Wednesday 9 December 2020

किसानों पर जुल्म,पूंजीपतियों पर करम।देश में फिर होगा क्या कंपनी राज? किसान हिताय की बजाए पूंजीपति हिताय सरकार। सरकार राज या कंपनी राज।

दैनिक बन्दे मातरम 13-12-2020
किसान हिताय की बजाए पूंजीपति हिताय सरकार।
किसानों पर जुल्म,पूंजीपतियों पर करम।
देश में फिर होगा क्या कंपनी राज ?
सरकार राज या कंपनी राज।

इंद्र वशिष्ठ
खरबूजा चाकू पर गिरे या चाकू खरबूजे पर कटता खरबूजा ही है इसी तरह वोट किसी भी दल को देंं पिसती जनता ही है। सभी दल और नेता एक जैसे ही है जनता के पास कोई विकल्प ही नहीं है। ऐसे में जनता के लिए एक तरफ़ खाई और दूसरी तरफ़ कुंआ ही है।

कंपनी राज  -
समंदर पार से ईस्ट इंडिया कंपनी के नाम से अंग्रेज व्यापारी बन कर भारत आए और राजा बन देश पर कब्जा कर लिया। देश को लूट कर खोखला करके चले गए। ईस्ट इंडिया कंपनी तो चली गई। लेकिन पिछले करीब तीन दशकों में भारत में देसी कंपनियों का राज शुरु हो गया। अंतर सिर्फ इतना है कि उद्योगपति खुद राज करने की बजाए राजनैतिक दलों के अपने कारिंदों के माध्यम से राज कर रहे हैं। हालात अगर ऐसे ही रहे तो वह दिन दूर नहीं जब देश में हरेक क्षेत्र में निजी कंपनियों यानी उद्योगपतियों का ही राज होगा।

नेता बन गए राजा-
इसके लिए नेताओं के साथ साथ वह लोग भी जिम्मेदार हैं जो अपनी बुद्धि , विवेक को ताक पर रख कर नेताओं पर अंधा विश्वास करके  जमकर व्यर्थ की बहसबाजी में उलझे रहते हैं। इन लोगों को इतनी सी बात समझ नहीं आती कि राजनेता शब्द का अर्थ ही यह है कि राज करने वाला नेता है। राज करना मतलब शासन करना। नेता सत्ता पाते ही शासक यानी राजा बन जाता है तो वह मतदाता यानी जनता को प्रजा ही समझता है। ऐसी मानसिकता के कारण वह इस अहंकार/भ्रम में रहता है कि जो वह कहे या करे उसे आंख मूंद कर मान लेना ही प्रजा का धर्म है।

उद्योगपति हिताय-
सरकार किसी भी दल की हो यह सच्चाई है कि उसके लिए सिर्फ़ उद्योगपतियों के हित ही सर्वोपरि होते हैं। राजनेता लोगों को इस भ्रम में रखता हैं कि वह जनता का सेवक है और लोग भी इस भ्रम में जीते हैं कि नेता ही उनका असली शुभचिंतक है। जबकि नेता असली सेवक उन उद्योगपतियों का ही होता है जिनके पैसे के दम पर वह चुनाव लड़ता और सत्ता पाता हैं। यह स्वाभाविक भी है कि जो सत्ता पाने में मदद करेगा तो उसके हितों की रक्षा वह नेता करेगा ही।
यह सच्चाई है कि उद्योगपति/ व्यापारी बिना अपने किसी आर्थिक फायदे के किसी भी दल या नेता को पैसा देता नहीं है। 

अपने अपने नेताओं को पहचानों-
किसान कानून के ताजा मामले से यह बात आसानी से साफ समझी जा सकती है। आज भाजपा सरकार जिन कानूनों को किसानों की भलाई वाला बता रही है उसी के नेता अरुण जेटली और सुषमा स्वराज के संसद में दिए बयान ऐसे कानून का पुरजोर विरोध वाले थे। इसी तरह जो कांग्रेस आज किसान कानून का विरोध कर रही है वह सत्ता में रहते खुद भी ऐसे कानून चाहती थी। 
इससे यह स्पष्ट है कि सत्ता में कोई भी दल हो वह उद्योगपतियोंं के हित के लिए काम करता है।

सरकार की नीयत और नीति अगर सही होती तो उसे किसानों की  कथित भलाई वाले इस  कानून को बनाने से पहले उनसे विचार विमर्श तो करना चाहिए था। 
सरकार के किसानों की कथित भलाई वाले कानून को जब किसान ही नहीं चाहते तो सरकार क्यों जबरन इस कानून को उन पर  थोपने पर अड़ी हुई है। सरकार के इस तरह अड़ने से भी साफ पता चलता है कि वह किसानों की बजाए अपने खास उद्योगपतियों की ही हितैषी है।
अब इतने दिनों से किसान जाड़े मेंं दिल्ली सीमा पर पडे़ हुए। सरकार अगर किसानों की हितैषी होती तो यह नौबत नहीं आती। सरकार ने तो इस जाड़े में किसानों पर पानी की बौछार, आंसू गैस और लाठीचार्ज जैसे अत्याचार तक किए।

