Friday 31 May 2019

कमिश्नर ने किया पुलिस का बंटाधार, जुगाड़ू IPS और SHO का बोलबाला, गृहमंत्री के दख़ल की दरकार


कमिश्नर अमूल्य पटनायक ने किया पुलिस का बंटाधार,
जुगाड़ू IPSऔर SHO का बोलबाला। 
जो IPS ईमानदार हो, तो ईमानदार नज़र आना ज़रूरी है।

इंद्र वशिष्ठ

दिल्ली में अपराध और पुलिस में भ्रष्टाचार दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। लोग अपराधियों से ही नहीं पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार से भी त्रस्त है। पुलिस वाले रिश्वतखोरी ही नहीं लूट,अपहरण और वसूली तक में शामिल पाए जाते हैं। भ्रष्टाचार और अपराध एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। इन दोनों पर अंकुश न लग पाने के लिए प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से आईपीएस अफसर भी जिम्मेदार हैं। पुलिस में महत्वपूर्ण पदों पर तैनाती में मंत्रियों/नेताओं का नाजायज दख़ल तो जिम्मेदार हैं ही आईपीएस अफसर भी इसके लिए कम जिम्मेदार नहीं हैं।
पुलिस में  महत्वपूर्ण पदों पर ईमानदारी, वरिष्ठता, योग्यता को दरकिनार कर ज्यादातर चहेते/ जुगाड़ू अफसर ही महत्वपूर्ण पदों पर तैनात किए जाते हैं। मंत्री या कमिश्नर का कृपा पात्र होना ही महत्वपूर्ण पद पाने की एकमात्र पात्रता मानी जाती है। यह सिलसिला कमिश्नर से शुरू हो कर स्पेशल कमिश्नर, संयुक्त पुलिस आयुक्त, डीसीपी,एसीपी, एसएचओ से लेकर बीट कांस्टेबल की तैनाती तक जाता है। 
ईमानदारी/ वरिष्ठता/ योग्यता / पारदर्शिता को दरकिनार करने से ही पुलिस की छवि दिनों-दिन ख़राब हो रही हैं। 

पुलिस कमिश्नर के बाद दूसरे सबसे महत्वपूर्ण पद पर तैनात स्पेशल पुलिस कमिश्नर राजेश मलिक के खिलाफ तो जबरन वसूली की कोशिश के आरोप में एफआईआर तक दर्ज हो चुकी हैं।

पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार को जड़ से खत्म करने का सिर्फ एक मात्र रास्ता है कि महत्वपूर्ण पदों पर तैनाती का पैमाना सिर्फ ईमानदारी ही होनी चाहिए। किसी भी अफसर के ईमानदार होने का पता सिर्फ इस बात से चलता है कि वह अपने कर्तव्य का पालन ईमानदारी से करता है या नहीं। आईपीएस समेत जो भी पुलिस अफसर अपराध के मामलों को ही सही दर्ज तक नहीं करते वह ईमानदार हो ही नहीं सकते। अपराध को दर्ज न करके अपराधियों की मदद करने वाले मूल रूप से बेईमान अफसरों के कारण पुलिस में भ्रष्टाचार क़ायम  है। ऐसे अफसरों के कारण ही अपराध और अपराधियो  पर अंकुश नहीं लग पाता है। 


जागो आईपीएस जागो ,जो ईमानदार हो तो ईमानदार नज़र आना ज़रूरी है----

दिल्ली पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार  के लिए  आईपीएस अफसर भी जिम्मेदार हैं। खुद को ईमानदार कहने/दिखाने वाले वरिष्ठ आईपीएस अफसर भी चहेते/ जुगाड़ू  अफसरों की महत्वपूर्ण पदों पर तैनाती में अहम भूमिका निभाते हैं। 
अनेक अति वरिष्ठ आईपीएस अफसर तर्क देते हैं कि "ईमानदार लेकिन अक्षम/अयोग्य" की बजाए
"बेईमान लेकिन सक्षम /योग्य "  को महत्वपूर्ण पदों पर तैनात करना बेहतर रहता है। बेतुका तर्क देकर एक तरह से भ्रष्टाचार को जायज़ ठहराने वाले ऐसे कथित ईमानदार अफसरों की  मानसिकता पर ही सवालिया निशान लग जाता है। ऐसे अफसरों के कारण ही जुगाड़ू/ चहेते मातहत अफसर बेख़ौफ़ होकर भ्रष्टाचार में लिप्त रहते हैं।
 अपराध और अपराधियों पर अंकुश लगाने में ऐसे अफसरों की रुचि नहीं होती हैं। जुगाड़ू अफसर ही अपराध कम दिखाने के लिए अपराध के मामलों को सही/पूरे दर्ज तक नहीं करते हैं।

 पश्चिमी जिला पुलिस उपायुक्त मोनिका भारद्वाज द्वारा 88 वारदात को एक ही एफआईआर में दर्ज करने से यह बात एक बार फिर सही साबित हुई हैं कि आईपीएस अफसर अपराध को सही दर्ज न करके ही अपराध कम होने का दावा करते हैं। 

   सिफारिश या कृपा से पद पाने वाले जुगाड़ू अफसर  सिर्फ अपने आका मंत्रियों/ आईपीएस अफसरों को "खुश" करने और उनकी "सेवा" में ही सक्षम होते हैं। ऐसे अफसरों के कारण ही अपराध और भ्रष्टाचार दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है। 
अगर कथित ईमानदार अफसरों की " बेईमान/ जुगाड़ू लेकिन सक्षम" को तैनात करने की सोच /नीति सही हैं तो फिर पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार में दिनों-दिन वृद्धि क्यों हो रही हैं? अपराध और अपराधियों पर भी लगाम क्यों नहीं लग पा रही हैं?

