नए कानूनों से पुलिस राज का खतरा ?
केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने देशभर में एक जुलाई से लागू हुए 3 नए आपराधिक कानूनों को दंड की जगह न्याय देने वाला और पीडित-केन्द्रित बताया है। गृह मंत्री ने कहा कि नए कानूनों में दंड की जगह न्याय को प्राथमिकता मिलेगी, देरी की जगह त्वरित सुनवाई और त्वरित न्याय मिलेगा और पीडितों/शिकायतकर्ता के अधिकारों की रक्षा सुनिश्चित होगी।
इस कानून से लोगों को क्या वाकई न्याय जल्द मिलेगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। लेकिन इस नए कानून का एक प्रावधान ही सरकार के दावों की पोल खोलने के लिए काफी है।
एसएचओ के रहमोकरम पर-
लोगों यानी शिकायतकर्ता को न्याय तो तब मिलता है, जब उसकी एफआईआर दर्ज होती है। नए कानून के अनुसार तो अब अपराध के कुछ मामलों में तो एफआईआर दर्ज करना या ना करना सब एसएचओ के विवेक/मर्जी पर निर्भर होगा। अपराध के कुछ मामलों में अब एसएचओ प्रारंभिक जांच करके यह तय करेगा, कि एफआईआर दर्ज की जाए या नहीं।
पुराने कानून में अपराध के हर मामले में एफआईआर दर्ज करने का प्रावधान था।
लेकिन अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता के नए कानून 173(3) के अनुसार जिस संज्ञेय अपराध में सज़ा तीन साल या उससे ज्यादा लेकिन सात साल से कम है। ऐसे मामले में डीएसपी स्तर के अफसर की पूर्व अनुमति से प्रारंभिक जांच करके ही एसएचओ यह तय करेगा, कि एफआईआर दर्ज की जाए या नहीं। यानी उसकी समझ से जो मामला सही होगा है, तभी वह एफआईआर दर्ज करेगा। यानी अब हर मामले में एफआईआर दर्ज करना कानूनन अनिवार्य नहीं होगा।
सुप्रीम कोर्ट का आदेश -
सुप्रीम कोर्ट ने ललिता कुमारी मामले में कहा है कि संज्ञेय अपराध की सूचना मिलने पर पुलिस को एफआईआर दर्ज करनी ही होगी।
भ्रष्टाचार बढ़ेगा-
इस नए कानून से तो पुलिस में भ्रष्टाचार पहले से भी ज्यादा बढ़ेगा। पुलिस को पीड़ित और आरोपी दोनों से पैसा वसूलने का पहले से ज्यादा मौका मिल जाएगा। पुलिस द्वारा एफआईआर दर्ज करने में मनमानी भी पहले से ज्यादा बढ़ेगी।
अब ऐसे में पीड़ित/शिकायतकर्ता के लिए एफआईआर दर्ज कराना ही पहले से भी ज्यादा मुश्किल हो जाएगा। जब उसकी एफआईआर ही दर्ज नही होगी ,तो भला उसे न्याय कहां से मिलेगा। कानून के इस प्रावधान से तो शिकायतकर्ता के साथ अन्याय होगा।
आंकड़ों की बाजीगरी-
सच्चाई यह है कि अपराध को आंकड़ों की बाजीगरी के माध्यम से कम दिखाने के लिए पुलिस में पहले से ही अपराध के सभी मामलों को सही दर्ज न करने या हल्की धारा में दर्ज करने की परंपरा है। लोगों को एफआईआर दर्ज कराने के लिए अदालत तक में गुहार लगानी पड़ती है।
संवेदनहीन पुलिस-
गृहमंत्री के अन्तर्गत आने वाली दिल्ली पुलिस द्वारा महिलाओं के प्रति संवेदनशील होने और एफआईआर आसानी से दर्ज किए जाने का दावा किया जाता है। लेकिन पदक विजेता नामी महिला पहलवानों को कुश्ती संघ के अध्यक्ष भाजपा के तत्कालीन सांसद बृज भूषण शरण सिंह के ख़िलाफ़ यौन शोषण/ उत्पीड़न की एफआईआर दर्ज कराने के लिए सुप्रीम कोर्ट में गुहार लगानी पड़ी थी।
एफआईआर दर्ज न करना अपराध-
जबकि पुरानी आईपीसी की धारा 166 ए (सी)में साफ कहा गया कि महिला के खिलाफ अपराध के मामले में एफआईआर दर्ज न करना दंडनीय अपराध है।
पुलिस के हथकंडे-