लोग नादानी छोड़,आईना दिखाएं-
असल में लोग भी या तो नादान हैं या दोहरे चरित्र वाले हैं जो अपने दोहरे चरित्र वाले दोगले नेताओं के पीछे अंध भक्त बन कर एक दूसरे से कुतर्क कर अपनी ऊर्जा नष्ट करने में लगे रहते हैं।
कोई व्यक्ति चाहे किसी भी दल से जुड़ा हुआ है। उसे किसी भी मुद्दे पर आंख मूंद कर समर्थन या विरोध करने से पहले अपने अपने दलों के नेताओं के ही उन बयानों को देखना चाहिए जो उन्होंने विपक्ष की भूमिका में उन मुद्दों पर दिए थे। इसी तरह लोगों को अपने अपने नेताओं के उन बयानों को देखना चाहिए जो उन्होंने सत्ता में रहते हुए उस मुद्दे पर  दिए थे।
सत्ता में आने पर उन मुद्दों पर पलटी मारने या विपरीत आचरण करने वाले राजनेताओं से उनके दल के समर्थकों को ही जवाब तलब करना चाहिए।
अभी तो हालात यह हैं की भाजपा के नेताओं ने विपक्ष में रहते जिन मुद्दों/ नीतियों पर कांग्रेस का विरोध किया था। सत्ता में आने पर भाजपा ने उन्हें ही लागू कर दिया जैसे जीएसटी,आधार आदि। पेट्रोल के दामों और महंगाई आदि मुद्दों को लेकर जमकर कांग्रेस के खिलाफ प्रदर्शन करने वाली भाजपा अब बेशर्मी से दामों में वृद्धि और महंगाई आदि को जायज ठहराती है।
होना तो यह चाहिए कि भाजपा के कार्यकर्ताओं को अपने नेताओं से सवाल करना चाहिए कि वह अब कांग्रेस की नीतियों को ही लागू कर रहे हैं तो पहले विरोध क्यों कर रहे थे। इसी तरह कांग्रेस के कार्यकर्ताओं को भी अपने नेताओं से सवाल करना चाहिए कि जिन मुद्दों पर वह अब विरोध कर रहे हैं उन मुद्दों पर सत्ता में रहते तो उनके विचार बिल्कुल अलग थे।
लेकिन अफसोस दोनों दलों के कार्यकर्ता गुलामों की तरफ भेड़ चाल में अपने अपने नेताओं के पीछे आंख मूंद कर चलते हैं। अपने अपने दल के नेताओं से जवाब तलब करने की बजाए दूसरे दल के नेताओं/ कार्यकर्ताओं से सवाल पूछने में जुटे रहते है।
 लोकतंत्र में सरकार को लोगों के प्रति जवाबदेह बनाए रखने के लिए सत्ता से सवाल जरूर पूछना चाहिए वरना सत्ताधारी निरंकुश हो जाते हैं और निरंकुश नेताओं/सरकार का खामियाजा पूरे देश को भुगतना पड़ता है।
कार्यकर्ता या समर्थक अगर अपने दल के नेताओं को ही आईना दिखाने लग जाएं तो ही नेता जनहित/ लोक कल्याणकारी नीतियां, नियम/ कायदे/योजनाएं बनाएंगे । 
गली, मोहल्ले, चौपाल या सोशल मीडिया पर भाजपा और कांग्रेस से जुड़े लोग कुतर्क करने में जुटे रहते हैं। एक दूसरे को गलत या देशद्रोही तक साबित करते हैं। ऐसे सभी लोग 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले देश के हरेक मुद्दे पर दिए गए नरेंद्र मोदी के ही बयानों के वीडियो देख लेंं और कांग्रेसियों को भी अपने नेताओं के बयान देखने चाहिए। 
दोनों दलों के नेताओं के बयानों को देखने से यह बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगा  कि ये सब  दोहरे चरित्र वाले हैं जो सत्ता पाने से पहले जिस नीति/मुद्दे का विरोध करते हैं सत्ता पाते ही उसी नीति को खुद अपनाने से जरा भी गुरेज नहीं करते हैं। कथनी और करनी में अंतर रखने वाले ऐसे नेताओं के पीछे लोगों का आपस में लड़ना दिखाता है कि या तो वह अनाडी है या वह भी दोहरे चरित्र वाले हैं।

 कंपनी राज का नमूना जियो - 
लोग अगर इतना भी कर ले तो उन्हें साफ समझ आ जाएगा कि सभी दल और नेता एक जैसे हैं और उन सब का एकमात्र लक्ष्य केवल उद्योगपतियों को लाभ पहुंचाना होता है। अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह उद्योगपतियों की कंपनियां किस तरह लोगों की जेब से पैसा निकालती हैं। इसे जियो मोबाइल मामले से आसानी से समझा जा सकता हैं। शुरू में जियो ने कई महीने तक मुफ्त सेवा दी जिससे लोगों ने दूसरी टेलिकॉम कंपनियों को छोड़ कर जियो का कनेक्शन ले लिया। इससे दूसरी कंपनियां बंद होने के कगार पर पहुंच गई। इसके बाद जियो ने बेतहाशा दाम बढ़ा दिए। लोगों के पास ओर कोई विकल्प नहीं होने के कारण वह जियो की मनमानी के आगे मजबूर हो गए।
जियो द्वारा एकदम से सौ-डेढ़ सौ रुपए तक  बढ़ा दिए जाते हैं। क्या कभी सरकार ने जियो या दूसरी कंपनियों को ऐसा करने से रोकने की कोशिश की ? सरकार चाहे किसी भी दल की हो वह कंपनियों को मनमानी दर बढ़ाने से कभी नहीं रोकती। दूसरी ओर कंपनियां एक झटके में ही इस तरह से दाम बढ़ा कर अपना मुनाफा हजारों करोड़ रुपए बढ़ा लेती है।
सत्ता अपने चहेते उद्योगपति का व्यापार शुरू करने/बढ़ाने में किस तरह से मदद करती हैं इसका उदाहरण भी जियो से लिया जा सकता हैं। मोबाइल कनेक्शन के लिए पहचान के लिए आधार कार्ड लिया जाता है। जियो कंपनी जैसे ही शुरू हुई सरकार ने उसे आधार से सीधे खुद ही वैरीफिकेशन करने की सुविधा तक उपलब्ध करा दी। ऐसी सुविधा अन्य किसी कंपनी को इसके पहले शायद नहीं दी गई थी। इस सुविधा के कारण जियो अपने ग्राहकों का तुरंत वैरिफिकेशन कर लेता था।
उद्योगपतियों के रहमों करम पर देश-
किसान कानून से भी सबसे बड़ा खतरा यहीं हैं कि सिर्फ एक-दो उद्योगपतियों के हाथ में पूरे देश का अनाज,फल, सब्जी का भंडार आ जाएगा फिर वह मनमानी दर पर उसे बेचेगें। पारंपरिक मंडियां खत्म हो जाने से किसान अपना अनाज औने पौने दामों में इन उद्योगपतियों को बेचने को मजबूर हो जाएगा। गिने चुने उद्योगपतियों के हाथों में देशभर के अनाज आदि का भंडार होने से वह अपना ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने के हिसाब से बाजार को नियंत्रित करेंगे। इसका असर सिर्फ किसानों पर ही नहीं उपभोक्ताओं पर भी पडे़गा। बाजार में कई कंपनियां/ मंडियां हो तो उनमें प्रतियोगिता होगी जिसका फायदा उपभोक्ताओं को होता है लेकिन अगर एक ही कंपनी का एकछत्र राज बाजार में होगा तो वह उपभोक्ताओं से मनमाना दाम वसूलेगी ही। 

