Saturday 22 February 2014

कांग्रेस MLA जय किशन ने विधवा को ठगा।

      (सांध्य टाइम्स,  टाइम्स आफ इंडिया ग्रुप 3-8-1996)

Friday 21 February 2014

कांग्रेस की शीला दीक्षित सरकार ने 1984 दंगों के हत्यारे को रिहा करने की सिफ़ारिश की।



कांग्रेस का असली चेहरा ,1984 के दंगों के हत्यारे को रिहा करने की सिफारिश की थी कांग्रेस ने

इंद्र वशिष्ठ,

राजीव गांधी के हत्यारों को तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता द्वारा रिहा करने के फै सले की कांग्रेस द्वारा आलोचना करना उसके दोगलेपन की पोल खोलने वाला है क्योंकि दिल्ली में कांग्रेस की शीला सरकार  खुद 1984 के दंगों में हत्या केमामले में उम्रकैद काट रहे एक अपराधी को रिहा करने की सिफारिश कर चुकी है। लेकिन दिल्ली में सिख विरोधी दंगों के मामले में उम्र-कैद की सजा काट रहे इस अपराधी की समय-पूर्व रिहाई को दिल्ली के उपराज्यपाल ने मंजूरी नहीं दी। दिल्ली सरकार ने समय-पूर्व रिहाई की सिफारिश की थी।
पंजाब की सांसद हरसिमरत कौर बादल द्वारा वर्ष 2012 में इस बारे में पूछे गए एक सवाल के जवाब में लोकसभा में यह जानकारी दी गई।
गृह राज्यमंत्री मुल्लापल्ली रामचंद्रन ने बताया कि 1984 के दंगों में कल्याण पुरी में हुई हत्या के मामले में दोषी  किशोरी उम्र 59 साल आजीवन कारावास में से 15 साल 4 महीने की कठोर कारावास की वास्तविक सजा पहले ही काट चुका है। इस आधार पर दिल्ली सरकार द्वारा गठित किए गए सेंटेंस रिव्यू बोर्ड ने 29-12-2011 को हुई एक बैठक में सीआरपीसी की धारा 432 के अंतर्गत  किशोरी की समय-पूर्व रिहाई की सिफारिश की  थी । किशोरी की  समय-पूर्व रिहाई की एसआरबी द्वारा सिफारिश करते समय पुलिस और मुख्य प्रोबेशन अफसर की अनुकूल रिपोर्टो पर विचार किया गया था। तथाति इस मामले पर सक्षम प्राधिकारी अर्थात दिल्ली के उप-राज्यपाल द्वारा सहमति प्रदान नहीं की गई ।

Monday 17 February 2014

पंडित नेहरु के दादा थे दिल्ली के आखिरी कोतवाल

गंगाधर


पंडित नेहरु के दादा थे दिल्ली के आखिरी कोतवाल,  पुलिस का इतिहास,  दिल्ली के कोतवाल

इंद्र वशिष्ठ, 
दिल्ली में पुलिस व्यवस्था की शुरूआत करीब आठ सौ साल पुरानी मानी जाती है। तब दिल्ली की सुरक्षा और कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी शहर कोतवाल पर हुआ करती थी। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के दादा गंगाधर दिल्ली के आखिरी कोतवाल थे। उस समय के शहर कोतवाल से आज देश की सबसे ज्यादा साधन सम्पन्न  दिल्ली पुलिस ने लंबी दूरी तय की है। 

