Sunday, 2 April 2023

कथित पत्रकार की निकल गई हेकड़ी. DCP को किसने दी धमकी. मेहमानों को बुला कर मेजबान गायब. कमिश्नर संजय अरोरा दरबारियों की कुंडली भी खंगाल लिया करें. पीआरओ रवि पवार याद रहेंगे .

कमिश्नर संजय अरोरा दरबारियों की कुंडली भी खंगाल लिया करें.

  DCP को किसने दी धमकी.
 मेहमानों को बुला कर मेजबान गायब.  पीआरओ रवि पवार याद रहेंगे.



इंद्र वशिष्ठ
देशबंधु के दागी पत्रकार की हेकड़ी निकल गई, अब वह रोता घूम रहा है. पहले अभ्रद भाषा में संदेश और फिर डराने के लिए नकली सा नोटिस भेजने वाला, पोल खुल जाने पर अब रहम के लिए अपने गांव तक के लोगों का सहारा ले रहा है. यह वही जोगेंद्र सोलंकी है जो बड़ी बेशर्मी से यह बताता है कि लोग तो उसे गुंडा कहते है. इस तरीके से अपना परिचय देने के पीछे उसकी नीयत सामने वाले को डराना ही होती है. सही मायने में जो पत्रकार होगा वह कभी ऐसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं कर सकता.

मेरे एक पुराने परिचित बृजेश भारद्वाज का  फोन आया कि जोगेंद्र सोलंकी उनके गांव का है, उसके बारे में अब मत लिखना. 
मैंने उनसे सिर्फ एक बात पूछी कि क्या उन्होंने जोगेंद्र सोलंकी से पूछा कि वह क्यों लिख रहा है. क्योंकि बिना किसी कारण के तो कोई लिखता नहीं है.
इस पर बृजेश ने कहा कि मुझे इस बारे में कुछ मालूम नहीं है. दरअसल बृजेश के बड़े भाई राकेश भारद्वाज से जोगेंद्र सोलंकी ने बात की थी. राकेश ने कह दिया कि अपना छोटा भाई है उसे कह देंगे, अब वह नहीं लिखेगा. राकेश के कहने पर बृजेश ने फोन किया.
इस पर मैने स्पष्ट कहा कि उसने जो अपमानजनक/ घटिया हरकत की है उसका जवाब तो मैं दूंगा ही.
जो बोया सो पाया-
 मैने उन्हें सारी बातें बताई. जिसे सुनने के बाद बृजेश भारद्वाज ने भी माना कि जोगेंद्र सोलंकी को ऐसी हरकत नहीं करनी चाहिए थी .
मैंने उनसे कहा कि जोगेंद्र सोलंकी से सिर्फ एक ही सवाल पूछ लेना कि तुमने अभ्रद भाषा में संदेश क्यों और किस हैसियत से भेजा. 
जोगेंद्र सोलंकी ने जो बोया है वही उसे मिल रहा है.
अपराधी खुद को बेकसूर बताता है-
मान लो कि अगर कोई व्यक्ति आकर कहे कि पुलिस उसके पीछे पड़ी हुई है, उसे बचाओ तो जाहिर सी बात है कि उससे सबसे पहले  यह सवाल तो पूछा ही जाना चाहिए कि तुमने जरूर कोई अपराध किया होगा, तभी तो पुलिस ढूंढ रही है. हालांकि यह भी सत्य है रंगे हाथों पकडे़ जाने के बावजूद अपराधी अपने को बेकसूर ही बताता है. इस तरह जोगेंद्र सोलंकी अपनी अपमानजनक/ घटिया हरकत के बारे में लोगों को बताए बिना उनसे फोन करवा रहा है, सिफारिश करने वाले को भी पहले पूरी बात मालूम करके ही फोन करना चाहिए. 

