Saturday 29 February 2020

दिल्ली में दंगों ने खोली IPS की पोल, गृहमंत्री की भूमिका पर सवालिया निशान।


दिल्ली में दंगों ने खोली IPS की पोल, 
गृहमंत्री की भूमिका पर सवालिया निशान।

इंद्र वशिष्ठ
दिल्ली  के कई इलाकों में 3-4 दिनों तक दंगाइयों का राज़ रहा। दंगाई पिस्तौल, पेट्रोल बम, लाठी-डंडों और पत्थर से लोगों पर हमला करते रहे। मकान, दुकान, स्कूल और धार्मिक स्थल में आग लगाते रहे। दंगाइयों ने दिल्ली पुलिस के हवलदार समेत चालीस से ज्यादा लोगों की जान ले ली।
तीन दिन तक दंगों को रोकने में पुलिस विफल रही। लेकिन इस मामले में लापरवाही बरतने के आरोप में किसी भी आईपीएस अफसर या एसएचओ के खिलाफ कोई विभागीय  कार्रवाई भी अब तक नहीं की गई है।

किसी भी इलाके में दंगे होना स्थानीय थाना पुलिस और खुफिया तंत्र की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े कर देता है।
दंगें होने के बाद कई दिनों तक उस पर काबू ना कर पाना आईपीएस अधिकारियों की काबिलियत पर सवालिया निशान खड़े कर देता है।
पुलिस का काम लोगों की जान-माल की रक्षा करने का होता है। पुलिस अपना यह काम करने में बुरी तरह फेल हो गई।

सांप्रदायिक दंगों के लिए बकायदा एसओपी है यानी दंगों के हालात में क्या कदम उठाए जाने चाहिए तय है। 
इसके बावजूद दंगों  में इतने लोगों की जान चली गई और संपत्ति का नुक़सान हुआ है।
इन दंगों के मामले में यह भी साफ़ है कि दंगों पर नियंत्रण के लिए पर्याप्त पुलिस बल नहीं भेजा गया। 
इससे पता चलता है कि दंगों की स्थिति का आकलन करने में अफसरों द्वारा लापरवाही बरती गई। इसलिए दंगाइयों पर नियंत्रण पाने में देरी हुई।

ख़ुफ़िया तंत्र और पुलिस की लापरवाही/विफलताओं के लिए संबंधित पुलिस अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए।
पुलिस बल के मुखिया होने के नाते तत्कालीन पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए ।
इसके बाद विशेष पुलिस आयुक्त ( कानून एवं व्यवस्था) सतीश गोलछा, संयुक्त पुलिस आयुक्त आलोक कुमार, जिला पुलिस उपायुक्तों वेद प्रकाश सूर्य और अमित शर्मा और दंगाग्रस्त इलाके के एसीपी और एसएचओ के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए। हालांकि दंगाइयों द्वारा किए पथराव में अमित शर्मा भी घायल हुए हैं।

दंगों के कारण डीसीपी दीपक मिश्रा को हटाया गया-
साल 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद  सीलमपुर, जाफराबाद और वेलकम इलाके में दंगे हुए थे।
दंगें होना और उन पर काबू पाने में देरी होना पुलिस अफसरों की पेशेवर काबिलियत पर सवाल खड़े कर देता है। 
इसलिए उस समय उत्तर पूर्वी जिले के तत्तकालीन डीसीपी दीपक मिश्रा का तबादला कर दिया गया था। 

कहा तो यहां तक जाता है कि तत्कालीन पुलिस कमिश्नर मुकुंद बिहारी कौशल ने दीपक मिश्रा के भविष्य/ नौकरी को ख़राब होने से बचा लिया था। वर्ना दीपक मिश्रा की नौकरी ख़तरे में पड़ सकती थी। मुकुंद बिहारी कौशल ने दीपक मिश्रा को न केवल बचाया बल्कि उसे पश्चिम जिला में तैनात कर दिया।

पुलिस अफसरों के मुताबिक असल में हुआ यह बताते हैं कि उस समय पुलिस ने लापरवाही और गैर जिम्मेदाराना तरीके से इतनी अंधा धुंध गोलियां चलाई थी कि उसका जवाब देना भारी पड़ गया था। गोलियों का हिसाब किताब दिखाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी थी।
बताया जाता है कि एक आईपीएस अफसर ने तो  साफ़ मना कर दिया था कि गोलियों का हिसाब पूरा करने के लिए उसका नाम गोली चलाने वालों में शामिल न किया जाए।
दक्षिण भारतीय यह आईपीएस कुछ समय पहले ही विशेष आयुक्त के पद से रिटायर हुए हैं।

डीसीपी हटाया-
शाहीन बाग और जामिया में धरना प्रदर्शन करने वालों पर गुंडों द्वारा गोलियां चलाईं गई।
 लोगों की सुरक्षा में लापरवाही बरतने के लिए तत्तकालीन डीसीपी चिन्मय बिस्वाल को हटा दिया गया।

स्पेशल कमिश्नर को‌ हटाया-

पिछले साल तीस हजारी कोर्ट में वकीलों ने पुलिस वालों को जमकर पीटा, आगजनी और तोड़फोड़ की।

इस मामले में भी विशेष पुलिस आयुक्त कानून व्यवस्था संजय सिंह और उत्तरी जिले के तत्तकालीन एडिशनल डीसीपी हरेंद्र सिंह का तबादला कर दिया गया।
 हरेंद्र सिंह को तो वकीलों ने बुरी तरह पीटा था। हालांकि इन दोनों के तबादले से पुलिस में जबरदस्त रोष पैदा हो गया था।

गृहमंत्री की भूमिका पर सवालिया निशान-

ऐसे में जब दंगों में चालीस से ज्यादा लोगों की जान चली गई और सैंकड़ों लोग घायल हो गए। लेकिन अभी तक किसी भी आईपीएस अफसर के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं किया जाना गृह मंत्री अमित शाह और उपराज्यपाल अनिल बैजल की भूमिका पर सवालिया निशान लगाते हैं।

प्रधानमंत्री के काफिले के रास्ते में अगर कोई व्यक्ति गलती से भी आ जाता है। तो उसे सुरक्षा में गंभीर चूक माना जाता है। पुलिस अफसरों तक के खिलाफ  कार्रवाई की जाती है।
क्या चालीस से ज्यादा लोगों की जान जाना  गंभीर मामला नहीं है? 
या सिर्फ प्रधानमंत्री की जान की ही कीमत है ?
आम आदमी की जान की कोई कीमत नहीं?
आम आदमी की जान की रक्षा करने में पुलिस की यह जबरदस्त चूक है।

दंगें में एक पुलिसकर्मी के शहीद होने से पुलिस का मनोबल प्रभावित होता है। चालीस से ज्यादा लोगों के मरने का आम लोगों को भी गहरा सदमा लगता है। 

भड़काने वाले भाषण देने वाले नेताओं के खिलाफ पुलिस अफसर अगर पहले ही कार्रवाई कर देते तो दंगे होने से रोके जा सकते थे।










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