Friday 23 December 2011

पुलिस का राजनीतिकरण

पुलिस यानी सत्ता के लठैत, 
 
इंद्र वशिष्ठ
पुलिस किस तरह सत्ताधारियों के राजनीतिक मकसद को पूरा करने के लिए ही कार्य  करती है इसका अंदाजा दिल्ली पुलिस के तीन काले कारनामों से ही लगाया जा सकता है। अमर सिंह को गिरफतार न करना,अन्ना और रामदेव के खिलाफ कार्रवाई करना पूरे देश में पुलिस और सत्ता की असली तस्वीर दिखाने के लिए काफी है। अमर सिंह को कोर्ट ने जेल भेजा, उसे पुलिस ने पहले गिरफतार नहीं किया। अन्ना को पहले गिरफतार किया, फिर कुछ ही घंटों में खुद ही जेल से रिहा कराया और अनशन की इजाजत भी दे दी। रामदेव के मामले में तो पुलिस ने गदर ही कर दिया। सत्ता के इशारे पर कठपुतली की तरह नाचने वाली पुलिस में ईमानदारी और निष्पक्षता की जबरदस्त कमी के कारण ही आम आदमी को उस पर भरोसा नहीं  है।
पुलिस की बर्बरता-रामलीला मैदान में आधी रात को सोते हुए लोंगों पुलिस की बर्बरतापूर्ण कार्रवाई किसी भी तरह से सही नहीं ठहराई जा सकती है। इस घटना में घायल हुई राजबाला की 26 सितंबर को अस्पताल में मौत हो गई। पुलिस ने कहा कि राजबाला भगदड़ में घायल हुई थी। लेकिन इस बयान से पुलिस का अपराध कम नहीं हो जाता। पुलिस के इस बयान को ही अगर सही मान लिया जाए तो सवाल उठता है कि भगदड किस वजह से हुई थी? इसका बिलकुल स्पष्ट उत्तर जगजाहिर है कि पुलिस के लाठीचार्ज और आंसूगैस के गोले दागने से ही भगदड़  हुई थी।
 स्टन गैस शैल- पुलिस ने स्टन गैस शैल के गोले दागे थे। जबरदस्त धमाके की आवाज के  साथ फटने वाले इस गोले के टुकडे़ चिनगारी  और धुंए के साथ निकलते है। इसी वजह से पंडाल में आग लगी थी, आग लगने की आशंका के कारण ही इन गोलों को बंद स्थान पर चलाने की मनाही  है फिर भी पुलिस ने रामलीला मैदान के सिर्फ एक गेट खुले और बंद पंडाल में ये गोले चलाए। सूत्रों के अनुसार पहले मैदान को रात डेढ़ बजे खाली कराने की योजना बनी थी,लेकिन फिर अचानक न जाने ऐसा क्या हुआ कि पुलिस ने एक बज कर दस मिनट पर ही एक्शन शुरु कर दिया।
 गलत नीयत और राजनीतिक मकसद - पुलिस चाहे जो तर्क दे लेकिन राजबाला की मौत के लिए पुलिस  ही जिम्मेदार है। अपराध के मामले में अपराधी की नीयत (इंटेंशन ) यानी इरादा और उसके मकसद( मोटीव ) आदि के  आधार पर कोर्ट सजा तय करती है। आधी रात को पुलिस की कार्रवाई से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि पुलिस ने राजनेताओं के मकसद को पूरा करने के लिए ही गलत नीयत से कार्य किया था। इस तरह पुलिस ने  अपराध किया है।
 फिरंगी कानून/पुलिस- इस तरह की अमानवीय कार्रवाई सरकारें करती रहेगी  जब तक फिरंगियों के बनाए कानून और पुलिस व्यवस्था में बदलाव या सुधार  नहीं किया जाएगा। क्योंकि  किसी भी दल की सरकार हो वह पुलिस को अपने लठैतों की तरह रखना चाहती है। ताकि अपने विरोधियों को डंडे के दम पर कुचल सकें। इसीलिए लोगों का दमन करने और उन पर राज करने के लिए बनाए फिरंगियों के कानून आजादी के बाद भी जारी है। सत्ता में चाहे कोई भी दल हो किसी की भी नीयत इन काले कानूनों को बदलने और पुलिस में सुधार करने की नहीं रहीं । इसीलिए धर्मवीर आयोग की पुलिस में सुधार के लिए दी गई रिपोर्ट सालों से धूल खा रही हैं। सुप्रीम कोर्ट द्धारा पुलिस में सुधार के लिए दिए गए निर्देशों पर भी सरकारें पूरी तरह अमल नहीं कर रही है। किसी भी राजनैतिक दल को पुलिस की ज्यादतियों पर आवाज उठाने की याद सिर्फ उस समय आती है जब वह विपक्ष में होते है। सत्ता में सब उसी कानून और पुलिस के सहारे अपना राज कायम  रखना चाहते है।  इसके लिए जिम्मेदार है नेताओं की फिरंगियों वाली सोच। संविधान के अनुसार तो वे जनप्रतिनिधि है।लेकिन सत्ता मिलते ही वे गिरगिट की तरह रंग बदल कर  मालिक बन बैठते है ये सोच ही सभी समस्याओं की जड़ है।
तलुए चाटते  अफसर -सत्ता के अहंकार  में चूर नेता भ्रष्ट अफसरों के बलबूते ही इस तरह की पुलिसिया कार्रवाई  कराते है।  ऐसे अफसर ही पुलिस कमिश्नर या डीजी बनने के लिए नेताओं के तलुए चाटते है। नेता की सेवा का फल उसे रिटायरमेंट के बाद भी मिलता है।  भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना है तो अफसरों की नियुकित  प्रकि्रया पूरी तरह पारदर्शी और काबलियत के आधार पर हीं होनी चाहिए। नौकरशाह और पुलिस अफसरों को रिटायरमेंट के बाद गर्वनर या अन्य किसी पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए। लेकिन ये सब होगा कैसे ये सबसे बडा सवाल है इस समय तो सुप्रीम कोर्ट से ही उम्मीद की थोडी बहुत किरण नजर आती है। जुल्म ढहाने वाले अफसरों के खिलाफ जब तक कड़ी कार्रवार्इ नहीं होगी वे सरकार यानी नेताओं के निजी लठैत बने रहेंगें। पुलिस के बढ़ते राजनीतिकरण पर अगर अभी से अकुंश नहीं लगाया गया तो पुलिस अत्याचार करने में अंग्रेजों की पुलिस को भी पीछे छोड़ देगी।

कांग्रेस के अनेक चेहरे - हरियाणा में कुछ समय पहले हत्या के  आरोपी पूर्व एमएलए ने अपने हथियारबंद साथियों के दम पर पुलिस और कानून का कई दिनों तक खुल कर मखौल उडाया और पुलिस मूक दर्शक बनी रही। बाद में जुलूस के साथ जाकर उसने अपनी मर्जी से समर्पण किया। राजस्थान में आरक्षण की मांग को लेकर गुजरों ने 
कई दिन तक रेल पटरी और सडकों पर रास्ता रोके रखा। जिसकी वजह से आम लोगों को परेशानी का सामना करना पडा। मुंबई में राजठाकरे के बदमाशों ने यूपी-बिहार के लोगों को वहां से भगाने के लिए  मारपीट  कर कानून का मजाक उडाया। इन तीनों  राज्यों में कांग्रेस की ही सरकारें हैं इन सभी जगहों पर सरकार ने धारा 144 लगा कर कार्रवार्इ क्यों नहीं की? वहां पर कानून व्यवस्था कायम रखने के लिए पुलिस एक्शन क्यों नहीं लाजिमी हुआ? जबकि रामलीला मैदान की अमानवीय कार्रवाई के बारे में तो मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि कानून व्यवस्था कायम रहनी चाहिए, इसलिए ये एक्शन लाजिमी था। दूसरी ओर महाराष्ट्र में ही पुलिस ने बेकसूर किसानों को  गोली तक मार  दी।  यू पी पुलिस ने भी भटठा परसौल में किसानों पर  अत्याचार किए। इन मामलों से ही स्पष्ट है कि नेता राजनीतिक मकसद से पुलिस का इस्तेमाल लठैतों की तरह करते है।

