Wednesday 20 July 2011

माफी मांगना कब सीखेगी पुलिस

 इंद्र वशिष्ठ
भारतीय मूल के डाक्टर हनीफ को  आतंकवादी मामले में शामिल होने के आरोप में  गिरफतार करने के लिए आस्ट्रेलिया सरकार ने  उससे माफी मांगी । हनीफ को वर्ष 2007 में
जांच में आरोप गलत साबित होने पर रिहा कर दिया गया था। माफी मांगने के अलावा उसे मुआवजा भी दिया गया। आस्ट्रेलिया सरकार का यह व्यवहार बडप्पन  दिखाता है वह भी किसी विदेशी के मामले में। इसके साथ ही यह भी दिखाता हैै कि आम आदमी की इज्जत का उनके लिए कितना महत्व है। क्या हमारी सरकार और पुलिस आस्टेªलिया सरकार से कुछ सबक सीखेगी ?कयोंकि हमारे यहां  पुलिस  हर साल न जाने कितने बेकसूर लोगों को बिना किसी सबूत के गिरफतार करजेल में डाल देती है। दिल्ली पुलिस की बेशर्मी का तो आलम यह है कि बेकसूरो की हत्या तक करने बाद भी वह माफी नहीं मांगती है। बेकसूरो को गिरफतार कर जेल भेजना तो उसके लिए बहुत ही मामूली बात है। सीबीआई भी ऐसे मामलों में पीछे नहीं है। आरुषि-हेमराज हत्याकांड में तीन बेकसूर नौकरो की गिरफतारी से भी यह बात एक बार फिर साबित हो गई ।  सीबीआई के आईपीएस अफसर अरुण कुमार ने बकायदा प्रेस को बताया कि नौकरो ने  नारको टेस्ट आदि में हत्या करना कबूला है।  सीबीआई ने अब  इस केस को बंद करने के लिए कोर्ट में कलोजर रिपोर्ट दाखिल की है। अब सीबीआई ने इस मामले में तीनो नौकरों को  बेकसूर मानते हुए उनको कलीन चिट दी है। लेकिन सिर्फ बेकसूर मान लेने से ही सरकार या सीबीआई की जिम्मेदारी खत्म नहीं हो जाती है। सीबीआई को उन नौकरों से माफी मांगनी चाहिए। इसके अलावा सरकार को उन नौकरो को मुआवजा देना चाहिए। इसके साथ ही अदालत और सरकार  को सीबीआई के उन अफसरो के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए जिन्होंने इन नौकरो को गिरफतार किया और उनको बदनाम किया । जब तक बेकसूरो को गिरफतार करने वाले अफसरो के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई नहीे होगी । बेकसूरो को जेल में डालने का सिलसिला रुकने वाला नही है।  जमीनी हकीकत यह है कि कई बार पुलिस के आला अफसर सचाई का पता
 लगाए बिना मामला सुलझाने की जल्दी में अपने मातहत की बताई कहानी को ही अंतिम सच मानकर आरोपी को झूठा समझते है। बेकसूर का मामला उजागर होने के बाद भी पुलिस उसे जेल से बाहर निकलवाने को प्राथमिकता के आधार पर नहीं लेती है। पुलिस सामान्य प्रक्रिया के तहत उस मामले की तय तारीख पर ही उसे डिस्चार्ज यानि आरोपमुकत करने के लिए अदालत में अर्जी लगाती है। जबकि होना यह चाहिए कि बेकसूर के मामले को तुरन्त अदालत को बता कर उसे तुरन्त जेल से रिहा कराना चाहिए। बेकसूर को आरोप मुकत करा देने से ही इंसाफ नहीं हो जाता है। बेकसूरों को गिरफतार करने वाले पुलिसवालों के खिलाफ अदालत को खुद ही मुकदमा चलाना चाहिए। इसके अलावा  अदालत को पुलिस को यह आदेश देना चाहिए कि मीडिया में बयान देकर बेकसूर से माफी मांगे और मुआवजा दे।
अभी आलम यह है कि पुलिस तफतीश कर सचाई का पता लगाए बिना ही बेकसूर को जेल में डाल देती है। टीचर उमा खुराना के साथ भी ऐसा ही हुआ था लाइव इंडिया चैनल पर दिखाई खबर के आधार पर ही बिना तफतीश किए उमा को गिरफतार कर लिया गया। बाद में की गई तफतीश में वह खबर ही झूठी निकली। वर्ष 2006 में तिमार पुर में एक सिपाही ने बदला लेने के लिए फर्जी एनकाउंटर में दो लोगों की हत्या कर दी। वर्ष 1997 में कनाट प्लेस में दो व्यापारियों की फर्जी एनकाउंटर में हत्या कर दी गई । तत्कालीन पुलिस कमिश्नर निखिल कुमार ने माफी तक नहीं मांगी।