पत्रकारिता को कलंकित कर रहे दरबारी-

दरबारी/भांड पत्रकारों की घटिया हरकतों के कारण पूरी पत्रकार बिरादरी की छवि कैसे खराब होती है. इसकी एक बानगी पेश है.
पांच मार्च को दिल्ली पुलिस ने  पुलिस अफसरों और पत्रकारों के लिए क्रिकेट मैच
 'जी मुरली कप'  का आयोजन किया. 

डीसीपी को धमकी -
 कथित पत्रकार सुरेश झा ने मध्य जिले के डीसीपी संजय कुमार सैन को कहा कि खाना खत्म हो गया है खाना न मिलने पर कोई पत्रकार टि्वट कर देगा कि, खाना नहीं मिला. इस पर डीसीपी संजय सैन ने कहा कि तुम मुझे धमकी दे रहे हो. डीसीपी संजय सैन के जवाब से तिलमिलाया सुरेश झा इसके बाद से ही डीसीपी संजय सैन की बुराई करता घूम रहा है.
बेशर्मी का ढिंढोरा-
डीसीपी और उसके बीच हुई बातचीत को  सुरेश झा खुद ही बताता घूम रहा है.स्पेशल कमिश्नर संजय सिंह के दफ़्तर में इस पत्रकार को भी उसने यह बात बताई थी.
 इस तरह कि छिछोरी बात डीसीपी से करके और इस बात का ढिंढोरा पीट कर वह अपने ही दिमागी दिवालियापन का परिचय दे रहा है.
जो सही मायने में पत्रकार होगा, वह कभी यह बात नहीं कहेगा, कि खाना नहीं मिलने पर वह खबर ट्वीट कर देगा. 
बरसों बाद भी वही मानसिकता- 
इस हरकत ने बरसों पहले की उसकी ऐसी ही हरकत की याद ताजा कर दी.सुरेश झा ने एक बार फिर साबित कर दिया कि वह सही मायने में पत्रकार है ही नहीं. इस सुरेश झा को पहले हलवा टाइम्स के नाम से पुकारा जाता था. असल में एक बार पुलिस की सालाना कांफ्रेस में गाजर का हलवा खत्म हो गया था तो सुरेश झा ने अपने सांध्य प्रहरी अखबार में यही खबर छाप दी कि हलवा खत्म हो गया, हलवा खाने को नहीं मिला.
दलाल पत्रकारों को मिर्ची लगी-
15 मार्च को दोपहर में यह पत्रकार दिल्ली पुलिस मुख्यालय में स्पेशल कमिश्नर संजय सिंह के पास उनके दफ़्तर में था, तभी वहां पर सुरेश झा नामक यह कथित पत्रकार आया. सुरेश झा ने मुझ से बदतमीजी की, कहा कि तुम्हे ऐसा लेख लिखते हुए शर्म आनी चाहिए. सुरेश की बदतमीज़ी का मैने ऐसा करारा जवाब दिया  कि जिंदगी भर नहीं भूलेगा, जिससेे उसकी बोलती बंद हो गई और मिमियाते हुए उसने कहा कि मैं अपने शब्द वापस लेता हूं.
 सुरेश झा की बदतमीजी ने साबित कर दिया कि वह दलाल पत्रकार है. 
जोगेंद्र सोलंकी का चरित्र,संस्कार उजागर-
इसके बाद 16 मार्च को जोगेंद्र सोलंकी ने अभद्र भाषा में मैसेज भेजा.
'आपने मैच को लेकर क्या लिखा है. मैंने मैच में आपको बुलाया था, मैच को करवाने में मैं और सुरेश झा शामिल थे, क्या हम लोग दलाल हैं और अगर ऐसा था तो वहां आए क्यों और दलालों का खाना भी क्यों खा लिया'.
आपके अंदर थोड़ी बहुत भी खुद की रिस्पेक्ट है या नहीं. आप हमसे आकर मिलें और अपनी इस हरकत को सबके सामने साफ़ करे कि आपने यह बेजा हरकत क्यों की'. 
सोलंकी का यह उपरोक्त मैसेज उसके चरित्र और संस्कार को उजागर करता है.
हिम्मत है तो जवाब दे-