Thursday 8 December 2011

हाथ छोड़ते कांग्रेसी, दिग्विजय सिंह, आरपीएन सिंह, जितिन प्रसाद के कारनामे।



इंद्र वशिष्ठ
गांधी के वारिस होने का दावा करने वाली कांग्रेस का हाथ अब दिनोंदिन आम आदमी पर उठने  लगा है। कांग्रेस सरकार के मंत्री और महासचिव तक हाथ छोड़ने में अपने चमचों तक को पीछे छोड़ रहे है। कुछ दिन पहले इलाहाबाद में राहुल गांधी को काले झंड़े दिखाने वाले युवक को पीटते हुए  केंद्र सरकार के दो मंत्री जितिन प्रसाद. आरपीएन सिंह और यूपी के नेता प्रमोद तिवारी  दिखाई दिए।  करीब 6महीने पहले कांग्रेस मुख्यालय में कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह को एक युवक की पिटाई करते न्यूज चैनलों पर दुनिया ने देखा था। खुद को गांधीवादी  कहने का ढ़ोंग करने वाले कांग्रेस के मंत्रियों और महासचिव के ये असली चेहरे है।
पीटना नेताओं का विशेषाधिकार?- संसद/विधान सभाओं  तक में नेता मारपीट करें या गालियां दे तो उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होती। कश्मीर में विधानसभा में स्पीकर ने गालियां बकी और जबाव में पीडीपी नेता ने स्पीकर की ओर पंखा फेंका। दिल्ली विधानसभा में एमएलए शोएब इकबाल ने सदन में जोरदार गालियां बकी सबने सुनी.लेकिन स्पीकर योगानंद शास्त्री ने कह दिया कि उन्होंने तो सुनी ही नहीं। दोनों मामले मुस्लिम समुदाय के थे इसलिए वोट के खातिर नेताओं ने उनके खिलाफ कार्रवाई की मांग तक नहीं की।  तीन दिन तक संसद न चलने देने वाले विपक्ष ने भी शरद पवार को थप्पड़ मारने के मामले की निंदा करने  के लिए संसद चलने दी। जनार्दन द्विवेदी को सिर्फ जूता दिखाने वाले युवक को कांग्रेसी नेताओं द्वारा पीटने और गिरफतार कराने के मामले की विपक्ष ने  निंदा तक नहीं की। कल तक गांधीवादी कांग्रेस में रहें शरद पवार ने भी गांधी के क्षमा करने की बात पर अमल करना तो दूर. बल्कि  यह पक्का किया कि उस युवक को जल्दी रिहा न किया जाए। इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि मामूली से इस मामले में मुंबई से आए वकील माजिद मेमन ने पवार की ओर से पैरवी की। मेमन ने उस युवक को समाज के लिए खतरा बताया और उसे रिहा न करने की बात कही। महाराष्ट्र में किसानों पर गोली चलाने वाली पुलिस और यूपी- बिहार के लोगों की पिटाई करने वाले राजठाकरे के गुंड़ों के खिलाफ भी क्या मेमन कोर्ट में खड़े होंगे?  दूसरी ओर पवार समर्थक एक युवक ने न्यूज चैनलों के सामने थप्पड मारने वाले युवक हरविंदर की एक महीने में हत्या करने की धमकी दी उसे तो पुलिस ने गिरफतार भी नहीं किया। शरद यादव ने राष्ट्रपति भवन और राजनिवास को बूढ़े बैलों (नेताओं)  का ठिकाना बताया तो किसी दल ने उसकी निंदा तक नहीं की। 1984 के दंगों की दागी कांग्रेस और गुजरात दंगों की दागी भाजपा द्वारा थप्पड़ मामले में संसद में निंदा करना हास्यास्पद है। अपराध तो अपराध है करना वाला चाहे कोई भी क्यों न हों। लेकिन समस्या यह है कि नेता अपने किए को तो अपराध मानते ही नहीं. दूसरी ओर  आम आदमी का तो गुस्से में उठाया हुआ कदम भी उनको अपराध नजर आता है।
सत्ता के साथ पत्रकार-कांग्रेस मुख्यालय में  जनार्दन द्विवेदी को जूता दिखाने के मामले में तो पुलिस, नेता और पत्रकारों की असलियत एक बार फिर उजागर हुई। राजस्थान का सुनील कुमार जनार्दन  द्विवेदी के पास गया और जूता निकाल कर उनको दिखाने लगा। द्विवेदी इस पर कोई प्रतिक्रिया व्यकत करते इसके पहले ही एक पत्रकार आगे बढा उसने सुनील को पकडा और उसकी पिटाई करने लगा यह देख कर कुछ और पत्रकार भी सुनील को पीटने लगे। न्यूज चैनलों में यह दिखाया गया कि सुनील को पीटने वालों में कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह भी शामिल थे। किसी को भी किसी की पिटाई करने का कोई हक नही और साथ ही यह अपराध भी है। ऐसे में कुछ पत्रकारों द्वारा की गई यह हरकत शर्मनाक तो है ही अपराध भी है। ऐसे करने वाले पत्रकार कहलाने के हकदार नही है। ये पत्रकार के रुप में नेताओं के चमचे है । पत्रकार होते तो सुनील कुमार से बात कर ये पता लगाने की कोशिश करते कि उसने जूता दिखा कर विरोध प्रकट करने जैसा कदम क्यों और किन हालात में उठाया। बाकी सुनील की हरकत पर कार्रवाई करने का फैसला उस नेता और पुलिस पर छोड देते। लेकिन पत्रकारों ने तो खुद ही कानून अपने हाथों में ले लिया। ऐसा सिर्फ वे कथित पत्रकार करते है जो अपने स्वार्थपूर्ति के लिए नेताओं के तलुए चाटते है। द्विवेदी ने भी सुनील को पीटने वालों को रोका नही। दूसरी और दिग्विजय तो पिटाई करने वालों में शामिल दिखाए गए।