दिल्ली का पहला कोतवाल मलिक उल उमरा फखरूद्दीन थे।वह सन् 1237 ईसवी में 40 की उम्र में कोतवाल बने। कोतवाल के साथ उन्हें नायब ए गिब्त(रीजेंट की गैरहाजिरी में )भी नियुक्त किया गया था। अपनी ईमानदारी के कारण ही वह तीन सुलतानों के राज-काल में लंबे अर्से तक इस पद पर रहे।
आज भले ही दिल्ली पुलिस की छवि दागदार है,पहले के कोतवालों की ईमानदारी के अनेक किस्से इतिहास में दर्ज है। एक बार तुर्की के कुछ अमीर उमराओं की संपत्ति सुलतान बलवन के आदेश से जब्त कर ली गई। इन लोगों ने सुलतान के आदेश को फेरने के लिए कोतवाल फखरूद्दीन को रिश्वत की पेशकश की। कोतवाल ने कहा ‘यदि मैं रिश्वत ले लूंगा तो मेरी बात का कोई वजन नहीं रह जाएगा࠿’। कोतवाल का पुलिस मुख्यालय उन दिनों किला राय पिथौरा यानी आज की महरौली में था। इतिहास में इसके बाद कोतवाल मलिक अलाउल मल्क का नाम दर्ज है। जिसे सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने 1297 में कोतवाल तैनात किया था। सुलतान खिलजी ने एक बार मलिक के बारे में कहा था कि इनको कोतवाल नियुक्त कर रहा हूं जबकि यह है वजीर (प्रधानमंत्री ) पद के योज्य है। इतिहास में जिक्र है कि  एक बार जंग को जाते समय सुलतान खिलजी कोतवाल मलिक को शहर की चाबी सौंप गए थे। सुलतान ने कोतवाल से कहा था कि जंग में जीतने वाले विजेता को वह यह चाबी सौंप दें और इसी तरह वफादारी से उसके साथ भी काम करें।
मुगल बादशाह शाहजहां ने 1648 में दिल्ली में शाहजहांनाबाद बसाने के साथ ही गजनफर खान नाम के व्यक्ति को नए शहर का कोतवाल बनाया था। गजनफर खान को बाद में कोतवाल के साथ ही  मीर-ए-आतिश (चीफ ऑफ आर्टिलरी भी बना दिया गया।

1857 की क्रांति के बाद फिंरगियों ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया और उसी के साथ दिल्ली में कोतवाल व्यवस्था भी खत्म हो गई। उस समय पंडित जवाहर लाल नेहरू के दादा और पंडित मोती लाल नेहरू के पिता पंडित गंगाधर नेहरू दिल्ली के कोतवाल थे।
आइने अकबरी के अनुसार जब शाही दरबार लगा होता था तब कोतवाल को भी दरबार में मौजूद रहना पड़ता था। वह रोजाना शहर की गतिविधियों की सूचनाएं चौकीदारों और अपने मुखबिरों के जरिए प्राप्त करता था।
1857 में अंग्रेजों ने पुलिस को संगठित रूप दिया।  उस समय दिल्ली पंजाब का हिस्सा हुआ करती थी। 1912 में राजधानी बनने के बाद तक भी दिल्ली में पुलिस व्यवस्था पंजाब पुलिस की देखरेख में चलती रही। उसी समय पहला मुख्य आयुक्त नियुक्त किया गया था। जिसे पुलिस महानिरीक्षक यानी आईजी के अधिकार  दिए गए थे उसका मुख्यालय अंबाला में था। 1912 के गजट के अनुसार उस समय दिल्ली की पुलिस का नियत्रंण एक डीआईजी रैंक के अधिकारी के हाथ में होता था। दिल्ली में पुलिस की कमान एक सुपरिटेंडेंट(एसपी)और डिप्टीएसपी के हाथों में थी। उस समय दिल्ली शहर की सुरक्षा के लिए दो इंस्पेक्टर,27सब-इंस्पेक्टर,110 हवलदार,985 पैदल सिपाही और 28 घुडसवार थे। देहात के इलाके के लिए दो इंस्पेक्टर थे। उनका मुख्यालय सोनीपत और बल्लभगढ़ में था। उस समय तीन तहसील-सोनीपत,दिल्ली और बल्लभगढ़ के अंतर्गत 10 थाने आते थे। दिल्ली शहर में सिर्फ तीन थाने कोतवाली,सब्जी मंडी और पहाड़ गंज थे। सिविल लाइन में पुलिस बैरक थी। दिल्ली पुलिस का 1946 में पुनर्गठन किया और पुलिसवालों की संख्या दोगुनी कर दी गई। 1948 में दिल्ली में पहला पुलिस महानिरीक्षक डी डब्लू मेहरा को नियुक्त किया गया। उनकी नियुक्ति 16 फरवरी को की गई थी इसलिए 16 फरवरी को दिल्ली पुलिस का स्थापना दिवस मनाया जाता है। 1जुलाई 1978 तक दिल्ली में आईजी प्रणाली के अंतर्गत पुलिस व्यवस्था चलती रही। इसके बाद पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू कर दी गई। आज दिल्ली पुलिस दुनिया के महानगरों के सबसे बड़े पुलिस बलों में एक है। इस समय दिल्ली पुलिस बल की संख्या लगभग 80000 है और थानों की संख्या 184 है।