आईपीएस और अन्य पुलिस अफसरों की काबिलियत पर सवालिया निशान-
 इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि दिल्ली पुलिस हर साल अपराध के 60 से 75 फीसदी तक मामलों को सुलझा ही नहीं पा रही हैं। यानी पुलिस अपराध में शामिल लाखों अपराधियों का पता तक भी नहीं लगा पा रही हैं। इनमें हत्या, लूट/झपटमारी ,अपहरण,
महिलाओं की इज्जत से खिलवाड़/छेड़छाड़ और चोरी आदि करने वाले अपराधी शामिल हैं। यह खतरनाक/गंभीर स्थिति है कि लाखों अपराधी खुले घूम रहे हैं। इस लिए लोगों की जान माल पर हमेशा खतरा बना हुआ है। यही वजह है कि अपराध दिनों-दिन बढ़ रहे  हैं। ज्यादातर अपराधी पकड़े ही नहीं जा रहे तो अपराध भला कम कैसे होगा । 

पिछले तीन साल में अपराध के साढ़े 6 लाख से ज्यादा मामले दर्ज किए गए हैं। लेकिन अपराध के लाखों मामलों को सुलझाने में पुलिस नाकाम रही हैं।
 आंकड़ों से  पता चलता है कि पुलिस की अपराध सुलझाने और अपराधियों को पकड़ने की दर बहुत ही कम है। इससे पुलिस की तफ्तीश की काबिलियत और कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े हो जाते हैं। 

सीधी और साफ़ सी बात है कि पुलिस के काम में गड़बड़ी करके या अपने कर्तव्य का पालन ईमानदारी से ना करके ही तो ही तो भ्रष्टाचार किया जाता है। मतलब साफ है कि पुलिस की वर्दी/ पद का दुरुपयोग करने से ही भ्रष्टाचार किया जाता है। ऐसे में जानबूझकर जुगाड़ू/चहेते  को महत्वपूर्ण पद पर तैनात करने का मतलब उसकी मनोकामना पूर्ण करना हुआ। 

एक कहावत है कि चोर को नहीं उसकी मां को मारना चाहिए  क्योंकि वह अगर अपने कर्तव्य का पालन ईमानदारी से करती तो चोर न बनता। लेकिन पुलिस में  तो बड़ी अजीब बात है कि आईपीएस अफसर जानबूझकर जुगाड़ू मातहत को ना सिर्फ महत्वपूर्ण पद पर तैनात करते हैं बल्कि बड़ी बेशर्मी से  जायज़ भी ठहराते है। तो ऐसे अफसर तो चोर की मां से ज्यादा बड़े गुनहगार है। 

आईपीएस अफसर क्या/शायद यह नहीं जानते कि ईमानदार होना ही अपने आप में सर्वोत्तम गुण/ योग्यता है। जो व्यक्ति मूल रूप से बेईमान हैं वह भला सक्षम/ योग्य कैसे हो सकता है? 

"बोया पेड़ बबूल का तो  आम कहां से होय"-- यानी आप जान बूझ कर जुगाड़ू को तैनात करोगे तो फिर वह भ्रष्टाचार रुपी फल ही तो देगा। इन अफसरों को यह बात शायद समझ नहीं आती  कि ऐसा  करके एक तरह से वह खुद ही उसे भ्रष्टाचार करने का मौका देते है।
 दूसरी ओर जुगाड़ू  अफसर इस तरह अपने बेईमान आका के साथ साथ  ईमानदार आईपीएस अफसरों के भी कृपा पात्र बन कर सदा महत्वपूर्ण पद पाते रहते हैं। 

दिल्ली पुलिस में ऐसे अफ़सर/इंस्पेक्टर आदि भी हैं जिन्हें कभी भी महत्वपूर्ण पद पर तैनात नहीं किया गया है।

अंतर्यामी आईपीएस---
पुलिस कमिश्नर या अन्य आईपीएस अफसरों के पास शायद कोई दिव्य दृष्टि है या वे इतने अंतर्यामी है कि किसी अफसर को महत्वपूर्ण पद पर लगाए बिना ही वह जान जाते हैं कि वह अफसर उस महत्वपूर्ण पद के योग्य नहीं हैं।

सच्चाई यह है कि किसी की भी काबिलियत/ योग्यता का पता सिर्फ तभी चल सकता हैं।जब अफसर को महत्वपूर्ण पद पर तैनात किया जाएगा।
बिना जिम्मेदारी दिए अफसर को अयोग्य मानने का कारनामा दिल्ली पुलिस के अंतर्यामी आईपीएस ही कर सकते हैं। 

 दूसरी ओर एक सच्चाई यह भी है कि पुलिस में ऐसे ईमानदार सिपाही ,इंस्पेक्टर, एसीपी आदि  भी हैं जो पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार के कारण  थाने, ट्रैफिक आदि में लगना भी नहीं चाहते हैं।

 पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार का खामियाजा लोगों को भुगतना पड़ता है।

 सिर्फ रिश्वतखोरी/ पैसा वसूलना/फटीक कराना ही बेईमानी नहीं होती। अपराध को दर्ज न करना ,  कर्तव्य का पालन ईमानदारी से न करना , आईपीएस अफसरों द्वारा सरकारी संसाधनों, गाड़ी , मातहतों का इस्तेमाल जमकर निजी कार्यों के लिए करना, मातहतों को उनका वाजिब हक़ (महत्वपूर्ण पद) आदि ना देना भी बेईमानी ही होती है। 

पुलिस मुख्यालय में तैनात एक वरिष्ठ अफसर का कहना है कि ऐसे वरिष्ठ आईपीएस अफसर असल में अपनी अयोग्यता को छिपाने के लिए जुगाड़ू  मातहत अफसरों को महत्वपूर्ण पदों पर लगाते हैं।  


कमिश्नर आते जाते हैं एसएचओ जमे रहते हैं---

पुलिस कमिश्नर बदलते रहते हैं लेकिन ऐसे बहुत सारे इंस्पेक्टर है जो नेताओं और आईपीएस अफसरों के संरक्षण के कारण हमेशा एसएचओ के पद पर ही रहते। ऐसे ही इंस्पेक्टर एसीपी बनने के बाद भी महत्वपूर्ण पद पाते हैं।

इसी तरह ऐसे आईपीएस भी हैं जो मंत्रियों/उपराज्यपाल या कमिश्नर की कृपा से लगातार जिले, रेंज, ट्रैफिक, अपराध शाखा, लाइसेंसिंग या अन्य महत्वपूर्ण पद पाते रहते हैं।