पुलिस की भूमिका; पुलिस का कहना था कि पुलिस नियंत्रण कक्ष को  मिली सूचना के आधार पर सुनील को सीआरपीसी की धारा 107/151 के तहत गिरफतार किया गया। धारा 151 के अनुसार पुलिस संज्ञेय अपराध को होने से रोकने के लिए एहतियातन गिरफतार कर सकती है। शांति भंग करने पर धारा 107 लगाई जाती है। लेकिन सवाल यह है कि सुनील ने कोई संज्ञेय अपराध तो किया नहीं था। ऐसे मामलों  को सामान्यत  पुलिस अंसज्ञेय अपराध की श्रेणी में दर्ज करके उसकी रिपोर्ट  मजिस्टे्ट के मांगने पर पेश करती है। मजिस्ट्रेट  उस पर कार्रवाई करता है। असंज्ञेय अपराध के मामले में पुलिस अपने आप गिरफतार नहीं करती। लेकिन इस मामले में पुलिस ने अपने आका नेताओं को खुश करने के लिए बिना नेता से शिकायत लिए अपने आप ही धारा 107/151 के तहत कार्रवाई का तरीका अपनाया  ताकि  सुनील को गिरफतार कर जेल भेजा जा सके। एक और तो पुलिस आम आदमी की रिपोर्ट तक आसानी से दर्ज नहीं  करती दूसरी और मामला सत्ताधारी  नेता का हो तो 100 नंबर पर मिली सूचना के आधार पर ही कार्रवाई कर देती है। पुलिस अगर स्वतंत्र,निष्पक्ष और ईमानदार होती तो कानून का पालन करती और उन कथित पत्रकारों और नेताओं को भी गिरफतार करती जिन्होंने ने सुनील को पीटने का अपराध किया। न्यूज चैनलों पर देश और पूरी दुनिया ने उनको सुनील की पिटाई करते देखा। पिटाई करने वालों के खिलाफ कार्रवाई के लिए इससे बडा और स्पष्ट सबूत और क्या हो सकता है। लेकिन पुलिस ने उसे अनदेखा कर  सिर्फ सुनील के खिलाफ एकतरफा कार्रवाई  कर दी। पुलिस को द्विवेदी से शिकायत लेकर आईपीसी की असंज्ञेय अपराध की धारा के तहत मामला दर्ज करना चाहिए था। तब  कोर्ट में शिकायतकर्ता द्विवेदी को भी जाना पडता। सत्ताधारियों के मन मुताबिक  पुलिस कार्रवाई करती है। इसलिए कोई भी दल सत्ता में हो वह पुलिस को स्वतंत्र नहीं रखना चाहता है।
 जैसा राजा वैसी प्रजा - सुखराम,शरद पवार को थप्पड़ मारने और गृह मंत्री चिदम्बरम को जूता मारने वाले संयोग से सिख थे । अगर वह हिंदू होते तो बिना वैरीफाई किए कांग्रेस तुरन्त कह देती कि आरएसएस के है। जैसे  कांग्रेस ने बिना जांच पडताल तुरन्त सुनील को आरएसएस का आदमी बता दिया था। पत्रकार जरनैल सिंह ने गृह मंत्री पर जूता फेंका था।  सिख दंगों के आरोपियों को टिकट देने के विरोध में उसने जूता फेंका था। उस समय सिखों की वोट की खातिर कांग्रेस ने किसी संगठन पर कोई आरोप नहीं लगाया बल्कि दो नेताओं के टिकट काट दिए। भारत में नेताओं पर जूते फेंकने का सिलसिला तब से जारी है ।  किसी संगठन पर आरोप लगा देने या नेताओं द्वारा सिर्फ ऐसी घटना की निन्दा कर देने से समस्या समाप्त नहीं होने वाली।सभी दलों के नेताओं को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। संसद और विधान सभाओं में  जूतम पैजार, मारपीट और तोडफोड तक की  हरकतें करने वाले नेताओं द्वारा इस तरह के मामलों कि निन्दा करना हास्यास्पद और दिखावा है। भ्रष्ट नेताओं के कारण  लोगों के मन में उनके लिए गुस्सा भर गया है। इस लिए सुनील जैसा आम आदमी ही नही पत्रकार भी अपना गुस्सा प्रकट करने के लिए जूते का सहारा ले रहा है।  इसके लिए नेता जिम्मेदार है।  नेताओं को  इन घटनाओं से सबक लेकर अपना आचरण;व्यवहार और चरित्र सुधार लेना चाहिए। कयोंकि जैसा राजा वैसी प्रजा होती है । नेता ईमानदार होंगे तभी लोग उनकी इज्जत करेंगे।