(Press Club of India की पत्रिका The Scribes World)




Wednesday 5 February 2014

दिल्ली पुलिस का नारा नया पर अंदाज पुराना

दिल्ली पुलिस का नारा नया पर अंदाज पुराना
 इंद्र वशिष्ठ,
पहले आपके लिए, आपके साथ, सदैव और फिर सिटीजन फर्स्ट   का दावा करने वाली दिल्ली पुलिस ने अब अपना नया नारा शांति, सेवा और न्याय बनाया है लेकिन ऐसा लगता है कि पुलिस के ये दावे नारो तक ही सीमित है। हकीकत में पुलिस के व्यवहार में कोई बदलाव नहीं आया है। पुलिस सेवा आम आदमी की नहीं नेताओं की कर रही है इसलिए आम आदमी को न्याय और शांति नहीं मिल  रही है।  नेता चाहे आम आदमी पार्टी का हो या भाजपा और कांग्रेस क ा पुलिस की कोशिश उनको बचाने की ही रहती है। ताजा उदाहरण दिल्ली सरकार के मंत्री सोमनाथ भारती द्वारा विदेशी महिलाओं से  बदसलूकी  का है। भारती ने आरोप लगाया कि अपराधिक गतिविधियों में शामिल महिलाओं के खिलाफ पुलिस ने उनके कहने के बावजूद कार्रवाई नहीं की। कार्रवाई न करने वाले एसीपी और एसएचओ को सस्पेंड करने की मांग को  लेकर मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने धरना भी दिया था।
पुलिस की भूमिका-इस मामले में पुलिस की कार्रवाई से ही पुलिस की भूमिका पर सवालिया निशान लग जाता है। पुलिस ने महिला की शिकायत पर बाद में भारती आदि के खिलाफ केस दर्ज कर लिया । इससे यह सवाल उठता है कि बाद में भारती के खिलाफ केस दर्ज करने वाली पुलिस ने उसी समय भारती आदि को गिरफ्तार क्यों नहीं किया जब वह पुलिस के सामने ही महिलाओं से दुव्र्यवहार कर रहे थे। अगर भारती आदि अपराध कर रहे थे तो पुलिस ने तभी उनके खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की। ऐसे में तो यही लगता है कि भारती आदि के खिलाफ पहले कार्रवाई न करना और बाद में कार्रवाई कहीं राजनीति से प्रेरित तो नहीं है? पुलिस की बात को ही अगर सही माने तो पुलिस ने अपने सामने ही महिलाओं की बेइज्जती क्यों होने दी? अगर पुलिस की बात सही है तो एसीपी समेत उन अफसरों के  खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए जिनके सामने भारती आदि ने महिलाओ से बदसलूकी की। पुलिस महिलाओं की सुरक्षा करने का दावा करती है लेकिन पुलिस अफसरों की मौजूदगी में विदेशी महिलाओं से बदसलूकी ने पुलिस के इस दावे की पोल खोल दी है।
दूसरा उदाहरण इस मामले में अरविंद केजरीवाल और उनके मंत्रियों द्वारा धारा 144  का उल्लंघन कर धरना देने का  है केजरीवाल और उनके मंत्रियों द्वारा कानून का उल्लघन करना जगजाहिर था इसके बावजूद पुलिस ने इस सिलसिले में अज्ञात लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया।
 नेताओं के लिए मीडिया की सुविधा- आम शिकायतकत्र्ता  मुख्यालय में पुलिस के खिलाफ शिकायत करने के बाद वहां मौजृद मीडिया के सामने जब अपना मामला उठाना चाहता है तो पुलिस उसे ऐसा करने से रोक देती है। आम शिकायतकत्र्ता से पुलिस कहती है कि वह अपनी समस्या पर मीडिया से मुख्यालस के गेट के बाहर बात कर सकते है मुख्यालय परिसर में नहीं। जबकि पिछले दिनों पुलिस कमिश्नर से  मिलने के बाद विजय गोयल ने पुलिस मुख्यालय के लॉन में मीडिया को संबोधित किया। पुलिस मुख्यालय  का इस्तेमाल राजनीतिक बयानबाजी के लिए किया गया। इन मामलों से पुलिस के दोहरे चरित्र का पता चलता है।