आईपीएस मधुर वर्मा, मनदीप सिंह रंधावा, नुपुर प्रसाद, विजय कुमार को लगातार एक जिले के बाद दूसरे जिले में उपायुक्त पद पर तैनात कर दिया गया। मनदीप सिंह रंधावा साल 2016 से जिला पुलिस उपायुक्त के पद पर जमे हुए हैं। मध्य जिला पुलिस उपायुक्त पद पर ही रंधावा को करीब ढाई साल हो गए हैं इसके पहले वह दक्षिण पूर्व जिला पुलिस उपायुक्त के पद पर तैनात रहे। दक्षिण जिला पुलिस उपायुक्त विजय कुमार भी साल 2016 से ही जिला पुलिस उपायुक्त के पद पर हैं। विजय कुमार पहले पश्चिम जिला पुलिस उपायुक्त के पद पर तैनात रहे हैं। चिन्मय बिस्वाल भी  2017 से  दक्षिण पूर्वी जिला पुलिस उपायुक्त के पद पर  हैं।
 नई दिल्ली जिला पुलिस उपायुक्त मधुर वर्मा पहले उत्तरी जिला पुलिस उपायुक्त के पद पर रह चुके हैं। उत्तर जिला पुलिस उपायुक्त नुपुर प्रसाद भी पहले शाहदरा जिला पुलिस उपायुक्त के पद पर तैनात थी। नुपुर प्रसाद भी ढाई साल से  ज्यादा समय से जिला पुलिस उपायुक्त के पद पर ही हैं।

पुलिस कमिश्नर ने आज़ तक यह नहीं  बताया कि मधुर वर्मा को उत्तरी जिला पुलिस उपायुक्त के पद से हटाया क्यों गया था अगर हटाने का फैसला सही था तो फिर नई दिल्ली जिला पुलिस उपायुक्त के पद पर लगाया क्यों गया? 
मधुर वर्मा को पुलिस प्रवक्ता का पद भी दिया गया है। प्रवक्ता के तौर पर मधुर वर्मा ने दिल्ली पुलिस का अशुद्ध हिंदी वाला विज्ञापन ही जारी कर दिया था। इस साल मार्च में ट्रैफिक पुलिस के इंस्पेक्टर कर्मवीर मलिक की पिटाई करने के कारण भी मधुर वर्मा सुर्खियों में रहे। इंस्पेक्टर ने पुलिस कमिश्नर और उप राज्यपाल को शिकायत दी थी। लेकिन मधुर वर्मा के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की गई। । ऐसा आईपीएस कमिश्नर का चहेता हैं।

 दूसरी ओर एक साल में ही उत्तर पश्चिम जिला की महिला डीसीपी असलम खान को और एक साल से भी पहले ही उसके पति पंकज कुमार सिंह को भी पूर्वी जिला पुलिस उपायुक्त के पदों से हटा कर गोवा तबादला कर दिया गया। इससे साफ़ पता चलता है कि तैनाती का पैमाना नियम कायदे की बजाए सिर्फ मंत्री/ कमिश्नर की पसंद/ कृपा है।

 अगर ऐसा नहीं है तो क्या गृहमंत्री/ पुलिस कमिश्नर बता सकते हैं कि जिन्हें सालों से लगातार एक के बाद दूसरे जिले में जिला पुलिस उपायुक्त के पद पर तैनात किया गया है उसका पैमाना/आधार क्या है। उनमें ऐसी क्या विशेषता/ योग्यता है और जिन्हें हटाया गया उनका कसूर/अवगुण क्या था।  
वरिष्ठ आईपीएस अफसरों में चर्चा है कि असलम खान और पंकज सिंह को कमिश्नर की कृपा प्राप्त न होने का खामियाजा  भुगतना पड़ा।

इस तरह कृपा प्राप्त महत्वपूर्ण पद पाते हैं।दूसरी ओर बिना जुगाड वाले अफसर को अक्षम/ अयोग्य मान कर महत्वपूर्ण पद से वंचित कर दिया जाता हैं।

ईमानदार बना दिए गुलदस्ते---

 स्पेशल पुलिस कमिश्नर स्तर के  एक अफसर का कहना है  कि अब तो ईमानदार अफसरों को महत्वपूर्ण पदों पर तैनात करने की बजाए उनका इस्तेमाल सिर्फ गुलदस्ते की तरह किया जाता है। 

आईपीएस अफसर का‌ आचरण/व्यवहार ऐसा हो  जिसकी मिसाल दी जाए। आईपीएस अगर ईमानदारी से कर्तव्य पालन का आदर्श पेश करें तो उसका असर थाना स्तर  तक की पुलिस पर जरुर दिखाई देगा। इससे ही पुलिस में मौजूद भ्रष्टाचार पर अंकुश लग पाएगा। 
 आईपीएस अफसरों को पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार को दूर कर अपनी ईमानदारी और काबिलियत का परिचय देना चाहिए।  भ्रष्टाचार के कारण ही अपराध और अपराधियों पर अंकुश नहीं लग पा रहा है।


जिला पुलिस उपायुक्त के पद पर तैनाती में जबरदस्त असमानता---
दिल्ली पुलिस में जिला पुलिस उपायुक्त के पद पर दानिप्स काडर के अफसरों को तैनात करने में असमानता/ भेद पर संसदीय समिति भी हैरानी जताई थी। 
इसके बावजूद 15 जिलों में से सिर्फ एक जिले में ही दानिप्स काडर से आईपीएस में पदोन्नत हुए अफसर को डीसीपी के पद पर तैनात किया जाना सही नहीं है। 
संसदीय समिति ने पाया कि दनिप्स अफसर के  एसीपी और एडीशनल डीसीपी‌ के पद पर  लंबे समय तक काम करने के कारण उनको काम का अनुभव आईपीएस अफसर से ज्यादा होता है।



अपराध दर्ज हो तो ही अपराध और अपराधियों पर अंकुश लग पाएगा---

अपराध और अपराधियों पर अंकुश लगाने में जुगाड़ू अफसरों की रुचि नहीं होती है ऐसे अफसर ही अपराध कम दिखाने के लिए अपराध के मामलों को सही/पूरे दर्ज तक नहीं करते हैं। ऐसे अफसर सिर्फ आंकड़ों की बाजीगरी से अपराध कम दिखा कर खुद को सफल अफसर दिखाना चाहते हैं। 