उद्योगपति घाटे का सौदा नहीं करता-
सरकारी उपक्रमों/कंपनियों  को बेचा जाता है। उद्योगपति उन कंपनियों को खरीद लेते हैं।
क्या कोई उद्योगपति पागल हैं कि वह घाटे का सौदा करेगा। व्यापारी हमेशा मुनाफे वाले सौदे में ही हाथ डालता है इसलिए वह उन कंपनियों को खरीदता है जिसे सरकार बीमार या घाटे वाली बताती है।
असल में सरकार एक तरह से उद्योगपतियों के हाथों में ही सब कुछ सौंप कर उन्हें जमकर बिना रोकटोक/ प्रतियोगिता के कमाने का मौका उपलब्ध करवा देती है।
अगर सरकार की नीयत साफ होती तो वह एमटीएनएल और बीएसएनएल की सेवाओं को ही इतना बेहतर करती कि लोग उनका ही इस्तेमाल करते। लेकिन ऐसा होता तो उद्योगपति  पैसा कैसे कमाते ? इसलिए पहले सरकारी उपक्रमों की कंपनियों की सेवा/ सुविधा इतनी खराब कर दी जाती हैं कि लोग निजी कंपनियों की सुविधाएं लेने को मजबूर हो जाते हैं। यहीं हाल सरकारी स्कूल और अस्पताल का भी है। इसलिए लोग निजी अस्पतालों और स्कूलों के हाथों लुटने को मजबूर हैं।

सरकार की काबिलियत पर सवाल-
सरकार कितनी काबिल है इसका पता इस बात से चलता है कि सरकारी उपक्रमों की सेवाओं को वह कितना बेहतर करती हैं। लोगों को बेहतर सुविधाएं देने की बजाए सरकारी उपक्रमों को बेचने से तो सरकार और नौकरशाहों के नाकाबिल होने का ही पता चलता है। हालांकि निजीकरण के लिए कांग्रेस भी जिम्मेदार है लेकिन अब सत्ताधारी भाजपा उससे भी चार कदम आगे चल रही हैं। हर बात के लिए कांग्रेस को कोसने वाली भाजपा खुद को देशभक्त होने का दावा करती है लेकिन सब कुछ उद्योगपतियों को सौंप कर वह देश में कंपनी राज स्थापित करती दिख रही है। कंपनियों का तो सिर्फ एकमात्र उद्देश्य  ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना ही होता है। 
 कोसने की बजाए काम करें-
पिछले 6 साल से सत्ता में होने के बावजूद भाजपा कांग्रेस को ही हर बात के लिए जिम्मेदार ठहराने में लगी हुई है। कांग्रेस को कोसने की बजाए भाजपा के पास तो अब मौका है कि वह ऐसे कार्य करके दिखाए जिससे साफ पता चले कि इस सरकार की नीयत और नीति वाकई लोक कल्याण की ही है। वरना अभी तक तो ऐसा ही लगता है कि दोनों दलों में कोई फर्क नहीं है। दोनों के लिए लोक कल्याण की बजाए अपने अपने उद्योगपतियों का कल्याण ही सर्वोपरि है।
 भाजपा का कोसना कांग्रेस को जिंदा रखेगा  -
कांग्रेस ने जो किया उसका खामियाजा तो वह आज भुगत ही रही हैं। लेकिन कांग्रेस के पाप गिनाने से भाजपा के पाप कम नहीं हो जाएंगे। कांग्रेस अपने नेताओं/ कर्मों से ऐसी हालत में पहुंच गई कि उसका दोबारा जल्दी उभरना मुश्किल है। लेकिन एक बात तय है कि जिस तरह से भाजपा दिन रात कांग्रेस को कोसती हैं उससे इतना तय है कि भाजपा ही कांग्रेस को चर्चा में बनाए रख कर उसे राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी के रुप में जिंदा रखेगी। मोदी या भाजपा द्वारा कांग्रेस की इतनी ज्यादा चर्चा करने से लगता है कि भाजपा के सिर पर कांग्रेस का भूत अभी तक सवार है। उसकी नजर में कहीं न कहीं कांग्रेस की अहमियत या भय बरकरार है। वरना जिस कांग्रेस को उसके अपने नेताओं ने डुबाने में कसर नहीं छोड़ी उसका इतना जिक्र करके उसे इतनी अहमियत भाजपा क्यों दे रही हैं। वैसे ऐसा ही चलता रहा तो भाजपा का यह कोसना ही एक दिन लोगों में कांग्रेस के प्रति फिर से सहानुभूति/ समर्थन भी पैदा कर सकता है।
          दैनिक बन्दे मातरम 13-12-2020







किसान कानून की धारा 13,15 में सााफ हैं कि विवाद  होने पर अदालत में नहीं जा सकते। एसडीएम, एडीएम के यहां ही कार्रवाई  होगी।

Saturday 28 November 2020

IPS घणे लाट साहब/ सत्ता के लठैत मतना बणों।अन्नदाता कै लठ मतना मारो।अन्न खाओ अर अन्नदाता तै परहेज़। कमिश्नर,आईपीएस की काबिलियत पर सवालिया निशान।