जोगेंद्र सोलंकी जो खुद को देशबंधु अखबार का पत्रकार बताता है वह सिर्फ इस बात का ही जवाब देकर दिखाए कि 16 मार्च 2023 को उसने मुझे यह अभ्रद मैसेज क्यों और किस हैसियत/अधिकार से भेजा ? 
आईना दिखाया-
जोगेंद्र सोलंकी ने खुद ही अपने आप के लिए दलाल शब्द लिखा है.
मैंने उसके अभ्रद मैसेज का सिर्फ जवाब दिया है. उसने  मुझसे पूछा कि, 'क्या हम दलाल हैं', मैंने तो बस ईमानदारी से उसे तथ्यों के साथ आईना दिखा दिया. इसमें मानहानि कहां से हो गई.  जोगेंद्र सोलंकी ने डराने के लिए आधा अधूरा बिना हस्ताक्षर वाला एक नकली सा नोटिस भेजा.
जोगेंद्र सोलंकी की करतूतें-
 जोगेंद्र सोलंकी ने अपनी औकात भूल कर ऐसी अभद्र भाषा का इस्तेमाल किया है जो कि दरबारी/ दलाल ही कर सकता हैं. इसलिए ऐसे व्यक्ति को जवाब देना बहुत जरुरी हो जाता है. 
छाज बोले सो बोले, छलनी भी बोले, जिसमें सत्तर छेद-
जोगेंद्र सोलंकी (निवासी उस्मान पुर) के ख़िलाफ़ उत्तर पूर्वी जिला पुलिस ने मामला दर्ज किया था. इस पत्रकार ने तब सांध्य टाइम्स में वह खबर छापी थी. तभी से वह मुझ से दुश्मनी रखता है. सोलंकी के ख़िलाफ़ पूर्वी जिला पुलिस ने कृष्णा नगर थाने में भी 4-9-2008 को गोली चलाने का मामला दर्ज किया था.  
वह शराब पीकर बदतमीजी करने के लिए शुरू से ही बदनाम रहा है.
जवाब दे-
जोगेंद्र सोलंकी अगर इतना बड़ा मर्द/बदमाश बनता है तो उस प्रताप गूजर से बदला ले कर दिखाए. जिस पर उसने गोली मारने का आरोप लगाया था. कोई पत्रकारिता के कारण उसे कथित गोली नहीं मारी गई थी. वैसे उस समय चर्चा तो यह भी हुई थी कि पुलिस सुरक्षा लेने के लिए उसने खुद ही अपने ऊपर गोली चलवाई थी. अगर वाकई प्रताप गूजर ने उस पर गोली चलवाई थी, तो क्या सोलंकी ने उसे सज़ा दिलाने के लिए अदालत में गवाही दी थी ? जोगेंद्र सोलंकी में दम है तो इस बात का जवाब दे.
नोटिस में से निकले सवाल -
जोगेंद्र सोलंकी द्वारा भेजे गए नकली से नोटिस से ही कई सवाल पैदा हो गए हैं. 
जोगेंद्र सोलंकी ने खुद को देशबंधु अखबार का पीआईबी से मान्यता प्राप्त पत्रकार और अपने दफ़्तर का पता सी-7 निजामुद्दीन वेस्ट लिखा है. 
जहां तक मेरी जानकारी है निजामुद्दीन में देशबंधु अखबार का दफ्तर नहीं है.देशबंधु अखबार का दफ़्तर तो दिल्ली में आईएनएस में है. फिर यह दफ़्तर किसका है ? 
पत्रकार या व्यापारी? 
क्या यह जोगेंद्र सोलंकी के किसी अन्य काम धंधे/ व्यापार/ कारोबार का दफ़्तर है ? 
जोगेंद्र सोलंकी बताए कि क्या देशबंधु की नौकरी के अलावा उसका कोई अन्य धंधा/ व्यवसाय भी है. दरअसल वह सिर्फ पत्रकार ही नहीं है देशबंधु की नौकरी के अलावा उसका अन्य धंधा भी है. देशबंधु तो उसे इतना वेतन  दे नहीं सकता, जिसमें वह महंगी कार और ड्राइवर रख सके. वह खुद को जेनेसिस मीडिया प्राइवेट लिमिटेड और क्रास रोड्स कम्युनिकेशंस का निदेशक भी लिखता/ बताता है। 