Wednesday 16 November 2011

सरकार यानी आइपीएल टीम

  



 सरकार --- कंपनी मालामाल लोग कंगाल --सरकार राज या कंपनी राज
इंद्र वशिष्ठ
बहुजन हिताय.बहुजन सुखाय-कांग्रेस का हाथ आम आदमी  के साथ या गरीबी हटाओं के नारे देकर सालों से लोगों के वोट लेकर सत्ता पाने वाली कांग्रेस के हाल के शासन में तो ये सब कहीं नजर नहीं आता है अब तो लगता है कि कांग्रेस का राज कंपनी हिताय -कंपनी सुखाय और सिर्फ कंपनियों के लिए ही है। इस समय भ्रष्टाचार और बेकाबू मंहगाई ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के अर्थशास्त्री और ईमानदार होने पर भी सवालिया निशान लगा दिया है। सरकार के अहम फैसले देखें तो लगता ही नही कि ये जनता के लिए जनता के द्धारा चुनी हुई सरकार है। लगता है कि   उद्योग घरानों के चुने हुए लोग सरकार चला रहें है। फिरंगियों की ईस्ट इंडिया कंपनी की तरह कांग्रेस भी अब इंडियन कांग्रेस कंपनी या कारपोरेट कांग्रेस या सी कंपनी  की तरह ही कार्य कर रही है। कांग्रेस की मुखिया भी संयोग से विदेशी है।  
खून चूसता करंट -दिल्ली में बिजली कंपनियों की लूट से लोग त्राहि-त्राहि कर रहे है लेकिन सीएम खुलेआम कंपनियों का पक्ष लेती रहती है। बिजली के निजीकरण में भ्रष्टाचार के आरोप खुद पीएसी के तत्कालीन चेयरमैन और कांग्रेस एमएलए डा एस सी वत्स ने अपनी रिपोर्ट में लगाए थे। लेकिन इस मामले में कोई जांच तक न कराए जाने से कांग्रेस की विदेशी अध्यक्ष सोनिया गांधी की भूमिका पर भी सवालिया निशान लग जाता है। कंपनियों ने मनमाने तरीके से गर्मियों में हुई बिजली की खपत को आधार बना कर बिजली का लोड बढ़ा दिया और बढ़ाए गए लोड के बिल लोगों से वसूल रहे है।  निजीकरण के बाद से बिजली की चोरी कम हो गई।  कई गुना  रेट बढ़ा कर कंपनियों ने अपना मुनाफा भी बढ़ा लिया। इसके बावजूद कंपनियां घाटा होने का नाटक करती है। सीएम उनकी हां में हां मिलाती रहती है। ऐसा लगता है कि शीला लोगों की नहीं कंपनियों की नुमाइंदा है। दिलचस्प बात यह है कि एनडीएमसी इलाके में बिजली पूरी  दिल्ली से सस्ती है। बिजली सस्ती देने के बाद भी एनडीएमसी को घाटा नहीं हो रहा। लेकिन वह देखने की बजाए दाम बढ़ाने के लिए सीएम नोएडा और गुड़गांव के बिजली दाम से तुलना   करती है। तेज भागते मीटरों से भी लुटे लोग परेशान है।
पुलिसिया बाजीगरी- बिजली कंपनी आंकड़ों की बाजीगरी से इस तरह घाटा दिखा रही है जैसे पुलिस अपराध को आंकड़ों से कम दिखाने के लिए अपराध के सभी  मामलों को दर्ज ही नहीं करती है ।
 करो सेवा मिलेगी मेवा - दिल्ली इलैकिट्रसिटी रेग्युलेटरी कमीशन में रहे कई बड़े  लोग  बाद में  उस  कंपनी से जुड़ गए जिसको उन्होंने उस समय फायदा पहंचाया और लोगों को चूना लगाने में कंपनी की मदद की। नेताओं के अलावा नौकरशाहों से सांठ-गांठ करने में रिलायंस तो शुरु से ही शातिर- माहिर  मानी जाती है।
 सरकार बनी आइपीएल टीम- आइपीएल में जैसे  क्रिकेट टीमों को बड़े उद्योग घराने खरीद लेते है। उसी तरह लगता है कि सरकार में भी उनकी टीमें है। कांग्रेस पार्टी की भूमिका  क्रिकेट बोर्ड या कंपनी जैसी हो गई  है। बोर्ड-खिलाडी और टीम खरीदने वाले मालिक तीनों का मकसद सिर्फ ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाना होता है यह दिलचस्प है कि मोटा पैसा कमाने के खेल के इस कारोबार को भी देश के लिए खेलना प्रचारित किया जाता है। ठीक इसी तरह सरकार बिजली कंपनियों या अन्य कंपनियों को सरकारी कार्य का ठेका देते हुए उसे जनहित में लिया गया फैसला बताती है।  बिजली के निजीकरण के समय जनता से प्रतियोगिता बढ़ने और सस्ती बिजली मिलने का वादा किया गया था। लेकिन अब कांग्रेस अपना वादा निभाने की बजाए कंपनियों के फायदे की बात करती है। पीएम हो या सीएम  बिजली के रेट या पेट्रोल के दाम बढ़ाने को जायज ठहाराते है तो वह बिलकुल आइपीएल के उस खिलाडी जैसे लगते है जिसका मकसद देश के नाम पर अपना.अपने बोर्ड ( कांग्रेस )और टीम के मालिक बड़े उधो गपतियों की तिजोरी को भरना होता है।
कोर्ट फटकारे.सीएम पुचकारे- सुप्रीम कोर्ट ने पिछले दिनों बिजली कंपनियों को फटकार लगाते हुए कहा कि अगर उन्हें मुशिकल हो रही तो वह सप्लाई का कार्य  छोड़  सकते है। देश में और भी कंपनियां है। जो यह काम कर सकती है।  कंपनियों को यह नहीं सोचना चाहिए कि उनके बिना काम नहीं चलेगा। कोर्ट ने कंपनियों की इस दलील को खारिज कर दिया कि उन्हें भारी घाटा हो रहा है। लेकिन इसके बाद भी शीला दीक्षित ने बिजली की दर बढ़ाने को जायज ठहराते हुए भविष्य में  फिर दाम बढ़ने के संकेत देने का बयान दे दिया। इससे ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि अपने और कंपनियों के हित के लिए ये बेशर्मी की हद तक जा सकते है। कोई कंपनी अगर लोगों की अपेक्षाओं पर पूरा नहीं उतर रही तो उसे हटा कर सरकार दूसरी कंपनियों कों इस कार्य के लिए बुला सकती है लेकिन सरकार तो ये सब तब करती न जब कंपनी वालों से उसकी कोई सांठ-गांठ न होती।  कांग्रेस के कई एमएलए भी जनता में अपनी छवि बनाने के लिए बिजली दरों के बढ़ने पर विरोध करने का सिर्फ नाटक करते है। क्या कोई उद्योगपति  घाटे का कारोबार करेगा? घाटे के कारोबार को वह जल्द से जल्द छोड़ देगा। दिलचस्प बात यह कि निजीकरण के बाद से ही कंपनियां घाटे का रोना रो रही है लेकिन उसे छोड़ नहीं रही है। इस बात से ही कंपनियों की नीयत पर संदेह होता है। सच्चाई  यहीं है कि कंपनियों को मुनाफा हो रहा है घाटा नहीं। फिर भी कंपनी सरकार के साथ साजिश कर लोगों को लूटने में लगी हुई है। 
पीएम भूल गए राजधर्म -पेट्रोल के दाम बढ़ाने को प्रधानमंत्री ने जायज ठहराया और कहा कि बाजार को अपने हिसाब से चलने देना चाहिए और तेल की कीमतों को ओर नियंत्रण मुक्त किए जाने की जरुरत है। अर्थशास्त्री पीएम का यह बयान हैरानी वाला है सामान्य सी बात है  बाजार का हिसाब तो वे बड़े-बड़े कारोबारी या कंपनियां तय करती है  जिनका एकमात्र लक्ष्य ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाना होता है। अगर सब कुछ कंपनियों ने ही तय करना है तो सरकार की भी क्या जरुरत है। कंपनी या व्यापारी मनमानी न कर सके इसी लिए तो सरकारी नियंत्रण की जरुरत होती है। कंपनियां लोगों को लूट न सके इस बात को देखना राज धर्म या सरकार का प्रमुख कर्तव्य नहीं होता ? कांग्रेस की विदेशी मुखिया के बनाए हुए  पीएम क्या राज धर्म की यह मूल बात भी नहीं जानते कि उनका सबसे पहला कर्तव्य और धर्म जनता के हित के लिए होना चाहिए न कि कंपनियों के हित में।  मंत्री बयान देते है  कि  तेल महंगा होने के बारे में सरकार में किसी को पहले से जानकारी नहीं थी ।  मंत्री जी अगर सच बोल रहे तो यह बात बड़ी ही गंभीर और सरकार की काबलियत पर सवालिया निशान लगा देती है कंपनियां क्या कर रही है क्या  वाकई इसके बारे में सरकार को कोई खबर नहीं रहती है? चाणक्य ने कहा था कि राजा वहीं सफल होता है जिसका खुफिया तंत्र मजबूत होता है। 2जी घोटाले ने तो एक बार फिर यह साबित कर दिया कि सरकारें कंपनियों के फायदे के लिए काम करती है।
महंगाई धीमी मौत-पेट्रोल के दाम बार-बार बढ़ाने पर केरल हााई कोर्ट ने सख्त रुख अपनाते हुए  कहा है कि सरकारें इस मसले पर अपनी जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड़ सकती । बढ़ती महंगाई धीमी मौत की तरह है। इसके विरोध के लिए सियासी दलों का इंतजार करने की बजाए लोगों को खुद सामने आना चाहिए।
कांग्रेस की कब्र -लंबे समय तक सत्ता का सुख/नशा अहंकारी बना देता है। अहंकार के कारण ही जनविरोधी फैसले लिए जाते है। कांग्रेस अगर अब भी नहीं चेती तो अपनी कब्र खोदने के लिए वह खुद ही जिम्मेदार होगी।