ये तो वे मामले है जो मीडिया की सुर्खियों में आने के कारण उजागर हो गए थे और इंसाफ मिल सका। वरना  बेशर्म पुलिस ने तो  माफी तक नहीं मांगी। सुप्रीम कोर्ट भी बार-बार कहता है कि बिना ठोस सबूत के किसी को गिरफतार करने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। लेकिन इसका पालन पुलिस या सीबीआई क्यों नहीं करती।

धर्म को बदनाम न करो या धर्म के नाम पर अधर्म न करो

इंद्र वशिष्ठ
एक तो वैसे ही दिल्ली के ज्यादातर इलाकों में लोगों को रोजाना जाम का सामना करना पडता है। उस पर विभिन्न समुदायों के धार्मिक जुलूसों और राजनैतिक दलों के कार्यक्रमों के कारण लगने वाले जाम ने लोगों की मुसीबत और बढा दी है। पीएम के काफिले की सुरक्षा और सुविधा के लिए
 लगने वाले जाम में फंसने से किसी व्यकित कीमौत हो जाने का मामला तो प्रकाश में आ जाता है लेकिन धार्मिक जुलूस और रैलियों के कारण मरीजो और आम आदमी को होेने वाली  परेशानी की न तो पुलिस को ना ही सरकार को और न मीडिया को ही परवाह है। ये तीनों तो लोगों की समस्याओं के प्रति संवेदनहीन हो गए है। आश्चर्य तो  विभिन्न समुदाय के उन कथित मठाधीशो /ठेकेदारों पर होता है जो धार्मिक जुलूस निकालते है। दिल्ली के  भीड-भाड वाले इलाको से गुजरने वाले इन जुलूसों के कारण जबरदस्त जाम का सामना लोगों को करना पडता है। किसी भी व्यकित को कष्ट पहुंचाना सबसे बडा अधर्म होता है। धर्म की ये बुनियादी बात ही आज धर्म के कथित ठेकेदारों को शायद मालूम नहीं। वरना वे पूरे-पूरे दिन जुलूस निकाल कर लोगों को कष्ट न पहुंचाते। कभी मुहर्रम;कभी शहीदी दिवस कभी वाल्मीक जयन्ती आदि पर धार्मिक जुलूस निकाले जाते है। वाल्मीक जयन्ती और अन्य धार्मिक आयोजनों का तोे दिल्ली के कुछ नेेताओं ने राजनीतिकरण ही कर दिया है।
सभी धर्मो में मानव की सेवा करने को कहा गया है। अरे धर्म के ठेकेदारों
मानव की सेवा नहीं कर सकते तो मत करो परन्तु धर्म के नाम पर कोई ऐसा कार्य तो मत करो जिससे दूसरे मानव को कष्ट हो । आप धार्मिक है इसका असली पता तो आपके आचरण से चलता है। ऐसे जुलूस आदि से नही जिससे किसी को परेशानी हो। हरेक शुक्रवार को रास्ता बंद करके लोगों को परेशान करके की जाने वाली इबादत को मेरे विचार से तो
अल्लाह  कबूल भी नहीं करता होगा।
इसलिए धर्म के कथित ठेकेदारों धर्म के असली मर्म को समझो ।
ऐसे ही हमारे नेता है जो लोगों की समस्या उठाने के नाम पर जाम लगा कर लोगों को परेशान कर देते है।
इन सभी जुलूसों से एक दिन पहले पुलिस जुलूस के रास्तों से बचने की सलाह का बयान मीडिया में जारी कर अपना खानापूर्ति कर लेती है। वैसे ही दिल्ली की हर सडक पर वाहनों की भीड रहती है अब जुलूस के रास्तों से बचने के लिए उन सडको पर दूसरे वाहन भी जाएंगे तो जाम लगेगा ही। इस दौरान यातायात को सुचारु रुप से चलाने के लिए यातायात पुलिस पुख्ता इंतजाम नहीं करती इसलिए भी लोग घंटों जाम में फंस जाते है या रेंग-रेंग का वाहन चलते है। पहले बोट कलब पर रैलियां-प्रदर्शन होते थे  वहां 1992 से
 इन पर रोक लगा दी गई। इससे वीवीआइपी तो सुखी हो गए । लेकिन  इसके बाद खासकर पुरानी दिल्ली के लोगों की परेशानियां बढ गई। रैलियां और जुलूस आदि फिर से बोट कलब जैसे खुले इलाकों में ही होने चाहिए । सरकार की किसी बात का विरोध संसद भवन या पीएम हाउस के सामने ही होना चाहिए। इन कुछ वीवीआइपी की सुरक्षा और