कमिश्नर घणे लाट साहब/ सत्ता के लठैत मतना बणों। अन्नदाता कै लट्ठ मतना मारो।
गुड खाओ अर गुलगुला तै परहेज़ करो सो।
कमिश्नर/ IPS की काबिलियत पर सवालिया निशान।
  
इंद्र वशिष्ठ
वकीलों से पिटने वाली पुलिस महामारी के भयंकर संकट के दौर में भी अन्नदाता पर जाडे में पानी की बौछार, आंसूगैस और डंडे चला कर अपनी बहादुरी दिखाने में लगी हुई है।
इस दौर में भी पुलिस का पारंपरिक संवेदनहीन चरित्र और चेहरा ही दिखाई दे रहा है। 

कमिश्नर/आईपीएस की  काबिलियत पर सवालिया निशान।
आंसू गैस,पानी की बौछार और लाठीचार्ज करने के बाद ही क्या सरकार और कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव को यह बात समझ आई  कि अब किसानों को दिल्ली में आने दिया जाए।
 पुलिस दो दिन से किसानों के साथ जोर यह आजमाइश क्यों कर रही थी ? किसान को वैसे तो सभी अन्नदाता अन्नदाता कहते रहते हैं लेकिन अन्नदाता को अपनी ही सरकार तक गुहार लगाने के लिए पहुंचने ना देना यह कैसा लोकतंत्र है ?
अन्न चाहिए अन्नदाता नहीं-
 कहावत है कि गुड खाएंं और गुलगुले से परहेज़। इसी तरह अन्न तो सबको चाहिए पर अन्नदाता से परहेज़ है। अन्नदाता को फरियाद लेकर दिल्ली दरबार जाने तक  से रोका जाता है।

वैसे धरना प्रदर्शन पहले की ही तरह सरकार की नाक के नीचे बोट क्लब/ विजय चौक पर ही होना चाहिए। तभी तो सरकार के कान पर जूं रेंगेगी।

कमिश्नर हालात बिगाड़ै, किसान का आईपीएस बेटा संभालै-
दो साल पहले भी गांधी जयंती के दिन उत्तर प्रदेश के किसान दिल्ली आना चाहते थे लेकिन पुलिस ने उन्हें गाजीपुर सीमा पर रोका और इसी तरह के अत्याचार किए। ऐसे आईपीएस अफसर भी होते हैं जो किसानों के दिल्ली आने की सूचना मिलते ही पुलिस कमिश्नर से कहने लग जाते हैं कि किसानों के आने से दिल्ली में हाहाकार मच जाएगा ,कानून व्यवस्था खराब हो जाएगी। कमिश्नर को ऐसे अफसरों की बातें खुद के लिए भी अनुकूल लगती है। इसलिए वह किसानों को दिल्ली में घुसने से रोकने के लिए जुट जाते हैं। 
जबकि होना तो यह चाहिए कि सरकार तक अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए किसान या कोई भी जाना चाहे तो उसे वहां तक आसानी से पहुंचाने की  पुलिस को ऐसी अच्छी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे सामान्य यातायात भी सुचारु रहे और किसी को कोई परेशानी भी नहीं हो। ऐसा करने से ही अफसरों की पेशेवर काबिलियत का पता चलेगा।
अब तो हालात यह हैं कि सत्ता के इशारे पर पुलिस  प्रदर्शनकारियों को सरकार तक पहुंचने से रोकने का गलत तरीका अपनाती हैं जिसके कारण टकराव होता है।  ऐसे में हालात बिगाड़ने के लिए पूरी तरह कमिश्नर ही जिम्मेदार है। हालात बिगड़ने के बाद कमिश्नर किसान परिवार से आए आईपीएस अफसरों को किसानों को समझाने के लिए आगे कर देते हैं। 
जैसे अब उत्तरी रेंज के संयुक्त पुलिस आयुक्त एस एस यादव के माध्यम से  किसानों को समझाने के लिए अपील करवाई गई। जिसमें उन्होंने बकायदा यह भी बताया कि वह भी किसान परिवार के ही हैं।
इसी तरह गांधी जयंती पर पुलिस और किसानों के टकराव के बाद तत्कालीन संयुक्त पुलिस आयुक्त रवींद्र सिंह यादव को किसानों को समझाने की जिम्मेदारी दी गई। जिसके बाद किसान घाट आए और शांतिपूर्वक वापस चले गए।
किसान परिवार से आए आईपीएस अफसरों की बात राय अगर कमिश्नर पहले ही ले लेंं तो हालात बिगड़ने की नौबत ही नहीं आए।
धूर्त राजनेता किसानों पर अत्याचार भी किसान पुत्र पुलिसकर्मियों से करवा देते हैं। पुलिस में ज्यादा संख्या किसान पुत्रों की ही है।

सत्ता की लठैत बनी पुलिस -
सत्ता यानी मंत्री अगर प्रदर्शनकारियों को रोकने का आदेश पुलिस को देता है तो काबिल कमिश्नर को तो सरकार को यह सच्चाई बतानी चाहिए कि रोकने से तो हालात ज्यादा बिगड़  जाएगी। इसलिए सरकार को तुरंत प्रदर्शनकारियों को बुला कर उनसे बात करनी चाहिए। लेकिन अफसोस इस बात का हैं कि नाकाबिल कमिश्नर और आईपीएस में सरकार के सामने यह सच्चाई कहने की हिम्मत ही नहीं होती है। इसलिए आईपीएस सत्ता के लठैत बन कर लोगों को रोकने में ही सारी ताकत लगा देते हैं। आंसू गैस, लाठीचार्ज और कभी कभी तो गोली भी चला देते हैंं।  यह सब करके हार जाने के बाद ही वह लोगों को दिल्ली में आने की इजाज़त देते हैं। पुलिस की इसी हरकत के कारण वह सत्ता के लठैत कहलाते हैं और लोगों में पुलिस के प्रति सम्मान खत्म हो जाता है।