Friday 28 October 2011

IPS ले तो उपहार, दूसरा ले तो भ्रष्टाचार




पुलिस अपने दाग छिपाए औरों के दिखाए---

इंद्र वशिष्ठ
दिल्ली ट्रैफिक पुलिस की फेसबुक पर ट्रैफिक नियम तोड़ने वालों की पहचान का खुलासा करने पर हाईकोर्ट ने एतराज किया और कहा कि उस व्यकित की जानकारी को फेसबुक पर डालने की कोई जरुरत नहीं है। जिसके बाद ट्रैफिक पुलिस ने अब नियम तोड़ने वाले की पहचान का खुलासा फेसबुक पर करना बंद कर दिया है। हाईकोर्ट में सवाल उठने पर पुलिस ने यह कदम उठाया है। इसका मतलब है कि पुलिस अभी तक अपनी मर्जी से ऐसा कार्य कर रही थी जिसकी कानून इजाजत नहीं देता या कानून जिसे सही नहीं मानता है। ऐसे में उन अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए जो अब तक ऐसा कर रहे थे।
पुलिस का दोगलापन-इस मामले से एक अहम सवाल उठता है जो पुलिस की ईमानदारी-निष्पक्षता-पारदर्शिता और विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगा देता है और यहीं मुख्य वजह है कि लोग आज भी पुलिस  पर पूरी तरह से भरोसा नहीं करते। ट्रैफिक नियम तोड़ने वालों की पहचान फेसबुक पर उजागर कर वाहवाही लूटने वाली पुलिस अपने उन आला अफसरों की पूरी पहचान और करतूत का पूरा खुलासा अपनी वेबसाइट या फेसबुक पर क्यों नहीं करती जो भ्रष्टाचार-अपराध-बेकसूरों को फंसाने-बम विस्फोट जैसे मामलों को सुलझाने का भी झूठा दावा कर बारी से पहले तरक्की लेने आदि के गंभीर मामलों  में शामिल  है। असल में पुलिस हमेशा कमजोर आम आदमी के मामले का तो ढिंढोंरा पीट कर प्रचार करती है। लेकिन जहां मामला आला अफसर या वीआइपी नेता का हो तो पुलिस को सांप सूंघ जाता है और वह चुप्पी साध लेती है। पुलिस की इस दोगलेपन की भूमिका के कारण ही लोगों का पुलिस पर भरोसा नहीं है।


 छाज बोले सो बोले छलनी भी बोले जिसमें बहत्तर छेद- दूसरा पुलिस में महत्वपूर्ण पदो पर नियुक्ति पर ही सवालिया निशान लगते रहते है। अब ट्रैफिक पुलिस के  संयुक्त पुलिस आयुक्त सत्येंद्र गर्ग को ही ले दूसरों के फेस फेसबुक पर दागदार करके खुश होने वाले गर्ग का फेस भी दूसरों से कम दागदार नहीं है। ऐसे अफसरों के असली फेस भी फेसबुक पर उजागर होने चाहिए।
खुद लें तो उपहार दूसरा लें तो भ्रष्टाचार- नंवबर 1999 में माडल टाउन के एमएलए कंवर कर्ण सिंह के सौतले भाई की हत्या कर दी गई। हत्या के मुख्य अभियुक्त प्रापर्टी डीलर राजेश शर्मा की पिस्तौल का लाइसेंस उसके दोस्त सुशील गोयल ने उत्तर -पश्चिम जिला के  तत्कालीन डीसीपी सत्येंद्र गर्ग की सिफारिश से बनवाया था। राजेश के खिलाफ इसी जिले की पुलिस ने एक मामले मे कार्रवाई की थी इसके बावजूद राजेश का लाइसेंस बनाया गया। इसके साथ ही इस संवाददाता को यह सनसनीखेज सूचना मिली कि सत्येंद्र गर्ग ने सुशील गोयल की पत्नी से एक विदेशी पिस्तौल उपहार में लिया है। विदेशी पिस्तौल का बाजार भाव उस समय भी एक लाख से तो ज्यादा ही था। पिस्तौल उपहार में लेने के बारे में गर्ग ने इस संवाददाता को जो तर्क दिए वह हास्यास्पद है। गर्ग ने कहा कि अपने लाइसेंस की वैधता के लिए उन्होंने पिस्तौल लिया है। उल्लेखनीय है कि लाइसेंसिंग विभाग के रिकार्ड में पिस्तौल उपहार के रुप में दर्ज कराई गई। जहां तक लाइसेंस की वैधता का सवाल है तो कोई सामान्य आदमी भी हथियार खरीदने का समय/ वैधता बढ़वा सकता है तो ऐसे में क्या एक पुलिस अफसर को उसका ही विभाग यह सुविधा  नहीं देता
16 नंवबर 1999 के सांध्य टाइम्स में यह खबर प्रकाशित होने के बाद पुलिस में हडकम्प मच गया। है। गर्ग को पिस्तौल लौटानी पडी। लेकिन इससे उनका दाग नहीं धुल जाता।  क्या कोई बिना अपने किसी फायदे के किसी को इतना महंगा उपहार देता है? पिस्तौल उपहार में देने को रिश्वत देने का  एक नायाब तरीका तक कहा गया। तत्कालीन पुलिस कमिश्नर अजय राज शर्मा ने 18 नंवबर को सत्येंद्र गर्ग को जिला उपायुक्त के पद से हटा दिया और  अपराध शाखा के तत्कालीन अतिरिक्त पुलिस आयुक्त के के पॉल को पिस्तौल उपहार मामले की जांच सौंपी। पॉल ने भी पिस्तौल उपहार में लेने को भ्रष्टाचार माना।कई साल तक गर्ग को किसी महत्वपूर्ण पद पर तैनात नहीं किया गया। कुछ साल पहले तत्कालीन पुलिस कमिश्नर डडवाल की कृपा से गर्ग को अपराध शाखा और बाद में ट्रैफिक में तैनात कर दिया गया। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि गृह मंत्रालय में जुगाड़ और पुलिस कमिश्नर की कृपा हो  तो  तो दागी अफसर भी अच्छा पद पा जाता है। 
3 जी का कमाल-   सत्येंद्र गर्ग का कहना था  कि सुशील गोयल से उसकी मुलाकात बी के गुप्ता( वर्तमान पुलिस कमिश्नर)ने कराई थी। गोयल के अपराधियों से संबंध होने की उन्हें कोई जानकारी नहीं थी। सुशील गोयल का कहना था कि बी के गुप्ता तो उसके बड़े भाई जैसे है और गर्ग के अलावा संदीप गोयल़( अपराध शाखा के वर्तमान संयुक्त पुलिस आयुक्त ) आदि से भी उसके अच्छे संबंध है। इस मामले ने भ्रष्टाचार के साथ-साथ पुलिस अफसरों के जाति प्रेम को भी उजागर किया। पिस्तौल लेने-देने वाले और मिलवाने वाले का एक ही जाति का होना क्या महज संयोग होगा?
लाइसेंस में जातिवाद-चर्चा तो यह भी है कि उत्तर-पश्चिम जिले के हथियार के सभी लाइसेंस की अगर जांच की जाए तो  पता चल जाएगा  की किस अफसर ने लाइसेंस बनाने में  जातिवाद किया  और उस जिले में रहें किस अफसर ने किस रेल मंत्री से मुफत रेल या़त्रा का पास लिया था। 
कितने ईमानदार, पेशेवर और काबिल है?-फेसबुक पर आई फोटो के आधार पर चालान करना या फिल्म स्टार के साथ फोटो खिंचवा कर वाहवाही बटोरना आसान  है। लेकिन लोगों की जान खतरे में डालने वाले उत्पाती बाइकर्स समूह तक के खिलाफ फेस टु फेस जाकर कार्रवाई करने की हिम्मत या पेशेवर काबलियत ट्रैफिक पुलिस के अफसरों में भी नहीं दिखती है। क्रिकेट वल्ङ कप जीतने पर आईटीओ चैराहे के पास रात मे सोनिया गांधी ने बीच सड़क पर गाड़ी खड़ी कर रास्ता रोका। सोनिया और  गाड़ी के चालक ने सीट बेल्ट भी नहीं लगाई थी। न्यूज चैनलों पर यह सब दिखाया गया लेकिन ट्रैफिक पुलिस ने नियम तोड़ने वाली इस वीआइपी के खिलाफ काईवाई नहीं की?
पुलिस की कथनी और करनी में जब तक  अंतर  रहेगा उस पर लोग भरोसा करेंगे ही नहीं है। ईमानदारी और निष्पक्षता बातों से नहीं आचरण से जाहिर होती है। पुलिस अगर लोगों का भरोसा पाना चाहती है तो उसे अपना यह दोगलापन छोडना होगा।
-------आईपीएस लें तो उपहार दूसरा लें तो भ्रष्टाचार----