पुलिस कमिश्नर चाहें कोई हो या केंद्र में सरकार किसी भी दल की हो ऐसा करके अपराध कम दिखाना सब के अनुकूल होता  हैं।  सिर्फ तत्कालीन पुलिस कमिश्नर वी एन सिंह और भीमसेन बस्सी ने कोशिश की थी कि अपराध सही दर्ज किया जाना चाहिए। भीमसेन बस्सी के कार्य काल में दर्ज अपराध के आंकड़ों से इसका पता भी चलता है।

 साल 2018 में भारतीय दंड संहिता के तहत ढाई लाख से ज्यादा मामले दर्ज हुए हैं। हालांकि यह आंकड़े भी हकीकत से कोसों दूर है। पुलिस अगर ईमानदारी से मामले दर्ज करे तो यह आंकड़ा दस लाख से भी ज्यादा हो सकता है। 


आईपीएस अगर ईमानदारी से अपराध के मामले सही दर्ज कराने लगे तो अपराध और अपराधियों पर अंकुश तो लग ही जाएगा पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार पर भी लगाम लग जाएगी।  क्योंकि जब अपराध सही/ पूरे दर्ज करने और अपराधियों को पकड़ने का दबाव मातहतों पर बनेगा 
तो  जुगाड़ू  को भी मेहनत करनी पड़ेगी। जुगाड़ू को भ्रष्टाचार का मौका और समय कम मिलेगा।

 आईपीएस अगर मातहत से अपने लिए फटीक कराना ही बंद कर दें तो भी पुलिस में भ्रष्टाचार खत्म हो सकता हैं। अभी हालत यह है कि पुलिस का कार्यक्रम हो या आईपीएस का निजी कार्यक्रम  आयोजन की जिम्मेदारी एसएचओ पर डाल दी जाती हैं जाहिर सी बात हैं कि एस एच ओ अपने वेतन में से तो फटीक करेगा नहीं।  फटीक के लिए पैसा थाना स्तर पर उगाही से ही वसूला जाता हैं।
ऐसे में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने के लिए आईपीएस अफसर ही जिम्मेदार हैं।

आईपीएस की फटीक/भ्रष्टाचार का नमूना----

दक्षिण जिला के तत्कालीन डीसीपी रोमिला बानिया ने अपने निजी कुत्तों के लिए दफ्तर की सरकारी जमीन पर कमरे बनाए कूलर लगाए और मातहतों को कुत्तों की सेवा में लगाया। 
पुलिस कमिश्नर ने आज़ तक यह नहीं बताया कि कमरे बनाने में लगा धन सरकारी/ भ्रष्टाचार में से कौन सा है? सरकारी खजाने के दुरुपयोग/ भ्रष्टाचार के लिए रोमिल बानिया के खिलाफ क्या कार्रवाई की गई? निजी शौक़ के लिए दफ्तर की सरकारी जमीन पर निजी कुत्तों के लिए कमरे बनाने और कुत्तों की सेवा की सेवा में मातहतों को इस्तेमाल करने के लिए रोमिल बानिया ने क्या आपसे यानी कमिश्नर से मंजूरी ली थी?


जागो लोगों जागो एफआईआर जरुर दर्ज कराओं----
लोगों को भी जागरुक होना चाहिए लूट,झपटमारी और मोबाइल/ पर्स चोरी के मामले में एफआईआर दर्ज कराने के लिए पुलिस के सामने अड़ना चाहिए। अभी हालत यह है कि पुलिस ऐसे मामलों में लोगों को थाने, कोर्ट के चक्कर काटने और अपराधी को पहचानने के ख़तरे बताने के  नाम पर डरा देती हैं। ऐसा पुलिस सिर्फ इसलिए करतीं हैं ताकि एफआईआर दर्ज ना करनी पड़े। क्योंकि एफआईआर दर्ज की तो अपराध में वृद्धि उजागर होगी और पुलिस पर अपराध सुलझाने का दबाव बनेगा। सच्चाई यह है कि पुलिस अपराध को दर्ज ना करके अपराधियों की ही मदद करने का अपराध करतीं हैं।
इसलिए अपराध होने पर लोगों को एफआईआर जरुर दर्ज करानी चाहिए। दिल्ली को अपराध मुक्त कराने में लोगों को इस तरह भी अपना योगदान देना चाहिए।


दिल्ली का पहला कोतवाल मलिक उल उमरा फखरुद्दीन ईमानदारी की मिसाल।

आज भले ही दिल्ली पुलिस की छवि दागदार है,पहले के कोतवालों की ईमानदारी के अनेक किस्से इतिहास में दर्ज है। एक बार तुर्की के कुछ अमीर उमराओं की संपत्ति सुलतान बलवन के आदेश से जब्त कर ली गई। इन लोगों ने सुलतान के आदेश को फेरने के लिए कोतवाल फखरूद्दीन को रिश्वत की पेशकश की। कोतवाल ने कहा ‘यदि मैं रिश्वत ले लूंगा तो मेरी बात का कोई वजन नहीं रह जाएगा

दिल्ली पुलिस का इतिहास सुनहरा रहा है। एक समय ऐसा था कि कोतवाल की ईमानदारी की मिसाल दी जाती थी। कोतवाल की ईमानदारी के क़िस्से का दिल्ली पुलिस  के इतिहास में प्रमुखता से उल्लेख किया गया है लेकिन आज़ के दौर में ऐसा कोई  नज़र नहीं आता जिसकी तुलना उस समय के कोतवाल से की जा सके। ईमानदार अफसरों को अपने इतिहास से सबक लेकर पुलिस के गौरव को दोबारा बहाल करने की कोशिश करनी चाहिए।


मुंशी प्रेमचंद की कहानी नमक का दारोगा को भी याद रखना चाहिए।


समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याघ्र,
जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनका भी अपराध। 



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Friday 24 May 2019

MLA मस्त, लोग त्रस्त, इंजीनियरों की मिलीभगत से ठेकेदार निरंकुश, LG की फटकार की दरकार

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इंद्र वशिष्ठ
उत्तर पश्चिम दिल्ली के त्री नगर इलाके में सड़कों/ गलियों को बनाने का काम लोगों के लिए मुसीबत का सबब बन गया हैं। दिल्ली सरकार के अफसर/इंजीनियर और विधायक की नींद शायद कोई हादसा होने के बाद ही खुलेगी। 