सभी सरकार एक सी-
सरकार चाहे भाजपा की हो या कांग्रेस की सभी पुलिस का इस्तेमाल अपने ग़ुलाम/ लठैत की तरह करते हैं। इसके लिए नेताओं से ज्यादा वह कमिश्नर/ आईपीएस अफसर दोषी हैं जो महत्वपूर्ण पद पाने के लिए राजनेताओं के दरबारी/ गुलाम/ लठैत बन कर आम आदमी पर अत्याचार करने से भी पीछे नहीं हटते। 

धारा 144 लगाना, लोगों की आवाज दबाना-
माना कि धारा 144 लागू होने के कारण प्रदर्शन करना मना है। लेकिन यह धारा भी तो पुलिस ही लगाती है। प्रदर्शनकारी  इस देश के ही तो होते हैं और वह अपनी आवाज़ अपने प्रधानमंत्री, सांसदों, नेताओं तक नहीं पहुंचाएंगे तो किसके सामने अपना दुखड़ा रोएंगे ?
अगर वहां पहुंच कर कोई कानून हाथ में लेने की कोशिश करे तो ही पुलिस को उनके खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। 
समाधान की बजाए टकराव के रास्ते पर पुलिस -
किसान जाना चाहते थे लेकिन पुलिस ने रोका झड़प हुई और इस कारण ट्रैफिक जाम भी हो गया। 
नाकाबिल अफसरों के कारण ही हालात बिगडते हैं।  दिल्ली वालों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इसके लिए कमिश्नर ही पूरी तरह जिम्मेदार होता हैं लेकिन आम लोग समझते हैं कि किसानों या अन्य प्रदर्शनकारियों के कारण उन्हें परेशानी का सामना करना पड़ा।  प्रदर्शनकारी तो अपने लोकतांत्रिक हक का लोकतांत्रिक तरीकों से शांतिपूर्वक इस्तेमाल करना चाहते हैं। सरकार के इशारे पर पुलिस ही उनके अधिकारों का हनन करती हैं।

 प्रदर्शन का हक़ छीनती पुलिस-
पुलिस अफसरों की काबिलियत का पता इस बात से चलता है कि बडे़ से बड़े प्रदर्शन के दौरान कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए कितना अच्छा इंतजाम करते है। लेकिन अब तो पुलिस आसान रास्ता अपनाती  है धारा 144 लगा कर लोगों के इकट्ठा होने पर ही रोक लगा देती है। सुरक्षा कारणों के नाम पर मेट्रो के गेट बंद कर या सड़क पर यातायात बंद कर लोगों को परेशान करती है।
पुलिस जब धारा 144 लगा कर लोगों को उनके प्रदर्शन के हक़ से वंचित करने की कोशिश करती है तभी टकराव होता है।  

लोकतंत्र में अपनी समस्याओं और मांगों को अपनी सरकार के सामने शांतिपूर्ण तरीके से रखा जाता है। लेकिन यहां तो उल्टा ही हिसाब है सरकार चाहे किसी भी दल की हो संसद सत्र के दौरान संसद भवन के आसपास धारा 144 लगा कर लोगों को वहां प्रदर्शन करने से ही रोक दिया जाता है। अब ऐसे में कोई कैसे अपनी सरकार तक अपनी फरियाद पहुंचाए।

छात्रों पर जुल्म ढहाया-
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्र पिछले साल अपनी मांगों को लेकर संसद भवन जाना चाहते थे। पुलिस ने उनको रोकने के लिए पूरी ताकत लगा दी।
वकीलों और नेताओं से पिटने और बदसलूकी के बावजूद जो पुलिस कमिश्नर और आईपीएस अफसर उनके खिलाफ एफआईआर तक दर्ज करने की हिम्मत नहीं दिखाते। उस पुलिस ने छात्रों पर लाठीचार्ज कर अपनी बहादुरी/ मर्दानगी का परिचय दिया। पुलिस की बर्बरता का आलम यह रहा कि उसने अंधे छात्रों पर भी रहम नहीं किया। नेत्रहीन छात्र को भी पीटने में संवदेनहीन पुलिस को ज़रा भी शर्म नहीं आई। 
हिंसा, आगजनी, तोड़ फोड़ और पुलिस अफसरों को भी बुरी तरह पीटने  वाले वकीलों के सामने आईपीएस अफसर हाथ जोड़कर विनती करते हैं दूसरी ओर शांतिपूर्ण तरीके से संसद भवन जाना चाह रहे छात्रों पर भी पुलिस जुल्म ढहाती है।

आम आदमी को पीटने वाली बहादुर पुलिस-
खुद के पिटने पर रोने वाली पुलिस लोगों को पीट कर खुश-
यह वही पुलिस है जिसकी डीसीपी मोनिका भारद्वाज द्वारा वकीलों के आगे डर कर हाथ  जोड़ने और जमात सहित दुम दबाकर कर भागने की वीडियो पूरी दुनिया ने देखी। यह वही दिल्ली पुलिस है जिसे वकीलों ने पीटा तो अनुशासन भूल कर अपने परिवारजनों  के साथ पुलिस मुख्यालय पर अपना दुखड़ा रोने जमा हो गई थी।

उस समय आम आदमी पुलिस के पिटने पर खुश हुआ था उसकी मुख्य वजह यह है कि आम आदमी पुलिस के दुर्व्यवहार, भ्रष्टाचार, अत्याचार और अकारण लोगों को पीटने से त्रस्त हैं। इसलिए वकीलों ने पीटा तो आम आदमी ने कहा कि पुलिस के साथ ठीक हुआ। हालांकि कानून के ज्ञाता वकीलों द्वारा ही कानून हाथ में लेना बहुत ही शर्मनाक है।
वकीलों के खिलाफ तो डीसीपी मोनिका भारद्वाज ने अपने साथ हुई बदसलूकी की खुद एफआईआर तक दर्ज कराने की हिम्मत नहीं दिखाई।
हिंसा, आगजनी और पुलिस अफसरों तक को बुरी तरह पीटने  वाले वकीलों पर तो इस कथित बहादुर पुलिस ने आत्म रक्षा में भी पलट कर वार नहीं किया। उस समय जिस पुलिस के हाथों में लकवा मार गया था वहीं पुलिस आम आदमी पर खुल कर हाथ छोड़ती है।