Thursday 27 October 2011

किरण बेदी का क्राइम



इंद्र वशिष्ठ
किरण बेदी द्धारा एयर इंडिया के विमानों में 75 प्रतिशत रियायत पर इकनॉमी क्लास में किए गए सफर का विभिन्न संस्थाओं के आयोजकों से बिजनेस क्लॉस की टिकट का किराया वसूलना स्पष्ट रुप से आपराधिक मामला है। किरण बेदी उनके ट्रस्ट और किराए की जाली रसीद बनाने वाली ट्रैवल एजेंसी फलाईवेल के मालिक अनिल बल इसमें समान रुप से शामिल है। इन सभी के खिलाफ पहली नजर में आपराधिक साजिश रचने की आईपीसी की धारा 120 बी, धोखाधड़ी 420, धोखाधड़ी के लिए जालसाजी 468,दस्तावेजों में जालसाजी 471 और कामन इंटेशन की धारा 34 के तहत अपराधिक मामला बनता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह अपराध इन लोगों ने एक बार या अनजाने में नहीं किया बल्कि किसी आदी मुजरिम की तरह पैसा वसूलने के मकसद से साजिश रच कर बार-बार किया  है। अपराध के मामले में  नीयत ( इंटेशन) और मकसद( मोटीव) को देखा जाता है। किरण बेदी के मामले में गलत नीयत और ज्यादा रकम वसूलने का मकसद बिलकुल स्पष्ट है। पुलिस सर्विस के दौरान भी इस तरह पैसा वसूलने की जानकारी बेदी ने विभाग से छिपाई  वरना बेदी के खिलाफ विभागीय एक्शन भी होता।
उल्लेखनीय है कि पूर्व मंत्री ए राजा आदि के खिलाफ भी आइपीसी की इन्हीं धाराओं के तहत मुकदमा चल रहा है।इस तरह राजा और बेदी बराबर है।
जाली रसीद- पैसा वसूलने के मकसद से बिजनस क्लास में सफर  की जो रसीदें आयोजकों को दी गई वह जाहिर है कि जाली ही थी क्योंकि जो किराया बेदी ने खर्च ही नहीं किया स्पष्ट है कि उसकी रसीद असली तो हो ही नहीं सकती। किरण बेदी का यह कहना कि उनका मकसद इस तरह अपने एनजीओ के लिए पैसा बचाना था इसमें कोई पर्सनल फायदा नहीं उठाया। पूर्व आइपीएस और लॉ ग्रेजुएट किरण बेदी को शायद कानून की मामूली समझ भी नहीं है वर्ना अपराध के इस मामले में वह इस तरह के हास्यापद तर्क न देती। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितनी काबिल अफसर रहीं होगी किरण? एनजीओ भी उनका है और यात्राओं का ज्यादा पैसा  भी उन्होंने हीं वसूला तो यह पर्सनल फायदा नही तो क्या है ?
किरण बेदी ने कहा कि ट्रैवल एजेंसी ने रसीद जारी कर आयोजकों से पैसे लिए थे इसलिए एजेंसी को पैसा लौटाने को कहा है। पैसा ट्रैवल एकाउंट में पड़ा है जबकि पहले किरण ने कहा था कि यह पैसा मेरे एनजीओ को गया है। उल्लेखनीय है कि अगर कोई लुटेरा लूट की रकम दान कर दें तो भी उसका अपराध खत्म नही हो जाता। रोहिणी में एक बार एक ठेकेदार ने सरकारी कर्मचारियों से मिलीभगत कर सड़क सिर्फ फाइलों में बनी दिखा कर सरकार को चूना लगा दिया था। किरण का मामला भी ऐसा ही है बिजनस क्लास में सफर किए बिना ही उसकी रसीद देकर पैसा वसूल लिया ।  किरण बेदी ने वीरता पदक के आधार पर हवाई किराए में छूट का फायदा उठाया लेकिन आयोजकों से बढा- चढा कर किराए के पैसे वसूले।
पूर्व मुख्य न्यायधीश जे एस वर्मा ने किरण बेदी को आड़े हाथों लिया और कहा कि जो पैसा आपने खर्च नहीं किया हो उसे दूसरे से लेना हरगिज स्वीकार्यनहीं है।इससे भी आपत्तिजनक  बात यह है कि बेदी ने इसका यह कह कर बचाव किया कि यह रकम उन्होंने अपने लिए नहीं ली। 

Friday 7 October 2011

अन्ना और नेता वोट के ठेकेदार


अन्ना और नेता वोट के ठेकेदार
इंद्र वशिष्ठ
अन्ना के बारे में भी लोगों को खुले दिमाग और गंभीरता से विचार करने की जरुरत है। लोगों को यह सोचना चाहिए कि वोट किसे दें इसका फैसला करने का हक उनका है या नेता और अन्ना उनको बताएंगे कि वोट किसे देना है । क्या लोग खुद इस लायक नहीं है कि किसे वोट देना  चाहिए है इसका फैसला वह स्वयं कर सकें ? नेताओं या अन्ना जैसों के कहने पर अगर लोग वोट देते है तो लोगों की समझदारी और विवेक पर सवालिया निशान लग जाता है। ऐसे में चुनाव को स्वतंत्र और निष्पक्ष कैसे कहा जा सकता है। क्या लोगों में  अपना उम्मीदवार खुद चुनने की अक्ल नहीं है? क्या लोग भेड़चाल में चलना  चाहते है? जिसे कभी नेता तो कभी अन्ना जैसे अपने फायदे के लिए हांकते रहें। वोट देने के अपने हक को किसी को हड़पने न दें।
 नेता,अन्ना या मीडिया पर आंख मूंद कर भरोसा करने की बजाए लोगों को जागरुक हो कर अपने विवेक से वोट देने का फैसला करना चाहिए। अन्ना हजारे और बीजेपी किस तरह लोगों को गुमराह कर रहे है। इस का अंदाजा  अन्ना और बीजेपी नेताओं के बयानों से लगाया जा सकता है। अन्ना हजारे ने मीडिया को बताया कि बीजेपी अध्यक्ष ने उनको पत्र लिख कर जन लोकपाल बिल का समर्थन किया है। इन दोनों के बयानों में  सत्य और तथ्य नहीं  है। एक तरह से दोनों अपने-अपने फायदे के लिए सिर्फ अर्धसत्य बोल रहे है। सचाई यह है कि  बीजेपी अध्यक्ष ने अपने पत्र में  बिलकुल भी यह नहीं कहा  कि वह अन्ना के जनलोकपाल बिल को उसके सभी प्रावधानों समेत हू-ब-हू स्वीकार करते है। यह जगजाहिर है कि पहले बीजेपी नेता संसद में और लोगों की बीच कहते रहे है कि वह अन्ना के जनलोकपाल बिल के अनेक प्रावधानों से वह सहमत नहीं है। बीजेपी जजों और संसद में सांसदों के आचरण को लोकपाल के दायरे में लाए जाने के पक्ष में नहीं है।
अन्ना हजारे ने 4 अक्टूबर को मीडिया में बीजेपी अध्यक्ष के पत्र के बारे में इस तरह बयान दिया जैसे कि बीजेपी ने अन्ना के जनलोकपाल बिल को पूरी तरह स्वीकार कर लिया है। अन्ना और उसकी टोली  का कहना है  कि बीजेपी ने तो उनके बिल को समर्थन करने का पत्र दे दिया । कांग्रेस अगर शीतकालीन सत्र में जन लोकपाल बिल को पारित कराने के लिए समर्थन पत्र उनको नहीं देती तो वह चुनाव में कांग्रेस को वोट न देने की अपील करेंगे। अन्ना के बयान के बाद न्यूज चैनलों पर चर्चा के दौरान भी अन्ना की टोली और बीजेपी नेता इस तरह के बयान दे रहे है जैसे कि बीजेपी ने अन्ना के जनलोकपाल को पूरी तरह मान लिया है।
बीजेपी का तो इस तरह के बयान देना मौके का फायदा उठाने की राजनीति है। लेकिन अन्ना के इस तरह के बयान देना भी राजनीति नहीं तो ओर क्या  है? इस तरह के बयान देकर तो अन्ना बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाने की राजनीति करते ही दिखाई दे रहे है।  अन्ना दूसरें दलों के बारे में कुछ नहीं कह रहे हैं। क्या दूसरे सभी दल अन्ना के बिल को पास कराने का पत्र उनको दे चुकें है?  यह ठीक है कि कांग्रेस सरकार चला रही है। लेकिन वह अकेले नहीं कई दलों की मदद से सरकार चला रही है। वह ऐसे में कोई भी काम उसी सीमा तक कर सकती है जहां तक सहयोगी दल उसे इजाजत देंगे। ऐसे में सिर्फ कांग्रेस को निशाना बनाना क्या उचित है? यदि सत्ताधारी दल जो चाहे वह करा सकता है तो संसद के अनेक सत्र विपक्ष के अवरोध के कारण बेकार क्यों जाते?
 अन्ना का मकसद चाहे कितना सही हो लेकिन इस तरह के धमकीनुमा बयान से तानाशाही और राजनीति की गंध आती है।  इस मामले में मीडिया खास तौर पर न्यूज चैनल की भूमिका भी सही नहीं है। मीडिया का कार्य किसी का भोंपू बन कर लोगों को गुमराह करना नहीं होता। मीडिया का कार्य होता है कि वह ईमानदारी और निष्पक्षपता से पूरा सत्य और तथ्य पेश करे ताकि लोगों के सामने सबके असली चेहरे उजागर हो। असली चेहरे सामने आने पर ही लोग सही फैसला कर सकते है।