उप राज्यपाल अनिल बैजल को‌ लोगों की जान जोखिम में डालने वाले ऐसे अफसरों के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए ताकि आगे से कोई अफसर ऐसी लापरवाही न बरतें।
 ऐसे लापरवाह इंजीनियर और ठेकेदार की सांठगांठ/ मिलीभगत से ही काम समय पर पूरा नहीं होते और लोग हादसे का शिकार हो जाते हैं। हादसे के बाद तो खूब हल्ला मचाया जाता है लेकिन ऐसे हादसे हो ही नहीं इसके लिए  ज़रुरी है कि काम की देखरेख करने वाले इंजीनियर की जवाबदेही तय की जाए। 
वैसे जवाबदेही तो हर उस विधायक और पार्षद की भी तय होनी चाहिए जो सरकारी कार्य को कराने का श्रेय ढिंढोरा पीट पीट कर लेते हैं।
दिल्ली सरकार के अफसरों/ इंजीनियरों और 
सड़क बनाने वाले ठेकेदार की लापरवाही के चलते लोगों की जान जोखिम में पड़ गई हैं।

अफसरों और ठेकेदार को शाय़द यह मालूम नहीं कि 
कार्य के दौरान जानबूझ लापरवाही कर लोगों की जान को जोखिम में डालना अपराध की श्रेणी में आता हैं। ऐसा करने वालों के खिलाफ आपराधिक लापरवाही बरतने के आरोप में एफआईआर दर्ज की जा सकती हैं।
एक सड़क जो दो तीन दिन में बन सकती हैं उसे बनाने में 15-20 दिन तक लगाया जा रहा हैं। ऐसा त्री नगर में जगह जगह हो रहा है।
ओंकार नगर में सीजीएचएस डिस्पेंसरी वाली गली को बनाने में ठेकेदार ने 15-20 दिन लगा दिए। ओंकार नगर की गली नंबर 37 को 21 मई को तोड़ दिया गया। लेकिन मलबा अभी तक नहीं हटाया गया। कब मलबा हटाया जाएगा और कब सड़क बनाई जाएगी यह बताने वहां न तो कोई इंजीनियर आता और न ही ठेकेदार। 
विधायक महोदय भी यह मालूम करने नहीं आते कि लोगों को कितनी परेशानी का सामना करना पड़ रहा है।

एक सड़क को तोड़/ खोद तो कुछ ही घंटों में दिया जाता है लेकिन मलबा कई दिनों तक उठाया नहीं जाता।मलबा उठाने के बाद भी कई दिनों तक सड़क को वैसे ही छोड़ दिया जाता हैं। फिर जब ठेकेदार की मर्जी होती हैं तब वह सड़क बनाता है।

 जिसमें लोगों खासकर बच्चों और बुजुर्गो को सबसे ज्यादा परेशानी का सामना करना पड़ता है।  मलबे के कारण आने जाने के दौरान लोग गिर जाने से घायल तक हो जाते हैं।

इलाके की पुलिस को भी एहतियात के तौर पर इस ओर ध्यान देना चाहिए। अगर कहीं पर ठेकेदार जानबूझकर लोगों की सुरक्षा और सुविधा से खिलवाड़ कर रहा हैं  तो पुलिस को भी अफसरों और ठेकेदार के खिलाफ एहतियाती कार्रवाई करनी चाहिए।

दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल के पूर्व डीसीपी एवं वकील लक्ष्मी नारायण राव ने बताया कि किसी भी कार्य का ठेका देते समय उसमें यह शर्त होती है कि ठेकेदार लोगों की सुरक्षा और सुविधा का ख्याल रखेगा।
 ठेकेदार की लापरवाही के कारण अगर कोई हादसा हो जाता हैं किसी को चोट लग जाए या मृत्यु हो जाती हैं तो पुलिस ठेकेदार के खिलाफ आपराधिक मामला दर्ज कर उसे गिरफ्तार कर सकती हैं।
ठेकेदार को कार्य स्थल पर बोर्ड लगा कर लोगों को सावधान करना चाहिए। लोगों को आने जाने के लिए रास्ता देना चाहिए। काम कितने दिन में पूरा होगा यह भी बोर्ड पर लिखना चाहिए।
ठेकेदार अगर सुरक्षा और सुविधा का ख्याल नहीं रखता तो उसका ठेका रद्द किया जा सकता हैं इसके अलावा ठेका देने वाले  इंजीनियरों/ अफसरों के खिलाफ भी विभागीय कार्रवाई की जाती है।

 दूसरी ओर ठेकेदार नई दिल्ली के वीवीआईपी इलाके में काम के दौरान लोगों की सुरक्षा और सुविधा का पूरा ध्यान रखते हैं वहां पर काम भी युद्ध स्तर पर पूरा करते हैं। इंजीनियर भी वहां खुद खड़े होकर काम कराते हैं। लेकिन शेष दिल्ली के लोगों की सुरक्षा और सुविधा की इंजीनियर और ठेकेदार को बिल्कुल परवाह नहीं होती। इसलिए लोग हादसे का शिकार होते हैं।

वैसे इस प्रकार की परेशानी का सामना दिल्ली में उन सब इलाकों में  लोगों को करना पड़ रहा होगा जहां पर भी सड़क बनाने आदि के काम हो रहे हैं।

 इस मामले में इलाके के विधायक जितेंद्र तोमर की भूमिका पर भी सवालिया निशान लग जाता हैं। सड़क हो या कोई अन्य कार्य  विधायक सरकारी कार्य के शुभारंभ पर कार्यक्रम आयोजित कर कार्य का श्रेय तो इस तरह लेते हैं जैसे वह अपने निजी पैसे से जनता के कार्य करवा कर उन पर अहसान कर रहे हैं। छोटे से छोटे कार्य का भी श्रेय लेने के लिए पोस्टर छपवाने में आम आदमी पार्टी के विधायक जितेंद्र तोमर ने कांग्रेस, भाजपा को भी पीछे छोड़ दिया है।

