीये में राजकीय तेल है। सरकारी पद या सुविधा का इस्तेमाल निजी फायदे के लिए करने वाले नेताओं और अफसरों को इससे सीख लेनी चाहिए। मुंबई में प्रफेसर रहे संदीप देसाई रोजाना रेल में भीख मांग कर गरीब बच्चों के लिए स्कूल बनवाने का कार्य कई साल से कर रहे है। समाज कल्याण की भावना का यह बडा उदाहरण है। वर्तमान माहौल में सिर्फ मीडिया में किसी व्यकित के महिमा मंडन के आधार पर लोगों को प्रभावित नहीं होना चाहिए। लोगों को अपने स्तर पर भी उस व्यकित के बारे में खुले दिमाग से मालूम करना चाहिए ताकि बाद में पछताना न पडे। मीडिया खासकर न्यूज चैनल तो भेडचाल में काम कर रहे है। बेईमान नेताओं को तो चुनाव में हराने का मौका लोगों के पास आएगा। लेकिन समाज कल्याण के नाम पर अपना कल्याण करने वाले एनजीओ वालों पर अंकुश लगाने की व्यवस्था भी लोगों के हाथ में होनी चाहिए है।
किस तरह सरकारी अफसर पद का दुरुपयोग अपने निजी फायदे के लिए करते है इसका सबसे बडा उदाहरण पूर्व पुलिस अफसर किरण बेदी और आमोद कंठ है। दिल्ली पुलिस ने समाज सेवा के मकसद से प्रयास और नवज्योति संस्थाएं दो दशक पहले बनाई थी। आमोद कंठ और किरण बेदी इन संस्थाओं के महासचिव थे। लेकिन इन दोनों धूर्त अफसरों ने अपने निजी हित के लिए पुलिस का मानवीय चेहरा दिखाने वाली पुलिस की इन दोनों संस्थाओं को चालाकी से हथिया कर उसका निजीकरण कर लिया। इसके बाद भी इन दोनो ने दिल्ली पुलिस के संसाधनों और पुलिसवालों का इस्तेमाल अपने एनजीओ के लिए किया। किरण बेदी ने पुलिस थानों की इमारतों का इस्तेमाल अपने एनजीओ के लिए किया। पुलिस वालों से चंदा एकत्र यानी वसूल कराया गया। क्या पुलिस अफसर रहते अपने निजी फायदे के लिए पुलिस मशीनरी का इस्तेमाल करना बेईमानी नहीं है? इससे ही साफ पता चलता है कि इन अफसरों ने वेतन तो सरकार से लिया लेकिन उस दौरान कार्य पुलिस का नहीं अपना निजी किया। क्या यह सरासर बेईमानी नहीं है? किरण बेदी ने पहली महिला आईपीएस होने को सबसे ज्यादा मीडिया में भुनाया। किरण बेदी को जरुरत से ज्यादा प्रचारित करने वाले मीडिया ने अपनी भूमिका ईमानदारी से निभाई होती तो लोगों के सामने बहुत पहले ही उनकी ईमानदार और काबिल अफसर होने के दावे की पोल खुल जाती। ये देश-विदेश से असहाय लोगों की मदद करने के नाम पर दान में मोटी रकम लेते है। लेकिन इनाम पाने की नीयत से कथित सेवा के नाम पर अपना प्रचार करते है।
इन पूर्व अफसरों के एनजीओ का सरकार को अधिग्रहण कर लेना चाहिए। क्योंकि इन दोनो एनजीओ की असली मालिक तो दिल्ली पुलिस और वो जनता है जिनसे इन एनजीओ के लिए पुलिस ने पैसे एकत्र या वसूल किए थे। दिल्ली में पिछले विधान सभा चुनाव मे आमोद कंठ तो कांग्रेस के टिकट पर चुनाव हार चुके है आमोद कंठ की तरह किरण बेदी भी अगर नेता बनना चाहती है तो उनका भ्रम भी लोगों को दूर कर देना चाहिए। जिस अफसर ने अपनी डयूटी ही ईमानदारी से नहीं की हो और पुलिस की संस्थाओं को हडप लिया हो वह लोगों का नुमाइंदा बनने लायक कैसे हो सकता है ?
अगर पुलिस अफसर ईमानादारी से अपनी डयूटी ही कर लें तो वही सबसे बडी सेवा होगी। इसके बाद उनको सेवा करने के लिए अलग से कोई एनजीओ बनाने की जरुरत ही नहीं पडेगी और न ही एनजीओ के लिए उसके पास वक्त होगा। अपनी डयूटी को ईमानदारी से न करने वाले अपने निजी फायदे के लिए इस तरह के काम करते है। सरकार को भी सरकारी अफसरों के एनजीओ बनाने पर रोक लगानी चाहिए। अरविंद केजरीवाल ने भी इनकम टैक्स अफसर रहते हुए अपना एनजीओ बनाया । सरकारी अफसरों को वेतन जिस कार्य के लिए दिया जाता है उसके अलावा अपने पद का दुरुपयोग कर दूसरा कार्य करना क्या बेईमानी नहीं होती?
चाणक्य से एक बार सिकंदर का एक दूत मिलने आया तो चाणक्य ने उससे पूछा कि राजकीय बातचीत करने आए हो या निजी। दूत ने कहा निजी इस पर चाणक्य ने दीया बुझा दिया और कहा कि इस दीये में राजकीय तेल है। सरकारी पद या सुविधा का इस्तेमाल निजी फायदे के लिए करने वाले नेताओं और अफसरों को इससे सीख लेनी चाहिए। मुंबई में प्रफेसर रहे संदीप देसाई रोजाना रेल में भीख मांग कर गरीब बच्चों के लिए स्कूल बनवाने का कार्य कई साल से कर रहे है। समाज कल्याण की भावना का यह बडा उदाहरण है। वर्तमान माहौल में सिर्फ मीडिया में किसी व्यकित के महिमा मंडन के आधार पर लोगों को प्रभावित नहीं होना चाहिए। लोगों को अपने स्तर पर भी उस व्यकित के बारे में खुले दिमाग से मालूम करना चाहिए ताकि बाद में पछताना न पडे। मीडिया खासकर न्यूज चैनल तो भेडचाल में काम कर रहे है। बेईमान नेताओं को तो चुनाव में हराने का मौका लोगों के पास आएगा। लेकिन समाज कल्याण के नाम पर अपना कल्याण करने वाले एनजीओ वालों पर अंकुश लगाने की व्यवस्था भी लोगों के हाथ में होनी चाहिए है।
excellent analysis. The article brings out the fact that certain officers, while in the service of the Govt. start NGO and spent their office time and official machinery for NGO. They also collect funds using their subordinates.
ReplyDeleteThey should use their office time for office work.
gazab ka lekhan hai sir....sadhuwad.
ReplyDeleteबहुत खूब पत्रकार हो तो ऐसा।
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