Monday 3 October 2011

पुलिस य़ानी नेताओं के लठैत

 पुलिस बनी सत्ता की लठैत

इंद्र वशिष्ठ
रामलीला मैदान में आधी रात को शांतिपूर्ण तरीके से सत्याग्रह  करने वाले लोगों पर पुलिस की बर्बरतापूर्ण कार्रवाई किसी भी तरह से सही नहीं ठहराई जा सकती है। इस घटना में घायल हुई राजबाला की 26 सितंबर को अस्पताल में मौत हो गई। पुलिस ने कहा कि राजबाला भगदड में घायल हुई थी। लेकिन इस बयान से पुलिस का अपराध कम नहीं हो जाता। पुलिस के इस बयान को ही अगर सही मान लिया जाए तो सवाल उठता है कि भगदड किस वजह से हुई थी? इसका बिलकुल स्पष्ट उत्तर है और यह जगजाहिर है कि पुलिस के लाठीचार्ज और आंसूगैस के गोले दागने से ही भगदड  हुई थी।
इस तरह पुलिस चाहे जो तर्क दे लेकिन राजबाला की मौत के लिए पुलिस  ही जिम्मेदार है। अपराध के मामले में अपराधी की नीयत( इंटेंशन) यानी इरादा और उसका मकसद देखा जाता है। आधी रात को पुलिस की कार्रवाई से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि पुलिस ने राजनेताओं के मकसद को पूरा करने के लिए ही गलत नीयत से कार्य किया था। इस तरह पुलिस ने  अपराध किया है। इस तरह की अमानवीय कार्रवाई सरकारें करती रहेगी जब तक फिरंगियों के बनाए कानून और पुलिस व्यवस्था में बदलाव या सुधार  नहीं किया जाएगा। क्योंकि  किसी भी दल की सरकार हो वह पुलिस को अपने लठैतों की तरह रखना चाहती है। ताकि अपने विरोधियों को  डंडे के दम पर कुचल सकें। इसीलिए लोगों का दमन करने और उन पर राज करने के लिए बनाए फिरंगियों के कानून आजादी के बाद भी जारी है।
 सत्ता में चाहे कोई भी दल हो किसी की भी नीयत इन काले कानूनों को बदलने और पुलिस में सुधार करने की नहीं रहीं । इसीलिए धर्मवीर आयोग की पुलिस में सुधार के लिए दी गई रिपोर्ट सालों से धूल खा रही हैं। सुप्रीम कोर्ट द्धारा पुलिस में सुधार के लिए दिए गए निर्देशों पर भी  सरकारें पूरी तरह अमल नही कर रही है। किसी भी राजनैतिक दल को पुलिस की ज्यादतियों पर आवाज उठाने की याद सिर्फ उस समय आती है जब वह विपक्ष में होते है। सत्ता में सब उसी कानून और पुलिस के सहारे अपना राज कायम  रखना चाहते है। इसीलिए बेकसूर लोग पुलिस के जुल्म के शिकार होते रहेंगें। इसके लिए जिम्मेदार है नेताओं की फिरंगियों वाली सोच।
 संविधान के अनुसार  तो वे जनप्रतिनिध या जनसेवक है।लेकिन सत्ता मिलते ही वे गिरगिट की तरह रंग बदल कर मालिक बन बैठते है ये सोच ही सभी समस्याओं की जड है। सत्ता के अहंकार या नशे में चूर नेताओं से न्यायपूर्ण और भ्रष्टाचार मुक्त शासन की कल्पना करना बेमानी है। और कहा ही जाता है कि अहंकार सबसे पहले व्यकित के दिमाग पर असर डालता और उसकी  सोचने समझने की शकित खत्म कर देता है इसी लिए सत्ता के मद मे डूबे नेता इस तरह की पुलिसिया कार्रवाई कराते है। भ्रष्ट अफसरों के बलबूते ही सरकार अमानवीय कार्रवाई पुलिस से करवा पाती है। अफसोसनाक  बात है कि आईएएस या आईपीएस बनने के बाद ज्यादातर अफसरों की सोच भी फिरंगियों वाली हो जाती है। और जनसेवक के पद पर बैठे ये अफसर भी लोगों पर राज करने की मानसिकता में रहते है। मलाईदार पद पाने के लिए भ्रष्ट अफसर ही बेईमान नेताओं की हां में हां मिलाते है और बेकसूर लोगों पर जुल्म ढहाते है। पुलिस कमिश्नर या डीजी बनने के लिए नेताओं के तलुए चाटते है। ऐसे में  बेईमान अफसर अपने आका नेताओं के ही हुक्म का पालन करेगा। उस कसम को वो अफसर बेच खाता है जो उसने सर्विस में शामिल होते समय ली थी।
 बेईमान नौकरशाह हो या पुलिस अफसर जो अपने आका नेता की जितनी सेवा करता है उसका फल उसे रिटायरमेंट के बाद भी मिलता है। रिटायरमेंट के बाद भी उसे गर्वनर या किसी अन्य पद से नवाज दिया जाता है। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना है तो अफसरों की नियुकित पूरी तरह पारदर्शी और काबलियत के आधार पर हीं होनी चाहिए। नौकरशाह और पुलिस अफसरों को रिटायरमेंट के बाद गर्वनर या अन्य किसी पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए। वरना बेईमान नेता और अफसर इसी तरह बेकसूर लोगों पर जुल्म करते रहेंगे। लेकिन ये सब होगा कैसे ये सबसे बडा सवाल है इस समय तो सुप्रीम कोर्ट से ही उम्मीद की थोडी बहुत किरण नजर आती है।
रामलीला मैदान में बेकसूर औरतों तक पर जुल्म ढहाने के लिए पुलिस कमिश्नर और गृह सचिव के खिलाफ ऐसी कडी कार्रवाई की जाए ताकि फिर कोई अफसर इस तरह की कार्रवार्इ करने की सोचे भी नही।  अफसरों के खिलाफ जब तक कडी कार्रवाई नहीं होगी वे सरकार के लठैत बने रहेंगें। रामलीला मैदान जैसी पुलिसिया कार्रवाई दोबारा कोई सरकार भी करने  की सोचे भी नही लिए इसके लिए जरुरी है कि  गृह मंत्री के खिलाफ भी सुप्रीम कोर्ट  कडी कार्रवाई करें।
कांग्रेस सरकार के अनेक चेहरे ; हरियाणा में कुछ दिन पहले हत्या के  आरोपी पूर्व एमएलए ने अपने हथियारबंद साथियों के दम पर पुलिस और कानून का कई दिनों तक खुल कर मखौल उडाया और पुलिस मूक दर्शक बनी रही। बाद में जुलूस के साथ जाकर उसने अपनी मर्जी से समर्पण किया। राजस्थान में आरक्षण की मांग को लेकर गुजरों ने कई दिन तक रेल पटरी और सडकों पर रास्ता रोके रखा। जिसकी वजह से आम लोगों को परेशानी का सामना करना पडा।
मुंबई में राजठाकरे के बदमाशों ने यूपी-बिहार के लोगों को वहां से भगाने के लिए  मारपीट  कर कानून का मजाक उडाया। इन तीनों राज्यों में कांग्रेस की ही सरकारें हैं इन सभी जगहों पर सरकार ने धारा 144 लगा कर कार्रवाई क्यों नहीं की? वहां पर कानून व्यवस्था कायम रखने के लिए पुलिस एक्शन क्यों नहीं लाजिमी हुआ? जबकि रामलीला मैदान की अमानवीय कार्रवाई के बारे में तो मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि कानून व्यवस्था कायम रहनी चाहिए, इसलिए ये एक्शन लाजिमी था। दूसरी ओर महाराष्ट में ही पुलिस ने बेकसूर किसानों को गोली तक मार  दी। अन्ना हजारे  को दिल्ली पुलिस ने गिरफतार किया । यू पी पुलिस ने भटटा परसौल में किसानों पर अत्याचार किए।इन मामलों से ही स्पष्ट है कि नेता राजनीतिक मकसद से पुलिस का इस्तेमाल जमींदार के लठैतों की तरह करते है।