पीआईबी कार्ड कैसे बन गया ? 
पीआईबी जांच करे। 

जोगेंद्र सोलंकी ने देशबंधु अखबार की ओर से पीआईबी कार्ड बनवाया हुआ है. क्या उसने देशबंधु अखबार की नौकरी के अलावा अपने दूसरे व्यवसाय या कारोबार के बारे में पीआईबी को जानकारी दी थी ?
क्योंकि वह खुद को जेनेसिस मीडिया प्राइवेट लिमिटेड और क्रास रोड्स कम्युनिकेशंस का निदेशक भी लिखता/ बताता है। 
 पीआईबी कार्ड बनवाने/नवीनीकरण के समय क्या उसने पीआईबी को कभी अपने खिलाफ दर्ज आपराधिक मामलों की सूचना दी थी.क्योंकि अगर यह सब जानकारी दी जाती तो उसका पीआईबी कार्ड बन ही नहीं सकता था. वैसे यह जांच का विषय तो है ही, क्योंकि पीआईबी कार्ड पुलिस वैरीफिकेशन के बाद ही बनता है. 
पीआईबी को इस मामले की गंभीरता से गहराई तक जांच करनी चाहिए. पीआईबी देशबंधु अखबार के मालिक/संपादक राजीव रंजन श्रीवास्तव से भी इस बारे में मालूम कर सकती है. क्योंकि संपादक द्वारा ही पीआईबी कार्ड बनवाने के लिए पत्र दिया जाता है.
 मालिक/संपादक की भूमिका-
देशबंधु के मालिक/ संपादक को यह तो मालूम ही होगा कि उनके अखबार का प्रतिनिधि होने के कारण ही पुलिस कमिश्नर/ आईपीएस और पत्रकार आदि सोलंकी से मिलते जुलते हैं. उसकी पहचान और वजूद अखबार के कारण ही है. सोलंकी की ऐसी हरकतों से अखबार की भी बदनामी होती है कि कैसे कैसे लोगों को संपादक बनाया हुआ है. 
देशबंधु के मालिक/संपादक बताएं कि किसी पत्रकार को अभ्रद भाषा में मैसेज भेजने वाले अपने संपादक जोगेंद्र सोलंकी के ख़िलाफ़ उन्होंने क्या कार्रवाई की है? क्योंकि यह मेरा कोई निजी मामला नहीं है यह सीधा सीधा शुद्ध रूप से पत्रकारिता का मामला है. देशबंधु के मालिकों को इस मामले में अपनी स्थिति स्पष्ट करनी चाहिए, क्योंकि इस मामले में उनकी चुप्पी सोलंकी का समर्थन ही मानी जाएगी.