सुविधा के नाम पर दिल्ली के लाखों लोग कयों परेशानी झेले। लेकिन सरकार और पुलिस ऐसा नहीं
चाहती। कयोंकि सत्ता में कोेई भी दल हो सब अपनी सुविधा देखते है उनकी बला से
आम आदमी जाए भाड मे।

नेताओं के लठैत बनी पुलिस

इंद्र् वशिष्ठ
रामलीला मैदान में आधी रात को शांतिपूर्ण तरीेके से अनशन करने वाले लोगों पर पुलिस की बर्बरतापूर्ण कार्रवाई किसी भी तरह से सही नहीं ठहराई जा सकती है। लेकिन  इस तरह की अमानवीय कार्रवाई सरकारें करती रहेगी जब तक फिरंगियों के बनाए कानून और पुलिस व्यवस्था में बदलाव या सुधार  नहीं किया जाएगा। लेकिन किसी भी दल की सरकार हो वह पुलिस को अपने लठैतों की तरह रखना चाहती है। ताकि अपने विरोधियों को  डंडे के दम पर कुचल सकें। इसीलिए लोगों का दमन करने और उन पर राज करने के लिए बनाए फिरंगियों के कानून आजादी के बाद भी जारी है। सत्ता में चाहे कोई भी दल हो किसी की भी नीयत इन काले कानूनों को बदलने और पुलिस में सुधार करने की नहीं रहीं । इसीलिए धर्मवीर आयोग की पुलिस में सुधार के लिए दी गई रिपोर्ट सालों से धूल खा रही हैं।किसी भी राजनैतिक दल को पुलिस की ज्यादतियों पर आवाज उठाने की याद सिर्फ उस समय आती है जब वह विपक्ष में होते है। सत्ता में सब उसी कानून और पुलिस के सहारे अपना राज कायम  रखना चाहते है। इसीलिए बेकसूर लोग पुलिस के जुल्म के शिकार होते रहेंगें। इसके लिए जिम्मेदार है नेताओं की फिरंगियों वाली सोच। संविधान के अनुसार  तो वे जनप्रतिनिध या जनसेवक है।लेकिन सत्ता मिलते ही वे गिरगिट की तरह रंग बदल कर स्वामी या मालिक बन बैठते है ये सोच ही सभी समस्याओं की जड। सत्ता के अहंकार या
नशे में चूर नेताओं से न्यायपूर्ण और भ्रष्टाचार मुक्त शासन की कल्पना करना बेमानी है। और कहा ही जाता है कि अहंकार या का्रेध सबसे पहले व्यकित के दिमाग पर असर डालता और उसकी
 सोचने समझने की शक्ति खत्म कर देता है इसी लिए सत्ता के मद मे डूबे नेता इस तरह की पुलिसिया कार्रवाई करते है।
भ्रष्ट नौकरशाह और पुलिस अफसरों के बलबूते ही सरकार अमानवीय कार्रवाई पुलिस से करवा पाती है। अफसोसनाक  बात है कि आईएएस या आईपीएस बनने के बाद ज्यादातर अफसरों की सोच भी फिरंगियों वाली हो जाती है। और जनसेवक के पद पर बैठे ये अफसर भी लोगों पर राज करने की मानसिकता में रहते है। मलाईदार पद पाने के लिए  भ्रष्ट अफसर ही बेईमान नेताओं की हां में हां मिलाते है और बेकसूर लोगों पर जुल्म ढहाते है।  पुलिस कमिश्नर बनने के लिए नेताओं के तलुए चाटते है। ऐसे में  बेईमान अफसर अपने आका नेेताओं के ही हुक्म कापालन करेगा। उस कसम को वो अफसर बेच खाता है जो उसने सर्विस में शामिल होते समय ली थी। बेईमान नौकरशाह हो या पुलिस अफसर जो अपने आका नेता की जितनी सेवा करता है उसका फल उसे रिटायरमेंट के बाद भी मिलता है। रिटायरमेंट के बाद भी उसे गर्वनर या किसी अन्य पद से नवाज दिया जाता है। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना है तो अफसरों की नियुक्ति  प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी और काबलियत के आधार पर हीं होनी चाहिए। नौकरशाह और पुलिस अफसरों को रिटायरमेंट के