IPS खाकी को ख़ाक मत मिलाओ-
यह पुलिस आम आदमी पर ही डंडे बरसा कर बहादुरी दिखा सकती। वरना इस पुलिस के आईपीएस कितने बहादुर है यह सारी दुनिया ने उस वीडियो में देखा है जब भाजपा सांसद मनोज तिवारी ने उत्तर पूर्वी जिले के तत्कालीन डीसीपी अतुल ठाकुर को गिरेबान से पकड़ा और एडिशनल डीसीपी राजेंद्र प्रसाद मीणा को खुलेआम धमकी दी। तब पुलिस कमिश्नर और इन आईपीएस अधिकारियों की हिम्मत मनोज तिवारी के खिलाफ एफआईआर तक दर्ज करने की नहीं हुई।

जागो IPS जागो -
किसी के भी पिटने पर किसी को ख़ुश नहीं होना चाहिए लेकिन वकीलों ने पुलिस को पीटा तो लोग खुश हुए। आईपीएस अफसरों को इस पर चिंतन कर पुलिस का व्यवहार सुधारने की कोशिश करनी चाहिए। वरना ऐसी आशंका है कि एक दिन ऐसा भी हो सकता है कि पुलिस के अत्याचार से परेशान हो कर आम आदमी भी डंडे बरसाने वाली पुलिस पर आत्म रक्षा में पलटवार करने लगेगा। इस सबके लिए सिर्फ और सिर्फ आईपीएस अफसर ही जिम्मेदार होंगे।
पुलिस को अपनी बहादुरी और मर्दानगी दिखाने की हिम्मत और शौक है तो अपराध करने, कानून तोड़ने वाले नेताओं/रईसों और गुंडों पर  दिखाएं।
गुंडों, शराब माफिया तक से पिटने वाली पुलिस द्वारा वर्दी के नशे में आम शरीफ़ आदमी पर अत्याचार करना बहादुरी नहीं होती।

पुलिस कानून हाथ में लेने वाले ताकतवर लोगों और खास समुदाय के खिलाफ कार्रवाई नहीं करती।
इन मामलों से यह पता चलता है

कमजोर को पीटती और ताकतवर से पिटती पुलिस--

आईपीएस अफसर भी गुलाम की तरह पुलिस का इस्तेमाल करते है।-- 
देश की राजधानी दिल्ली में ही पुलिस जब नेता के लठैत की तरह काम करती है तो बाकी देश के हाल का अंदाजा लगाया जा सकता है। 4-6-2011 को रामलीला मैदान में रामदेव को पकड़ने के लिए सोते हुए औरतों और बच्चों पर तत्कालीन पुलिस आयुक्त बृजेश कुमार गुप्ता और धर्मेंद्र कुमार के नेतृत्व में पुलिस ने लाठीचार्ज और आंसू गैस का इस्तेमाल कर फिरंगी राज को भी पीछे छोड़ दिया। उस समय ये अफसर भूल गए कि पेशेवर निष्ठा,काबलियत को ताक पर रख कर लठैत की तरह लोगों पर अत्याचार करने का खामियाजा भुगतना भी पड़ सकता है। इसी लिए प्रमुख दावेदार होने के बावजूद अन्य कारणों के साथ इस लठैती के कारण भी धर्मेंद्र कुमार का दिल्ली पुलिस कमिश्नर बनने का सपना चूर चूर हो गया। 
धर्म ना देखो अपराधी का -- 
रामलीला मैदान की बहादुर पुलिस को 21 जुलाई 2012 को सरकारी जमीन पर कब्जा करके मस्जिद बनाने की कोशिश करने वाले गुंड़ों ने दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। माहौल बिगाड़ने के लिए जिम्मेदार बिल्डर नेता शोएब इकबाल के खिलाफ पुलिस ने पहले ही कोई कार्रवाई नहीं की थी। जिसका नतीजा यह हुआ कि गुंड़ों ने पुलिस को पीटा, पथराव और आगजनी की। लेकिन अफसरों ने यहां गुंड़ों पर भी  रामलीला मैदान जैसी मर्दानगी दिखाने का आदेश पुलिस को  नहीं दिया। इस तरह आईपीएस अफसर भी नेताओं के इशारे पर पुलिस का इस्तेमाल कहीं बेकसूरों को पीटने के लिए करते है तो कहीं गुंड़ों से भी पिटने देते है। अफसरों की इस तरह की हरकत से निचले स्तर के पुलिसवालों में रोष पैदा हो जाता है।
बुखारी का भी बुखार क्यों नहीं उतारती सरकार ---दिल्ली पुलिस ने जामा मस्जिद के इमाम को सिर पर बिठाया हुआ है। कोर्ट गैर जमानती वारंट तक भी जारी करती रही हैं लेकिन दिल्ली पुलिस कोर्ट में झूठ बोल कह देती है कि इमाम मिला नहीं। जबकि इमाम पुलिस सुरक्षा में रहता है। मध्य जिले में तैनात रहे कई डीसीपी  तक इमाम अहमद बुखारी को सलाम  ठोकने जाते रहे हैं। दिल्ली पुलिस में आईपीएस कर्नल सिंह ने ही  इमाम की सुरक्षा कम करने की हिम्मत दिखाई थी। शंकराचार्य जैसा व्यक्ति जेल जा सकता है तो इमाम क्यों नहीं? एक मस्जिद के अदना से इमाम को सरकार द्वारा सिर पर बिठाना समाज के लिए खतरनाक है। इमाम को भला पुलिस सुरक्षा देने की भी क्या जरूरत है। कानून सबके लिए बराबर  होना चाहिए। अहमद बुखारी के खिलाफ कितने आपराधिक मामले दर्ज हैं इसका भी खुलासा सरकार को करना चाहिए।



            दैनिक बन्दे मातरम 13-12-2020

Tuesday 24 November 2020

IPS समीर शर्मा के स्टाफ पर वसूली का आरोप। समीर शर्मा की भूमिका पर सवालिया निशान। कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव ने दिए जांच के आदेश।


                          समीर शर्मा
कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव ने दीवाली से पहले  जांच के आदेश दिए थे। लेकिन अभी तक जांच  चल ही रही है ?