पुलिस कमिश्नर दागी का लाइसेंस रद्द करें-
दिल्ली पुलिस कमिश्नर संजय अरोरा को इस बात की जांच करानी चाहिए कि दागी पत्रकार/व्यापारी जोगेंद्र सोलंकी का हथियार का लाइसेंस कब और कैसे बना. क्योंकि हथियार का लाइसेंस बनवाने और नवीनीकरण के समय तो बकायदा फॉर्म में लिखा जाता है कि आपराधिक मामले हैं या नहीं.पता तो यह भी चला हैं अब वह अपने हथियार के लाइसेंस की एरिया वैलिडिटी बढ़वाना चाहता  है.पुलिस कमिश्नर संजय अरोरा को जोगेंद्र सोलंकी का हथियार का लाइसेंस रद्द करना चाहिए. 
पुलिस कमिश्नर संजय अरोरा को साफ़ छवि के सयुंक्त पुलिस आयुक्त (लाइसेंसिंग) ओ पी मिश्रा से या किसी अन्य आईपीएस से इस बारे में निष्पक्ष जांच करानी चाहिए.स्पेशल कमिश्नर (लाइसेंसिंग) संजय सिंह को जोगेंद्र सोलंकी अपना पारिवारिक मित्र/भाई बताता है इसलिए उनसे तो इस मामले की जांच कराई ही नहीं जा सकती.
 सम्मानित?
 जोगेंद्र सोलंकी ने ख़ुद को बड़ा सम्मानित और बेदाग पत्रकार बताया है. सोलंकी के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले दर्ज हुए थे इसके बावजूद उसका खुद को बेदाग़ कहना हास्यास्पद है.

सूत न कपास जुलाहे से लट्ठम लट्ठा-
सबसे अहम बात जिस "जी मुरली कप" को लेकर जोगेंद्र सोलंकी और सुरेश झा ने मुझसे बदतमीजी की.उस मैच के बारे में तो मैने कोई खबर लिखी ही नहीं. इससे इनके दिमागी दिवालियापन का अंदाज़ा लगाया जा सकता है.वैसे अगर लिखी भी होती तो मुझे कुछ भी कहने का इनको कोई अधिकार और औकात नहीं है. 

 मैचों को लेकर आज मैने यह लिखा है.

क्रिकेट मैचों पर सरकारी खज़ाना लुटाना, एसएचओ से फटीक कराना बंद करें आईपीएस.


गौरव गान करते दरबारी- 
दरबारी पत्रकार बटालियन में तैनात आईपीएस गौरव शर्मा की शान में कसीदे पढ़ रहे हैं.गौरव शर्मा ने 'दिल्ली पुलिस कप' क्रिकेट मैच का आयोजन किया था. गौरव शर्मा की खातिरदारी की तारीफ और संजय सैन की बुराई करने से सुरेश झा जैसों की मानसिकता का पता चलता है. वैसे गौरव शर्मा के भी सिर्फ नाम में ही गौरव है. दिल्ली पुलिस में उनका  इतिहास कितना 'गौरवशाली' है इसका अंदाजा सिर्फ इस बात से ही लगाया जा सकता है कि उन्हें दो बार जिलों में डीसीपी के पद पर तैनात किया गया.लेकिन दोनों ही बार ही उन्हें समय से पहले डीसीपी के पद से 'हटा' दिया गया. किसी आईपीएस को इस तरीके से क्यों हटाया जाता है यह सब जानते है. गौरव शर्मा ने अपने नाम के अनुरूप ऐसा कुछ नहीं किया, जिस पर गौरवान्वित महसूस किया जा सके. उनके  'गौरवशाली' किस्सों की चर्चाएं पुलिस में आम है.वैसे दरबारियों द्वारा 'गौरवशाली इतिहास' वाले गौरव शर्मा का स्तुति गान करना तो स्वाभाविक है लेकिन डीसीपी संजय कुमार सैन से तुलना करना बहुत ही हास्यास्पद लगता है.क्योंकि फिलहाल तो आईपीएस संजय सैन की छवि अच्छी ही बताई जाती है. संजय सैन द्वारा तवज्जो न मिलने के कारण दरबारी स्वंयभू मीडिया कोऑर्डिनेटर बौखलाए हुए है.
मैचों पर कितना खर्च हुआ-
पुलिस कमिश्नर क्या बता सकते हैं कि 'दिल्ली पुलिस कप' और 'जी मुरली कप' क्रिकेट मैच में कुल कितना पैसा किस किस मद से खर्च किया गया.यह सारा पैसा सरकारी खाते से ही किया गया या एसएचओ से फटीक कराई गई. 
इन मैचों के दौरान किस किस कथित पत्रकार  ने अपने जानकारों/ गैर पत्रकारों को सम्मानित कराया. इसकी जांच पुलिस कमिश्नर को करानी चाहिए. 
कमिश्नर क्या यह बता सकते हैं कि ' दिल्ली पुलिस कप'  और जी मुरली कप के लिए उन्होंने खुद पहल की थी या दरबारी पत्रकार मैच कराने के लिए उनके पीछे पड़े हुए थे? 