सच्चाई यह है कि पुलिस अपराध कम दिखाने के लिए डकैती/लूट, स्नैचिंग/झपटमारी, चोरी/जेबकटने जैसे ज्यादातर मामलों को भी या तो दर्ज ही नहीं करती या हल्की धारा में दर्ज करती है। हत्या तक के मामले में भी एफआईआर दर्ज नहीं करने के मामले भी इस पत्रकार ने उजागर किए हैं। दिल्ली में पिछले तीन दशकों से ज्यादा समय से क्राइम रिपोर्टिंग के दौरान इस पत्रकार ने ऐसा ही होते हुए देखा है और ऐसे अनगिनत मामले खबरों के माध्यम से उजागर किए है। जब देश की राजधानी में गृह मंत्री के अन्तर्गत आने वाली पुलिस का यह हाल है तो देश भर का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है।
पुलिस राज का खतरा -
ऐसे में तो अब इस नए कानून की आड़ में अपराध के कुछ मामलों में शुरुआती जांच के आधार/नाम पर एफआईआर दर्ज न करने के लिए पुलिस को एक तरह से कानूनी रूप से छूट मिल गई। इस कानून से तो पुलिस राज शुरू हो जाएगा। शिकायतकर्ता से सीधे मुंह बात तक न करने के लिए बदनाम पुलिस अब और ज्यादा निरंकुश हो जाएगी। लोकतंत्र और सभ्य समाज के लिए पुलिस राज खतरनाक होता है।
एफआईआर न करना अपराध हो-
जबकि होना तो यह चाहिए था कि अपराध की सूचना की एफआईआर दर्ज न करने को भारतीय न्याय संहिता में दंडनीय अपराध घोषित किया जाना चाहिए। एफआईआर दर्ज न करने वाले पुलिसकर्मी के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज किए जाने का कानून बनाया जाना चाहिए था, जैसा कि पहले आईपीसी में महिला के प्रति अपराध के मामले की एफआईआर दर्ज न करने पर पुलिसकर्मी के खिलाफ आईपीसी की धारा 166 ए(सी) के तहत एफआईआर दर्ज करने का कानून था। यह कानून निर्भया गैंगरेप कांड के बाद साल 2013 में बनाया गया था।
एक ही रास्ता-
अपराध और अपराधियों पर नियंत्रण करने का सिर्फ और सिर्फ एकमात्र रास्ता अपराध के सभी मामलों की सही एफआईआर दर्ज करना ही है। अभी तो हालत यह है कि मान लो अगर कोई लुटेरा पकड़ा गया, जिसने लूट/छीना झपटी की 100 वारदात करना कबूल किया है। लेकिन एफआईआर सिर्फ दस-बीस वारदात की ही दर्ज पाई गई।
अगर पुलिस सभी मामलों में एफआईआर दर्ज करे, तो अपराधी ज्यादा समय तक जेल में रहेगा। अपराधी को हरेक मामले में जमानत कराने और मुकदमेबाजी के लिए वकील को पैसा देना पड़ेगा, जिससे वह आर्थिक रूप से भी कमज़ोर हो जाएगा। ज्यादा मामलों में शामिल होने के कारण उसे जमानत भी आसानी से नहीं मिलेगी। अपराधी के अंदर सभी मामलों में सज़ा मिलने का डर बैठेगा।
अपराध के सभी मामलों की सही एफआईआर दर्ज होने से ही अपराध और अपराधियों के बारे में सही तस्वीर सामने आएगी। जिसके आधार पर ही अपराध और अपराधियों से निपटने की कोई ठोस योजना बनाई जा सकती है
न्याय की बुनियाद एफआईआर-
इस नए कानून पर यह एक बहुत ही बुनियादी और महत्वपूर्ण सवाल है क्योंकि आपराधिक न्याय प्रणाली की बुनियाद ही एफआईआर पर टिकी हुई है। लेकिन जब एफआईआर आसानी से दर्ज ही नहीं होगी या पुलिस की मनमर्जी से दर्ज होगी, तो भला न्याय कैसे मिलेगा। कानून के जानकारों के अनुसार भी इस नए कानून के तहत पुलिस को ज्यादा अधिकार दे दिए गए हैं।
पुलिस रिमांड-
पहले पुलिस गिरफ्तार व्यक्ति को 14-15 दिन तक ही रिमांड पर ले सकती थी, लेकिन अब उसकी 60 से 90 दिन तक जमानत ही नहीं हो सकेगी, क्योंकि अब पुलिस 60 से 90 दिन तक कभी भी उसे रिमांड पर ले सकती हैं।
जब पुलिस 60 से 90 दिन तक टुकड़ों में रिमांड पर लेगी, तो आरोपी जेल में ही रहेगा और उसे तब तक जमानत नही मिलेगी। यानी उसकी हिरासत की अवधि लंबी होती जाएगी।