गर्वनर या अन्य किसी पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए। वरना बेईमान नेता और अफसर इसी तरह बेकसूर लोगों पर जुल्म करते रहेंर्गें। लेकिन ये सव होगा कैसे ये सबसे बडा सवाल है इस समय तो सुप्रीम कोर्ट से ही उम्मीद की थोडी बहुत किरण नजर आती है। रामलीला मैदान में बेकसूर औरतों तक पर जुल्म ढहाने के लिए
पुलिस कमिश्नर और गृह सचिव के खिलाफ ऐसी कडी कार्रवाई की जाए ताकि फिर कोई अफसर इस तरह की कार्रवाई करने की सोचे भी नही। बेईमान अफसरों के खिलाफ जब तक कडी कार्रवाई नहीं होगी वे सरकार के लठैत बने रहेंगें। रामलीला मैदान जैसी पुलिसिया कार्रवाई दोबारा कोई सरकार भी करने  की सोचे भी नही लिए इसके लिए जरुरी है कि कम से कम गृह मंत्री के खिलाफ भी सुप्रीम कोर्ट  कडी कार्रवाई करें।
कांग्रेस सरकार के अनेक चेहरे ; हरियाणा में कुछ दिन पहले हत्या के  आरोपी पूर्व एमएलए ने अपने हथियारबंद साथियों के दम पर पुलिस और कानून का कई दिनों तक खुल कर मखौल उडाया और पुलिस मूक दर्शक बनी रही। बाद में जुलूस के साथ जाकर उसने अपनी मर्जी से समर्पण किया। राजस्थान में आरक्षण की मांग को लेकर गुजरों ने कई दिन तक रेल पटरी और सडकों पर रास्ता रोके रखा। जिसकी वजह से आम लोगों को परेशानी का सामना करना पडा।
मुंबई में राजठाकरे ने कई दिनों तक गुंडागर्दी कर कानून का मजाक उडाया।
इन तीनों  राज्यों में कांग्रेस की ही सरकारें हैं इन सभी जगहों पर सरकार ने धारा 144 के तहत कार्रवाई नहीं की। वहां पर कानून व्यवस्था कायम रखने के लिए पुलिस एक्शन क्यों नहीं लाजिमी हुआ। रामलीला मैदान की अमानवीय कार्रवाई के बारे में तो मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि कानून व्यवस्था कायम रहनी चाहिए इसलिए ये एक्शन लाजिमी था।

आम आदमी के नही सत्ता के साथ पत्रकार

इंद्र वशिष्ठ
कांग्रेस मुख्यालय में  जनार्दन द्विवेदी को जूता दिखाने के मामले मंे पुलिस; नेता और पत्रकारों की असलियत एक बार फिर उजागर हो गई। इस मामले से ही आसानी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि आज लोकतंत्र की हालत खराब क्यों है? इस मामले में किस ने क्या भूमिका निभाई और क्या निभानी चाहिए थी? पुलिस ,नेता और पत्रकारों की भूमिका पर सवालिया निशान लग गया है।
पत्रकारों की भूमिका;राजस्थान के सुनील कुमार ने पहले द्विवेदी से कोई सवाल पूछा। उसके बाद वह द्विवेदी के पास गया और जूता निकाल कर उनको दिखाने लगा। द्विवेदी इस पर कोई प्रतिक्रिया व्यकत करते इसके पहले ही एक पत्रकार आगे बढा उसने सुनील को पकडा और उसकी पिटाई करने लगा यह देख कर कुछ और पत्रकार भी सुनील को पीटने लगे। न्यूज चैनलों में यह दिखाया गया कि सुनील को पीटने वालों में कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह भी शामिल थे। किसी को भी किसी की पिटाई करने का कोई हक नही और साथ ही यह अपराध भी है। ऐसे में कुछ पत्रकारों द्वारा की गई यह हरकत शर्मनाक तो है ही अपराध भी है। ऐसे करने वाले पत्रकार कहलाने के हकदार नही है। ये पत्रकार के रुप में नेताओं के चमचे है और अपने आका नेता को खुश करने की लिए इन कथित पत्रकारों ने वो हरकत की जो नेता के चेले करते है। पत्रकार होते तो सुनील कुमार से बात कर ये पता लगाने की कोशिश करते कि उसने जूता दिखा कर विरोध प्रकट करने जैसा कदम क्यों और किन हालात में उठाया। बाकी सुनील की हरकत पर कार्रवाई करने का फैसला उस नेता और पुलिस पर छोड देते। लेकिन पत्रकारों ने तो खुद ही कानून अपने हाथों में ले लिया। ऐसा सिर्फ वे कथित पत्रकार करते है जो अपने स्वार्थपूर्ति के लिए नेताओं के तलुए चाटते है। द्विवेदी जो कि वरिष्ठ नेता है ने भी सुनील को पीटने वालों को रोका नही। दूसरी और दिग्विजय तो पिटाई करने वालों में शामिल दिखाए गए।