सबसे फीका -
वैसे एक बात साफ है कि पिछले तीन दशक में इस बार का 'जी मुरली कप' का आयोजन सबसे फीका/ खराब कहा जाएगा.
इसके पहले हरेक मैच में पुलिस कमिश्नर मैच खत्म होने से कुछ समय पहले आते थे. पत्रकारों के साथ बैठते थे, पुरस्कार वितरण करते थे. 
पुलिस कमिश्नर के अलावा स्पेशल कमिश्नर, संयुक्त पुलिस आयुक्त और जिलों के डीसीपी आदि भी आते थे.
 यह मैच पुलिस अफसरों और वरिष्ठ/पुराने क्राइम रिपोर्टरों के मिलने जुलने का एक मौका होता था. 
इस बार पुलिस कमिश्नर संजय अरोरा सुबह मैच शुरू होने के मौके पर ही आकर चले गए. सुबह एक दो स्पेशल कमिश्नर भी आए और चले गए. पुरस्कार वितरण के समय मध्य जिले के डीसीपी संजय सैन के अलावा कोई वरिष्ठ आईपीएस नहीं था. पुलिस टीम में शामिल आईपीएस को छोड़कर.
 मध्य जिले के डीसीपी संजय सैन ने ही पुरस्कार वितरण किया. उस समय  कोई स्पेशल कमिश्नर, संयुक्त आयुक्त, अन्य जिलों के डीसीपी आदि भी उपस्थित नहीं थे. 
मीडिया को बुलाया और खुद नहीं आए-
यहां तक कि पुरस्कार वितरण के समय स्पेशल कमिश्नर (मीडिया)  संजय सिंह, पीआरओ डीसीपी सुमन नलवा, एडिशनल पीआरओ एसीपी रंजय अत्रिष्य और राजेन्द्र बिष्ट आदि भी नहीं थे. पीआरओ ब्रांच के सिर्फ  इंस्पेक्टर जगप्रीत सिंह ही अपने मातहतों के साथ अपनी जिम्मेदारी निभा रहे थे. 