जबकि सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि "जमानत एक नियम है, जेल एक अपवाद है "
हालांकि गृह मंत्री ने कहा कि नए कानूनों के तहत भी रिमांड का समय पहले की तरह 15 दिनों का ही है। इन कानूनों में 60 दिनों के अंदर कुल 15 दिनों के रिमांड का प्रावधान किया गया है।
देशद्रोह-
पुराने राजद्रोह कानून को सरकार ने खत्म कर दिया है। लेकिन विपक्ष के नेताओं और कानून के जानकर का कहना है कि राजद्रोह को इस नए कानून में पिछले दरवाजे से लाया गया है।
दुविधा-
नए कानूनों को वकील, पुलिस और जज अपने अपने हिसाब/तरीके/समझ से व्याख्या/परिभाषित करेंगे। इस वजह से अदालतों में आने वाले समय में बहुत समस्या होगी। अदालत में दुविधा रहेगी और मुकदमों के ढ़ेर बढ़ते जाएंगे।
जीरो एफआईआर-
एफआईआर की प्रति शिकायतकर्ता को नि:शुल्क देने, जीरो एफआईआर, ई- एफआईआर और आरोपी की गिरफ्तारी की सूचना पुलिस द्वारा प्रर्दशित करने का प्रावधान पहले से ही है।
आसाराम बापू के ख़िलाफ़ बलात्कार का मामला दिल्ली पुलिस के कमला मार्केट थाना में जीरो एफआईआर के तहत ही दर्ज किया गया था। पुराने कानून के तहत भी पुलिस द्वारा तफ्तीश में साइंटिफिक एविडेंस जुटाए जाते थे। अपराध की फॉरेंसिक जांच भी की जाती रही है।
नए कानून में तफ्तीश में वीडियोग्राफी अनिवार्य की गई है।
हथकड़ी-
नए कानून में गंभीर/संगीन अपराध करने वाले आदतन/ खतरनाक अपराधियों को हथकड़ी लगाने का प्रावधान करना सही कदम है।
ऐतिहासिक-
वैसे केंद्र सरकार ने अंग्रेजों के जमाने के कानूनों को बदल कर बड़ा ही ऐतिहासिक काम किया है।
गृह मंत्री के अनुसार इन कानूनों के पूरी तरह लागू होने के बाद भारतीय आपराधिक न्याय प्रणाली दुनिया की सबसे आधुनिकतम न्याय प्रणाली बन जाएगी। तीनों नए कानूनों में तकनीक को न केवल अपनाया गया है, बल्कि इस तरह का प्रावधान भी किया गया है कि अगले 50 सालों में आने वाली सभी तकनीकें इसमें समाहित हो सके।
कड़ी निगरानी-
इन नए कानून से सभी लोगों, खासकर गरीब को वाकई न्याय जल्द मिलेगा, यह तो आने वाला समय ही बताएगा।
सभी को खासकर गरीब को न्याय मिले, सरकार को यह सुनिश्चित करने के लिए कोई ठोस व्यवस्था भी बनानी चाहिए। इन कानून की आड़ में पुलिस निरंकुश न हो जाए। इन कानूनों को लागू करने में पुलिस पूरी ईमानदारी/ जिम्मेदारी और सावधानी बरतें। यह सुनिश्चित करने के लिए सरकार को गंभीरता से कड़ी निगरानी की व्यवस्था भी करनी चाहिए। नए कानूनों के जिन प्रावधानों पर सवाल उठ रहे हैं, उन्हें सुधारना चाहिए।
अंग्रेजों के बनाए दो कानून बदले गए-
अंग्रेजों के बनाए तीनों आपराधिक कानूनों को बदलने का सरकार द्वारा दावा किया जा रहा है। जबकि तथ्य यह है कि तीनों आपराधिक कानून जो बदले गए हैं, उनमें से दो भारतीय दंड संहिता और भारतीय साक्ष्य अधिनियम ही अंग्रेजों के बनाए हुए थे।
क्योंकि अंग्रेजों द्वारा 1898 में बनाए गए सीआरपीसी कानून को तो 1973 में खत्म करके, नई सीआरपीसी यानी दंड प्रक्रिया संहिता तो 1973 में भारत ने ही बनाई थी।
अंग्रेजों ने साल 1834 से लेकर साल 1860 तक के लंबे समय तक विचार विमर्श के बाद भारतीय दंड संहिता आदि कानून बनाए, जिन्हें 1862 में लागू किया गया।
(इंद्र वशिष्ठ दिल्ली में 1990 से पत्रकारिता कर रहे हैं। दैनिक भास्कर में विशेष संवाददाता और सांध्य टाइम्स (टाइम्स ऑफ इंडिया ग्रुप) में वरिष्ठ संवाददाता रहे हैं।)
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