विधायक पोस्टर छपवा कर, नारियल फोड़कर कार्य का शुभारंभ/ उद्घाटन कर चले जाते हैं। इसके बाद विधायक यह देखने की जहमत नहीं उठाते कि जिस कार्य का उन्होंने ढिंढोरा पीट कर श्रेय लिया है वह कार्य सही तरीके से और  सही समय पर पूरा हो रहा है या नहीं।  लोगों को उस कार्य के कारण परेशानी/ समस्या का सामना तो नहीं करना पड़ रहा।
विधायक का भी कर्तव्य है कि वह सुनिश्चित करें कि लोगों को उस कार्य के कारण कम से कम असुविधा का सामना करना पड़े। लोगों के जान-माल का कोई नुक्सान नहीं हो।

ठेकेदार और संबंधित अफसर इंजीनियर कार्य स्थल पर मौजूद रहे ताकि लोगों की समस्या का तुरंत समाधान किया जा सके।

सड़क बनाई जाए या पानी और सीवर की लाइन बदली जाए । दिल्ली सरकार या नगर निगम द्वारा किए जाने वाले कार्य स्थल पर एक बोर्ड लगाया जाना चाहिए।जिस पर संबंधित विभाग के अफसरों/ इंजीनियरों और ठेकेदार के अलावा विधायक/निगम पार्षद का मोबाइल नंबर लिखा जाना चाहिए। ताकि असुविधा होने पर लोग उनसे संपर्क कर सके।

इस बोर्ड पर यह भी साफ़ लिखा जाना चाहिए कि ठेकेदार के कारण लोगों को कोई नुक्सान होता है तो उसकी भरपाई  करना ठेकेदार की ही जिम्मेदारी है। जैसे सड़क तोड़ने के दौरान कई लोगों के पानी की लाइन आदि टूट जाती हैं।
 नियमानुसार  पानी सी/की लाइन बदलने के बाद ठेकेदार को ही दोबारा लाइन से कनेक्शन जोड़ कर देना चाहिए। लेकिन ठेकेदार ऐसा नहीं करते वह लोगों से कनेक्शन जोड़ने  का सामान  पाइप आदि मंगवाते हैं।

हर कार्य का ढिंढोरा पीट कर श्रेय लेने वाले विधायक/ निगम पार्षद और संबंधित अफसरों को कार्य स्थल पर  बोर्ड पर साफ़ साफ़ यह भी लिखना चाहिए कि ठेकेदार को  क्या क्या काम करने के लिए दिए गए है।

विधायक और इंजीनियर द्वारा लोगों को जागरूक करना चाहिए। वह लोगों को बताएं कि सब काम करने के लिए सरकार ठेकेदार को पैसा देती हैं इसलिए उनको ख़ुद कोई सामान नहीं लाना  है। अगर ठेकेदार उनसे सामान मंगवाता है तो तुरंत इंजीनियर और विधायक को शिकायत करें।

लेकिन सच्चाई यह है कि विधायक/ पार्षद की सांठगांठ इंजीनियर और ठेकेदार से होती है। इसलिए वह लोगों को जागरूक करने का रत्ती भर भी प्रयास नहीं करते।

 उल्लेखनीय हैं दिल्ली सरकार के पूर्व कानून मंत्री जितेन्द्र तोमर के खिलाफ एल एल बी की फर्जी डिग्री लेने के आरोप में अदालत में मुकदमा चल रहा है। दिल्ली पुलिस ने 2015 में इस मामले में तोमर को गिरफ्तार किया था।



  पूर्व डीसीपी लक्ष्मी नारायण राव


                  

Tuesday 21 May 2019

IPS मोनिका भारद्वाज का कारनामा, 88 वारदात FIR एक, पुलिस कमिश्नर निठल्ला, अपराधियों की बल्ले बल्ले

                      मोनिका भारद्वाज
 
                    अमूल्य पटनायक 

88 वारदात एक ही एफआईआर में दर्ज।
डीसीपी मोनिका भारद्वाज का कमाल। 

इंद्र वशिष्ठ
 दिल्ली में दिनों-दिन अपराध बढ़ रहे हैं पुलिस अपराध और अपराधियो पर अंकुश लगाने में नाकाम हैं। इसका मुख्य कारण यह है कि पुलिस अपराध और अपराधियो पर अंकुश लगाने की बजाए आंकड़ों की बाजीगरी से अपराध कम होने का दावा करने में जुटी रहती है। अपराध के मामलों को सही दर्ज ही नहीं करती है।
पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक के राज़ में पुलिस अपराध कम होने का दावा करने के लिए कैसे कैसे हथकंडे अपनाती हैं। इसका अंदाज़ा डीसीपी मोनिका भारद्वाज के नेतृत्व वाले पश्चिम जिला में चोरी /धोखाधड़ी के इस मामले से आसानी से लगाया जा सकता हैं। चोरी  की 88 वारदात को एक ही एफआईआर में दर्ज करने से पता चलता है कि डीसीपी महिला हो या पुरुष अपराध कम दिखाने के लिए सभी एक जैसे हथकंडे अपनाते हैं।

इस मामले से डीसीपी मोनिका भारद्वाज, संयुक्त पुलिस आयुक्त मधुप तिवारी, विशेष आयुक्त (कानून एवं व्यवस्था) रणबीर कृष्णियां और पुलिस कमिश्नर की काबिलियत और भूमिका पर सवालिया निशान लग जाता हैं। 

88 वारदात पर एफआईआर एक  ---
 यह मामला तिलक नगर थाने का हैं। 88 लोगों के अकाउंट   से लाखों रुपए निकाल लिए गए। लेकिन पुलिस ने इस मामले में सिर्फ एक ही एफआईआर दर्ज की है। जबकि 88 एफआईआर दर्ज की जानी चाहिए थी। ऐसा करके पुलिस ने एक तरह से अपराधियों की ही मदद की है।

तिलक नगर पुलिस को 10 मई 2019 को गौरव सेठी ने  शिकायत दी उनके बैंक खाते से पचास हजार रुपए किसी ने निकाल लिए हैं। पुलिस ने गौरव की शिकायत पर धारा 420 के तहत ठगी/धोखाधड़ी का मामला  दर्ज कर लिया।
पुलिस ने इसमें चोरी और इंफोर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट की धारा भी नहीं लगाई।
 पुलिस ने इस एफआईआर में लिखा है कि इस तरीके से ठगी किए जाने की अनेकों शिकायत पुलिस को मिली हैं। पुलिस ने गौरव सेठी के मामले में दर्ज एफआईआर में ही 87 अन्य पीड़ितों के नाम भी लिख दिए हैं।