इससे अंदाज़ लगाया जा सकता है कि पुलिस मुख्यालय की इस मैच को कराने में कोई खास रुचि नहीं थी. इस सब के लिए यह दरबारी /स्वंयभू मीडिया कोऑर्डिनेटर जिम्मेदार  है. यह ही कमिश्नर और अन्य अफसरों के पीछे मैच कराने के लिए पड़े रहते हैं.
डीसीपी पर थोपा गया-
इस बार का मैच तो ऐसा लग रहा था जैसे कि मध्य जिले के डीसीपी संजय सैन के ऊपर थोप दिया गया और डीसीपी को मजबूरी में अनमने मन से यह आयोजन कराना पड़ा हो.
पुलिस कमिश्नर और पीआरओ द्वारा जब तक जी मुरली कप में रुचि ली जाती रही, मैच का आयोजन बहुत अच्छा होता रहा.
 इस बार का मैच सिर्फ एक जिले का मैच बन कर रह गया. इसका पता इस बात से भी चलता है कि मैदान में पुलिस की ओर से लगाए बोर्ड पर दिल्ली पुलिस मध्य जिला लिखा गया था.
कमिश्नर, पीआरओ जिम्मेदार-
इस मैच के फीके आयोजन के लिए पुलिस कमिश्नर और पीआरओ जिम्मेदार है क्योंकि  आयोजन /खर्चा दिल्ली पुलिस करती है.
दरबारी /स्वंयभू मीडिया कोऑर्डिनेटरो की सलाह पर चलने का यही परिणाम होता है. 
पत्र भी पढें-
पुलिस कमिश्नर को समय निकाल कर वह पत्र भी ध्यान से पढ़ लेना चाहिए जो  सुरेश झा, जोगेंद्र सोलंकी आदि ने मैच कराने के अनुरोध के लिए दिया था. 
उस लैटर हैड नुमा पत्र में कुछ अन्य पत्रकारों के नाम भी लिखे हुए हैं. यह नाम क्यों लिखे गए? क्या खेलने वाली टीम के खिलाड़ियों के हैं या जी मुरली के नाम बनाई इनकी किसी जेबी संस्था के पदाधिकारियों के हैं? दोनों ही सूरत में यह गलत है.ये नाम कमिश्नर को प्रभावित करने के लिए लिखे गए लगते हैं.
 मैच से वजूद-
 दरअसल सुरेश झा  जैसे स्वंयभू मीडिया कोऑर्डिनेट बन कर कमिश्नर और आईपीएस तक पहुंच बनाने के लिए मैच को जरिया बनाते है. 
 सबसे अहम सवाल तो यह है कि दिल्ली पुलिस जी मुरली कप का आयोजन करती है तो ये  पत्रकार किस हैसियत से मैच कराने का कमिश्नर से अनुरोध कर सकते है. 
ये  कोई पत्रकारों के नेता भी नहीं है ऐसे में ये
स्वंयभू मीडिया कोऑर्डिनेटर किस हैसियत से ऐसा पत्र कमिश्नर को दे सकते हैं. कमिश्नर और पीआरओ भी बिना सत्यापन के इनके अनुरोध को मान कैसे लेते हैं?  कमिश्नर और पीआरओ को क्या यह भी समझ नहीं आता कि सिर्फ ये दो चार स्वंयभू मीडिया कोऑर्डिनेटर ही मैच कराने के लिए क्यों उनके पीछे पड़े रहते हैं. 
 मनमर्जी की टीम-
 दरबारी /स्वंयभू मीडिया कोऑर्डिनेटर  
 अपनी मर्जी से अपनी पत्रकारों की टीम भी तय कर लेते है. जबकि होना यह चाहिए कि सभी क्राइम रिपोर्टरों से पूछा जाना चाहिए कि क्या वह खेलना चाहते हैं. इसके बाद उनमें से ही टीम का चयन किया जाना चाहिए.
गलतफहमी के शिकार-
दरबारी /स्वंयभू मीडिया कोऑर्डिनेटर इस भ्रम में जीते हैं कि पुलिस अफसरों के साथ उठने बैठने से पुलिस के कार्यक्रम में उनका हुक्म/नंबरदारी भी चलेगी. 
जी मुरली कप में खाने पीने की व्यवस्था सही नहीं थी, इस पर जोगेंद्र सोलंकी ने कैटरर को बुला कर कहा कि तुम्हारी शिकायत करेंगे. लेकिन कैटरर ने उसकी बात पर कोई ध्यान नहीं दिया. इन लोगों को क्या इतनी भी समझ नहीं है कि कार्यक्रम पुलिस का है. कैटरर तो अफसरों का ही ख्याल रखेगा. पत्रकार का उससे सीधे कुछ भी कहना बनता ही नहीं. जो कुछ भी कहना है वह पीआरओ के माध्यम से कहना चाहिए.
मेहमानों को बुला कर, मेजबान गायब-
पत्रकार तो पुलिस द्वारा आमंत्रित मेहमान होते है और मेहमान का ख्याल रखना पुलिस कमिश्नर की ओर से पीआरओ की जिम्मेदारी होती है. स्पेशल कमिश्नर (मीडिया) संजय सिंह और पीआरओ डीसीपी सुमन नलवा आदि के मैच में मौजूद नहीं रहने से ही मीडिया के साथ ऐसा हुआ. इस मामले में तो यह हुआ कि मेहमानों (मीडिया) को बुला कर मेजबान यानी स्पेशल कमिश्नर संजय सिंह और पीआरओ डीसीपी सुमन नलवा आदि खुद गायब हो गए. सिर्फ पीआरओ ब्रांच के इंस्पेक्टर जगप्रीत सिंह अपने मातहतों के साथ मौजूद थे. स्पेशल कमिश्नर संजय सिंह के अंतर्गत पीआरओ डीसीपी और एसीपी आदि की इतनी भारी भरकम फौज है. इसके बावजूद ऐसा फीका आयोजन इनकी भूमिका/ कार्य शैली पर सवालिया निशान लगाता है.एक समय था कि एसीपी स्तर के पीआरओ रवि पवार अपने थोड़े से मातहतों के साथ ही मैच का बहुत अच्छा आयोजन करते थे.