                

इंद्र वशिष्ठ

पश्चिम जिले में पुलिस द्वारा सट्टेबाजों से लाखों रुपए वसूलने की कोशिश का मामला सामने आया है।
इस मामले में पश्चिम जिले के एडिशनल डीसीपी समीर शर्मा के निजी स्टाफ के शामिल पाए जाने से पुलिस महकमे में हंगामा मच गया है। एडिशनल डीसीपी समीर शर्मा की भूमिका पर सवालिया निशान लग गया है। 
पुलिस कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव ने दीवाली से पहले इस मामले की जांच के आदेश दिए थे। लेकिन अभी तक जांच पूरी ही नहीं हुई है ?
 सतर्कता विभाग के अलावा पश्चिम जिले के डीसीपी दीपक पुरोहित द्वारा भी मामले की जांच की जा रही है। एडिशनल डीसीपी समीर शर्मा इस समय हैदराबाद कोर्स पर गए हुए है।

दीवाली पर वसूली-
पुलिस सूत्रों के अनुसार दीवाली से ठीक पहले  सुभाष नगर में कुछ पुलिस वालों ने एक घर में छापा मारा था। छापेमारी में सिपाही ललित और सब-इंस्पेक्टर विकास आदि शामिल थे। वहां से बरामद लाखों रुपए की गिनती करते हुए विकास के दफ्तर का सीसीटीवी फुटेज भी अफसरों को मिला है।
सूत्रों के अनुसार वहां से करीब 26-30 लाख रुपये बरामद हुए थे। इन पुलिस वालों ने 15-20 लाख रुपए लेकर सट्टेबाजों को छोडने की बात  की। इसके बाद पुलिस वालों ने कुछ रकम बरामद दिखाने और मामला दर्ज करने की बात की।
सूत्रों के अनुसार इसी दौरान सट्टेबाज के परिवार ने  पुलिस कंट्रोल रुम और अपने जानकर अफसरों को फोन कर दिया कि पुलिसकर्मियों द्वारा पैसा वसूली और मारपीट की जा रही है। 
सूत्रों के अनुसार सट्टेबाजों का जानकार ट्रैफिक पुलिस का एक इंस्पेक्टर भी इन पुलिस वालों के पास गया और उनकी अवैध  कार्रवाई का विरोध किया।
पुलिस कमिश्नर की जानकारी में मामला आ गया।
यह पता चलते ही पश्चिम जिले के स्पेशल स्टाफ की तरफ से राजौरी गार्डन थाने में सट्टेबाजी का मामला दर्ज कर अंकित को गिरफ्तार दिखा दिया गया। पुलिस ने इस मामले में 25 लाख 40 हजार रुपए बरामद बताए है।
कमिश्नर ने पहले इस मामले की जांच द्वारका के डीसीपी संतोष मीणा को सौंपी थी।
सूत्रों के अनुसार अब पश्चिम जिले के डीसीपी दीपक पुरोहित द्वारा मामले की जांच की जा रही है।
जिस दिन छापेमारी की गई थी उस दिन डीसीपी दीपक पुरोहित छुट्टी पर थे। एडिशनल डीसीपी समीर शर्मा काम देख रहे थे।
सिपाही सिक्योरिटी से वसूली करने पहुंच गया-
सूत्रों के अनुसार हैरानी की बात यह है कि सिपाही ललित की पोस्टिंग सिक्योरिटी ब्रांच में है। किसी मामले में शिकायत पर ही ललित का सिक्योरिटी में तबादला किया गया था।
सिपाही ललित एडिशनल डीसीपी समीर शर्मा का चहेता बताया जाता है। इसीलिए सिपाही ललित को सिक्योरिटी से कोविड सेंटर की डयूटी के बहाने से  हरि नगर थाने में  बुला लिया गया।  ललित की करतूत का पता चलते ही हरिनगर थाने के एस एच ओ जीत सिंह ने उस दिन उसकी डयूटी से गैर हाजिरी लगवा दी। सिक्योरिटी में तैनात सिपाही ललित का छापेमारी करने जाने से साफ लगता है कि वह वसूली की नीयत से गए थे।
ललित सिक्योरिटी/ कोविड सेंटर पर डयूटी करता था या एडिशनल डीसीपी समीर शर्मा की सेवा में रहता था। इसका खुलासा ललित के मोबाइल फोन रिकॉर्ड, लोकेशन और दफ्तर आदि जगहों पर लगे सीसीटीवी फुटेज से भी आसानी से हो जाएगा।
सब-इंस्पेक्टर विकास एडिशनल डीसीपी समीर शर्मा के दफ्तर में स्टाफ अफसर( एस ओ) के रुप में तैनात है।
सूत्रों के अनुसार विकास ने जांच के दौरान डीसीपी दीपक पुरोहित को बताया है कि वह एडिशनल डीसीपी समीर शर्मा के आदेश पर छापा मारने गए थे।
एसीपी सट्टा पकड़ रहा था इंस्पेक्टर पटाखे-
राजौरी गार्डन थाने में  सट्टेबाजी का मुकदमा खुद दर्ज कराने वाले जिले के एसीपी (आपरेशन) सुदेश रंगा ने इस बारे में कुछ भी बताने से इनकार कर दिया। एसीपी ने सिर्फ इतना बताया कि इंस्पेक्टर नरेंद्र के पास मामले की जांच है। 
दूसरी ओर इंस्पेक्टर नरेंद्र ने कहा कि दीवाली से पहले उन्होंने सिर्फ पटाखे वगैरह पकड़े थे। सट्टे का मामला तो एसीपी ने दर्ज कराया है। 
सुभाष नगर इलाके में चल रहे सट्टे के धंधे ने राजौरी गार्डन थाना पुलिस की भूमिका पर भी सवालिया निशान लगा दिया है।
 मामला गडबड है ?
इन सब बातों से साफ अंदाजा लगाया जा सकता है कि एडिशनल डीसीपी समीर शर्मा के स्टाफ ने वसूली की नीयत/ इरादे से सट्टेबाज के घर छापा मारा। सट्टेबाज के परिवार ने पुलिस कंट्रोल रुम /अफसरों को शिकायत कर दी। इसके बाद इन पुलिस वालों को बचाने के लिए इंस्पेक्टर को दरकिनार कर एसीपी से एफआईआर दर्ज करवा दी गई।
मोबाइल फोन राज खोल देगें- 
सुभाष नगर में अंकित के घर और आसपास लगे सीसीटीवी फुटेज से भी साफ पता चल जाएगा कि इस कथित छापेमारी में ललित के साथ कौन कौन था। एडिशनल डीसीपी समीर शर्मा, ललित ,विकास और स्पेशल स्टाफ के एसीपी और इंस्पेक्टर के मोबाइल फोन रिकार्ड/ लोकेशन और सीसीटीवी फुटेज से यह सच सामने आ जाएगा कि कौन किस समय, कहां और किस किस के संपर्क में था।
आईपीएस समीर शर्मा की भूमिका-
जिले में कोई भी मुकदमा डीसीपी की अनुमति या जानकारी के बिना दर्ज नहीं किया जाता। मातहतों द्वारा छापेमारी की सूचना भी पहले वरिष्ठ अफसरों को दी जाती है।
 डीसीपी दीपक पुरोहित तो कोरोना ग्रस्त होने के कारण उस दिन छुट्टी पर थे। इसलिए इस मामले में एडिशनल डीसीपी समीर शर्मा की भूमिका पर सवालिया निशान लग गया है। एडिशनल डीसीपी समीर शर्मा के एसओ और चहेते ललित के शामिल पाए जाने से यह मामला काफी गंभीर हो गया है। 
सूत्रों का कहना है कि समीर शर्मा और ललित के "घनिष्ठ" संबंधों के बारे में पुलिस कमिश्नर को पहले भी बताया जा चुका है। लेकिन आईपीएस द्वारा आईपीएस को बचाया ही जाता है।
देखना है कि पुलिस कमिश्नर इस मामले में भी एडिशनल डीसीपी शर्मा के समीर के खिलाफ कार्रवाई करते हैं या नहीं।