एफआईआर में यह साफ लिखा है कि चोरी की वारदात एक मई से दस मई के दौरान हुई हैं। 
 रकम चोरी की वारदात अलग-अलग एटीएम पर अलग-अलग दिन हुईं। ऐसे में जाहिर सी बात हैं कि जिन लोगों के साथ दस तारीख से पहले वारदात हुईं उन लोगों ने पुलिस में पहले ही शिकायत की थी लेकिन पुलिस ने उसी समय उनकी शिकायतों पर एफआईआर दर्ज नहीं की थी।

पुलिस अगर चोरी की वारदात की सबसे पहले मिली शिकायत पर ही एफआईआर दर्ज करके जांच शुरू कर देती तो अपराधियों को पहले ही पकड़ा जा सकता था। तब अपराधी ओर लोगों के अकाउंट से पैसा चोरी नहीं कर पाते।

पुलिस के इस रवैए के कारण बेखौफ अपराधी उसी इलाके में एक के बाद एक लोगों के अकाउंट से पैसा चोरी करते रहे।
पुलिस ने आखिरकार एफआईआर दर्ज  की भी तो सिर्फ एक गौरव सेठी की शिकायत पर और इसमें ही अन्य पीड़ितों के नाम दर्ज कर खानापूर्ति कर दी।

दूसरी ओर पुलिस ने ऐसा करके उन 87 लोगों को धोखा दिया है जो यह सोच रहे होंगे कि उनका मामला पुलिस ने दर्ज कर लिया और उनके मामले में अपराधी को सज़ा मिलेगी। उन लोगों को यह नहीं मालूम कि अपराधियों को सज़ा सिर्फ गौरव सेठी वाले एक मामले में ही मिलेगी जिसकी शिकायत पर पुलिस ने एफआईआर दर्ज की है।

अपराधियों का फायदा---  88 वारदात की एक ही एफआईआर दर्ज करने से अपराधियों को ही फायदा मिला। पुलिस ने अगर 88 एफआईआर दर्ज की होती है तो अपराधियों को पुलिस इन सभी मामलों में गिरफ्तार करती।

 अपराधियों को इन सभी मामलों में अलग-अलग जमानत करानी पड़ती। अपराधियों के खिलाफ 88 एफआईआर होने पर जमानत भी आसानी से नहीं मिलती।  ऐसे में अपराधियों को न केवल जेल में ज्यादा समय तक रहना पड़ता बल्कि 88 अलग अलग मामलों में जमानत कराने और 88 मुकदमें लड़ने के लिए वकील को ज़्यादा  फीस देने से अपराधियों को आर्थिक झटका लगता।  88 अलग अलग मामले अदालत में चलते। इन सभी मामलों में अदालत  अलग-अलग सज़ा अपराधियों को सुनाती।
ऐसे में अपराधी ज्यादा समय तक जेल में रहता। 
इस तरीके से ही अपराध और अपराधियों पर अंकुश लगाया जा सकता हैं।

एफआईआर में धारा भी सही नहीं लगाई ---

पुलिस ने धोखाधड़ी की धारा 420 के तहत मामला दर्ज किया है। जबकि यह मामला साफ़ तौर पर चोरी का है। लेकिन पुलिस ने इसमें चोरी और इंफोर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट की धारा ही नहीं लगाई। पुलिस  एफआईआर में धारा सही लगाती तो अपराधियों को अलग-अलग धाराओं में सज़ा मिलती।

पुलिस अगर अलग-अलग एफआईआर दर्ज करती तो इन अपराधियों के खिलाफ ज्यादा एफआईआर दर्ज होने के आधार पर को अपराधियों को दस नंबरी यानी बीसी बनाया जा सकता था और उनको तड़ीपार की कार्रवाई भी की  जा सकती थी। 

पुलिस अफसरों का निठल्लापन , अपराधियों की बल्ले बल्ले--

अब पुलिस ने जो किया है उसका परिणाम यह होगा कि अपराधियों के खिलाफ सिर्फ एक एफआईआर दर्ज करने से अपराधियों को एक मामले में ही जमानत करानी पड़ेगी और एक ही मामले में उनको सज़ा मिलेगी।

अपराध कम दिखाने के लिए पुलिस इस तरह के हथकंडे अपनाती हैं। अपराध कम या ज्यादा होने का दावा पुलिस दर्ज की गई एफआईआर के आंकड़ों के आधार पर करती है। पुलिस अगर ठगी के मामले में 88 एफआईआर दर्ज करती तो आंकड़ों से पता चल जाता कि ठगी का अपराध बढ़ रहा है।

 पुलिस नहीं चाहती कि अपराध बढ़ना आंकड़ों से उजागर हो। अपराध बढ़ना उजागर होगा तो पुलिस पर अपराधियों को पकड़ने का दबाव पड़ेगा। पुलिस को मेहनत करनी पड़ेगी। पुलिस मेहनत करना नहीं चाहती इसलिए पुलिस अपराध के सभी मामलों को सही तरीके से दर्ज ही नहीं करती या दर्ज करती भी हैं तो इस तरीके के हथकंडे अपनाती हैं कि अनेक वारदात को एक ही एफआईआर में दर्ज कर देती। डकैती को लूट और लूट को चोरी में दर्ज करने के लिए तो पुलिस बदनाम हैं ही।


लेकिन ऐसे हथकंडे अपना कर पुलिस एक तरह से अपराधियों की ही मदद करने का गुनाह कर रही हैं। अपराधियों को भी पता हैं पुलिस स्नैचिंग, लूट, जेबतराशी आदि अपराध के भी सभी मामलों को दर्ज ही नहीं करती है। इसलिए अपराधी बेख़ौफ़ होकर वारदात करते हैं। 

इस तरह आंकड़ों की बाजीगरी से अपराध कम होने का दावा करके ही पुलिस कमिश्नर, स्पेशल कमिश्नर, संयुक्त आयुक्त, डीसीपी और एस एच ओ खुद को सफल अफसर दिखाने में लगे रहते हैं। 


पुलिस जब तक अपराध के सभी मामलों को सही दर्ज नहीं करेंगी अपराध और अपराधियों की सही तस्वीर सामने नहीं आएगी। सही तस्वीर सामने आने के बाद ही अपराध और अपराधियों से निपटने की कोई भी योजना सफल हो पाएगी। तभी अपराध और अपराधियों पर अंकुश लगाया जा सकता हैं।