रवि पवार, पुलिस के आखिरी पेशेवर पीआरओ -
भारतीय सूचना सेवा (आईईएस)  के अधिकारी रवि पवार का 21 मार्च 2023 को 78 साल की आयु में निधन हो गया. वह 22 साल तक दिल्ली पुलिस के पीआरओ रहे.रविन्द्र सिंह पवार उर्फ रवि पवार दिल्ली पुलिस के आईईएस सेवा के आखिरी पेशेवर पीआरओ थे. दिल्ली पुलिस ने उनके रिटायरमेंट (2006) के बाद से कोई पेशेवर पीआरओ  नियुक्त नही किया. आईपीएस/दानिप्स कैडर के पुलिस अफसरों को ही पीआरओ की जिम्मेदारी भी सौंप दी जाती है . पेशेवर पीआरओ न होने के कारण ही मीडिया को भी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है.
जिसका काम  उसी को साजे..
यह बात बिल्कुल सही है. पुलिस अफसर, बेहतर अफसर तो हो सकता है लेकिन बेहतर पीआरओ कभी नहीं हो सकता. अनुशासित पुलिस बल का जूनियर अफसर होने के नाते वह सिर्फ कमिश्नर या वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों की हां में हां ही मिलाएगा. मीडिया और पुलिस के बीच वह कभी भी पुल नहीं बन सकता. पेशेवर पीआरओ ही मीडिया और पुलिस के बीच बेहतर तालमेल रखता है. वह मीडिया की पेशेवर दिक्कतों को समझ कर सभी पहलुओं से कमिश्नर आदि को अवगत कराता है.
पीआरओ बनने को भर्ती हुए क्या? 
सबसे अहम बात आईपीएस/दानिप्स कैडर के अफसरों को  पुलिस में कोई पीआरओ के कार्य के लिए भर्ती  थोड़ी किया गया. उन्हें तो पुलिसिंग के कार्य के लिए भर्ती किया जाता है.

 


☝️क्या कोई पत्रकार किसी पत्रकार को यह कह सकता है कि तुमने ऐसा क्यों लिखा.
इस तरह का मैसेज करने वाला पत्रकार नहीं हो सकता. 
इस तरह का मैसेज करने और बदतमीजी करने वालों को मुंह तोड़ जवाब देना जरुरी होता है.
मुझे मैसेज करके जोगेंद्र सोलंकी तुमने शुरुआत की है. तुम अपनी हद पार कर गए थे, इसलिए तुम्हारी हैसियत याद दिलाने के लिए जवाब देना जरुरी था.
मेरे से बात करने की तुम्हारी औकात नहीं है. पत्रकारिता के नाम पर कलंक हो तुम. मुझे धमकाने या डराने की कोशिश मत करो. मैं तुमसे डरने वाला नहीं हूं. तुम्हे नंगा कर दिया अब रोते रहो.





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