पुलिस आयुक्त ने एंटो को बख्श दिया-
पुलिस कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव ने द्वारका जिले के डीसीपी के तीन कम्प्यूटर ले जाने वाले डीसीपी के खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत दिखाने की बजाए उसे बख्श दिया।
इस मामले ने पुलिस कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव की पेशेवर काबिलियत/भूमिका पर  सवालिया निशान लगा दिया है।
 काबिल और दबंग कमिश्नर ही निरंकुश आईपीएस, बेखौफ अपराधियों और पुलिस मेंं व्याप्त भ्रष्टाचार अंकुश लगा सकता है।
अमानत में ख्यानत -
 द्वारका जिले के डीसीपी के दफ्तर से टच स्क्रीन वाले तीन कम्प्यूटर अगस्त में अपने तबादले के साथ ही डीसीपी एंटो अल्फोंस द्वारा ले जाए जाने का खुलासा इस पत्रकार ने 8 नवंबर को किया था। यह कम्प्यूटर बिना किसी लिखित अनुमति/आदेश के ले जाए गए थे। इस तरह यह मामला अमानत में ख्यानत के तहत अपराध का बनता है।
इस पत्रकार द्वारा यह खुलासा करने से लाखों रुपए मूल्य के सरकारी कम्प्यूटर बच गए वरना कभी यह पता ही नहीं चलता कि कम्प्यूटर कौन ले गया। इस तरह ही घपले होते हैं।
अगर कोई काबिल दमदार कमिश्नर होता तो एंटो अल्फोंस के खिलाफ तुरंत कड़ी कार्रवाई करता।
पुलिस आयुक्त की भूमिका पर सवाल-
मामला उजागर होने के बाद एंंटो को कानूनी/ विभागीय कार्रवाई से बचाने के लिए कम्प्यूटर उनको री एलोकेट दिखा दिए गए।जबकि 8 नवंबर को एंटो अलफोंस ने खुद इस पत्रकार से कहा था कि वह कम्प्यूटर नहीं लाए।
वैसे कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव ने तो दानिप्स सेवा के पूर्वी जिले के उस एडशिनल डीसीपी संजय कुमार सहरावत तक के खिलाफ कार्रवाई नहीं की जिसके खिलाफ जाली जन्म प्रमाण से नौकरी हासिल करने के आरोप में सीबीआई ने केस दर्ज किया है। लोदी कालोनी थाने में हिरासत में मौत के संगीन मामले में भी एस एच ओ को नहीं हटाया गया।
दो करोड़ वसूली में ए एस आई गिरफ्तार-
बीस नवंबर को ही दक्षिण जिला पुलिस ने ए एस आई राजबीर सिंह को हौजखास निवासी बिल्डर से दो करोड़ रुपए की जबरन वसूली के मामले में गिरफ्तार किया। पीसीआर में तैनात वीरता पदक विजेता राजबीर ने हरियाणा के बदमाश प्रमोद उर्फ काला के साथ मिलकर वसूली की साजिश रची थी।
शराब माफिया से 5 लाख मांगे-
इसके पहले सीबीआई ने तिलक नगर के सिपाही जितेंद्र को शराब माफिया से पांच लाख रुपए रिश्वत मांगने के मामले में गिरफ्तार किया था।