तत्कालीन पुलिस कमिश्नर भीम सेन बस्सी ने अपराध के मामले सही दर्ज करने की अच्छी कोशिश की थी। उनके कार्यकाल में दर्ज अपराध के आंकड़ों से इसका साफ़ पता भी चलता है।

इस मामले में पश्चिम जिला पुलिस उपायुक्त मोनिका भारद्वाज से मोबाइल फोन पर संपर्क की कोशिश की गई। लेकिन उन्होंने फोन रिसीव नहीं किया।

दिल्ली पुलिस के स्पेशल सेल के पूर्व डीसीपी लक्ष्मी नारायण राव का कहना है कि इस मामले में हरेक शिकायत पर अलग अलग एफआईआर दर्ज की जानी चाहिए थी। कानून के अनुसार एक ही समय,स्थान और एक ही तारीख पर हुई  तीन वारदात को ही एक एफआईआर में दर्ज किया जा सकता है। इस मामले में तो अलग-अलग दिन, अलग-अलग समय और स्थान पर वारदात हुई हैं। 
इस मामले में चोरी और इंफोर्मेशन टेक्नोलॉजी एक्ट  की धारा भी लगानी चाहिेए थी। 
 अब पेशे से वकील एल एन राव का कहना है अपराध और अपराधियों पर अंकुश लगाने के लिए जरूरी है कि अपराध के सभी मामले दर्ज किए जाए और सही धारा में दर्ज किए जाए।

तिलक नगर पुलिस थाने में 11 मई को‌ ठगी की एफआईआर दर्ज की गई 18 मई को पुलिस ने इस मामले में चार अभियुक्तों को गिरफ्तार कर लिया। अभियुक्त ऐसे एटीएम को निशाना बनाते थे जहां सुरक्षा कर्मी नहीं होता था। वह एटीएम में स्किमिंग मशीन लगा देते थे। जिससे लोगों के एटीएम कार्ड का डेटा चुरा लेते थे। उस डेटा के जरिए  क्लोन कार्ड तैयार कर लोगों के अकाउंट से पैसा निकाल लेते थे। आरोपियों की पहचान न हो इसके लिए वह एटीएम में लगे सीसीटीवी कैमरे पर काले रंग वाले केमिकल से स्प्रे कर देते। 88 लोगों के अकाउंट से 19 लाख रुपए निकाल लिए गए।
अभियुक्तों ने पूछताछ में पुलिस को बताया कि विकास पुरी, द्वारका, महिपालपुर,पालम और जनक पुरी में भी एटीएम पर उन्होंने ऐसे ही स्किमिंग मशीन लगा कर वारदात की है

                      पूर्व डीसीपी लक्ष्मी नारायण राव




Wednesday 15 May 2019

3 हज़ार करोड़ ठगने वाली हीरा ग्रुप की महाठगनी नौहेरा शेख़ को ईडी ने गिरफ्तार किया।



3 हज़ार करोड़ ठगने वाली महाठगनी नौहेरा शेख गिरफ्तार।

इंद्र वशिष्ठ 


प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) ने हैदराबाद की हीरा ग्रुप की नौहेरा शेख और मौली थाॉमस समेत तीन लोगों को गिरफ्तार किया है।

हीरा ग्रुप ने मोटे रिटर्न का झांसा देकर लाखों लोगों से तीन हज़ार करोड़ रुपए ठग लिए है। कंपनी के शिकार हुए लोगों में एनआरआई भी शामिल हैं।

गिरफ्तार अभियुक्त नौहेरा शेख, बीजू थॉमस उसकी पत्नी मौली थॉमस को हैदराबाद की अदालत में पेश किया गया। अदालत ने सभी अभियुक्तों को सात दिन के लिए प्रर्वतन निदेशालय की हिरासत में भेज दिया।
तीनों पहले से ही एक अन्य मामले में जेल में थे और ईडी ने अदालत से उन्हें हिरासत में लेने की अनुमति मांगी थी। 

हीरा ग्रुप के खिलाफ तेलंगाना पुलिस ने केस दर्ज किया था। जिसके आधार पर प्रर्वतन निदेशालय ने प्रिवेंशन ऑफ मनी लांड्रिंग एक्ट के तहत इस मामले की जांच शुरू की।

हीरा ग्रुप ने लोगों को उनकी गोल्ड ट्रेडिंग आदि  कंपनियों में निवेश करने पर 36 फीसदी तक रिटर्न देने का भरोसा दिया था। लेकिन कंपनी ने निवेशकों को वादे के मुताबिक रिटर्न नहीं दिया और न ही उनका  मूल धन लौटाया। 

172114  लोगों से कंपनी ने तीन हज़ार करोड़ रुपए से ज्यादा ठग लिया। इनकी ठगी के शिकार हुए लोगों में तेलंगाना, हैदराबाद, आंध्र प्रदेश, केरल  के अलावा देश के अन्य राज्यों के लोग तो हैं ही संयुक्त अरब अमीरात और सऊदी अरब में रहने वाले एन आर आई भी इस कंपनी के झांसे आकर अपना पैसा गंवा बैठे।

प्रवर्तन निदेशालय ने जांच में पाया कि इस कंपनी का ऐसा कोई कारोबार हैं ही नहीं जिसमें यह पैसा लगाया गया हो।
 नौहेरा शेख ने हीरा ग्रुप की कंपनियों के नाम से 182 बैंक खाते खोले । नौहेरा शेख के संयुक्त अरब अमीरात में भी 10 बैंक खातों का पता चला  हैं।
बैंक खातों में जमा निवेशकों की रकम इन लोगों ने अपने  निजी बैंक खातों में ट्रांसफर कर दी थी। इस रकम से चल अचल संपत्ति खरीद ली। 

बीजू थॉमस केरल की सुवान टेक्नोलॉजी सोल्यूशन इंडिया कंपनी का एमडी हैं। बीजू ने हीरा ग्रुप की कंपनियों के साफ्टवेयर बनाए थे। बीजू हीरा ग्रुप के लेन देन के खाते भी संभालता था।
बीजू की पत्नी मौली थॉमस नौहेरा शेख की पीए के तौर पर काम करती हैं।