पुलिस की भूमिका; पुलिस का कहना है कि पुलिस नियंत्रण कक्ष को  मिली सूचना के आधार पर सुनील को सीआरपीसी की धारा 107/151 के तहत गिरफतार किया गया। धारा 151 के अनुसार पुलिस संज्ञेय अपराध को होने से रोकने के लिए एहतियातन गिरफतार कर सकती है। शांति भंग करने पर धारा 107 लगाई जाती है। लेकिन सवाल यह है कि सुनील ने कोई संज्ञेय अपराध तो किया नहीं था। ऐसे मामलों  को सामान्यत  पुलिस अंसज्ञेय अपराध की श्रेणी में दर्ज करके उसकी रिपोर्ट  मजिस्टे्ट के सामने पेश करती। मजिस्ट्ेट उस पर कार्रवाई करता है। असंज्ञेय अपराध के मामले में पुलिस अपने आप गिरफतार नहीं करती। लेकिन इस मामले में पुलिस ने अपने आका नेताओं को खुश करने के लिए बिना नेता से शिकायत लिए अपने आप ही धारा 107/151 के तहत कार्रवाई का तरीका अपनाया  ताकि  सुनील को गिरफतार कर जेल भेजा जा सके। एक और तो पुलिस आम आदमी की रिपोर्ट तक आसानी से दर्ज नहीें करती दूसरी और मामला सत्ताधारी  नेता का हो तो 100 नंबर पर मिली सूचना के आधार पर ही कार्रवाई कर देती है। पुलिस अगर स्वतंत्र,निष्पक्ष और ईमानदार होती तो कानून का पालन करती और उन कथित पत्रकारों और नेताओं को भी गिरफतार करती जिन्होंने ने सुनील को पीटने का अपराध किया। न्यूज चैनलों पर देश और पूरी दुनिया ने उनको सुनील की पिटाई करते देखा। पिटाई करने वालों के खिलाफ कार्रवाई के लिए इससे बडा और स्पष्ट सबूत और क्या हो सकता है। लेकिन पुलिस ने उसे अनदेखा कर  सिर्फ सुनील के खिलाफ एकतरफा कार्रवाई  कर दी। पुलिस को द्विवेदी से शिकायत लेकर आईपीसी की असंज्ञेय अपराध की धारा के तहत मामला दर्ज करना चाहिए था। तब कोर्ट उस मामले में कार्रवाई करता। कोर्ट में शिकायतकर्ता द्विवेदी को भी जाना पडता। सत्ताधारियों के मन मुताबिक  पुलिस कार्रवाई करती है। इसलिए कोई भी दल सत्ता में हो वह पुलिस को स्वतंत्र नहीं रखना चाहता है।
नेताओं कीभूमिका; कांग्रेस ने बिना जांच पडताल तुरन्त सुनील को आरएसएस का आदमी बता दिया। पत्रकार जरनैल सिंह ने गृह मंत्री पर जूता फेंका था।  सिख दंगों के आरोपियों को टिकट देने के विरोध में उसने जूता फेंका था। उस समय सिखों की वोट की खातिर कांग्रेस ने किसी संगठन पर कोई आरोप नहीं लगाया बल्कि दो नेताओं के टिकट काट दिए। भारत में नेताओं पर जूते फेंकने का सिलसिला तब से जारी है ।  किसी संगठन पर आरोप लगा देने या नेताओं द्वारा सिर्फ ऐसी घटना की निन्दा कर देने से समस्या समाप्त नहीं होने वाली।सभी दलों के नेताओं को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। संसद और विधान सभाओं में  जूतम पैजार; मारपीट और तोडफोड तक की  हरकतें करने वाले नेताओं द्वारा इस तरह के मामलों कि निन्दा करना हास्यास्पद और दिखावा है। भ्रष्ट नेताओं के कारण  लोगों के मन में उनके लिए गुस्सा भर गया है। इस लिए सुनील जैसा आम आदमी ही नही पत्रकार भी अपना गुस्सा प्रकट करने के लिए जूते का सहारा ले रहा है।  इसके लिए नेता जिम्मेदार है।  नेताओं को  इन घटनाओं से सबक लेकर अपना आचरण;व्यवहार और चरित्र सुधार लेना चाहिए। कयोंकि जैसा राजा वैसी प्रजा होती है । नेता ईमानदार होंगे तभी लोग उनकी इज्जत करेंगे।