Tuesday 20 September 2011

किरण बेदी, आमोद कंठ का समाज कल्याण या अपना कल्याण ?




समाज कल्याण या अपना कल्याण,-जागों लोगों जागों -लोगों इन्हें भी पहचानों
इंद्र वशिष्ठ
सावधान: बेईमान नेताओं से ही नहीं अन्ना की टोली  से भी लोगों को चौकन्ना रहना चाहिए। लोग अगर समय रहते नहीं चेते तो बाद में पछताना भी पड सकता है। इसलिए लोगों को इन पर भी आंख मूंद कर भरोसा नही करना चाहिए। अन्ना टोली भी दूध की धुली नहीं लग रही है। कहीं ऐसा न हो कि भ्रष्ट नेताओं से दुखी लोगों का इस्तेमाल अन्ना टोली  अपने फायदे के लिए कर लें और बाद में लोग खुद को ठगा हुआ पाए।  अन्ना टोली के आचरण ,चरित्र और ईमानदारी की परख खुले दिमाग और विवेक से लोग करे तो उनके सामने अन्ना की टोली के लोगों की असलियत आते देर नहीं लगेगी। अन्ना टोली की किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल आदि एनजीओ चलाते है। विदेशो से भी उनको मोटी रकम मिलती है। लेकिन ये एनजीओ को लोकपाल के दायरे में नहीं लाना चाहते है। इसका मतलब ये नहीं चाहते कि उनको मिले धन का हिसाब-किताब कोई उनसे मांगें। अगर एनजीओ मिले धन का इस्तेमाल ईमानदारी से सेवा के कार्य में कर रहें है तो लोकपाल के दायरे से बाहर क्यों रहना चाहते है? एनजीओ वाले दान में मिले धन का इस्तेमाल अपने निजी हित के लिए तो नहीं कर रहे यह जानने का हक दानदाता को ही नहीं आम आदमी को भी होना चाहिए।
 किस तरह सरकारी अफसर पद का दुरुपयोग अपने निजी फायदे के लिए करते है इसका सबसे बडा उदाहरण पूर्व पुलिस अफसर किरण बेदी और आमोद कंठ है। दिल्ली पुलिस ने समाज सेवा के मकसद से प्रयास और नवज्योति संस्थाएं दो दशक पहले बनाई थी। आमोद कंठ और किरण बेदी इन संस्थाओं के महासचिव थे। लेकिन इन दोनों धूर्त अफसरों ने अपने निजी हित के लिए पुलिस का मानवीय चेहरा दिखाने वाली पुलिस की इन दोनों संस्थाओं को चालाकी से हथिया कर उसका निजीकरण कर लिया। इसके बाद भी इन दोनो ने दिल्ली पुलिस के संसाधनों और पुलिसवालों का इस्तेमाल अपने एनजीओ के  लिए किया।  किरण बेदी ने पुलिस थानों की इमारतों का इस्तेमाल अपने एनजीओ के लिए किया। पुलिस वालों से चंदा एकत्र यानी वसूल कराया गया।  क्या पुलिस अफसर रहते अपने निजी फायदे के लिए पुलिस मशीनरी का इस्तेमाल करना बेईमानी नहीं है? इससे ही साफ पता चलता है कि इन अफसरों ने वेतन तो सरकार से लिया लेकिन उस दौरान कार्य पुलिस का नहीं अपना निजी किया। क्या यह सरासर बेईमानी नहीं है? किरण बेदी ने पहली महिला आईपीएस होने को सबसे ज्यादा मीडिया में भुनाया। किरण बेदी को जरुरत से ज्यादा प्रचारित करने वाले मीडिया ने अपनी भूमिका ईमानदारी से निभाई होती तो लोगों के सामने बहुत पहले ही उनकी ईमानदार और काबिल अफसर होने के दावे की पोल खुल जाती। ये  देश-विदेश से असहाय लोगों की मदद करने के नाम पर दान में मोटी रकम लेते है। लेकिन  इनाम पाने की नीयत से कथित सेवा के नाम पर अपना प्रचार करते है।
  इन पूर्व अफसरों के एनजीओ का सरकार को अधिग्रहण कर लेना चाहिए। क्योंकि इन दोनो एनजीओ की  असली मालिक तो दिल्ली पुलिस और वो जनता है जिनसे इन एनजीओ के लिए पुलिस ने पैसे एकत्र या वसूल किए थे। दिल्ली में पिछले विधान सभा चुनाव मे आमोद कंठ तो कांग्रेस के टिकट पर चुनाव हार चुके है आमोद कंठ की तरह किरण बेदी भी अगर नेता बनना चाहती है तो उनका भ्रम भी लोगों को दूर कर देना चाहिए। जिस अफसर ने अपनी डयूटी ही ईमानदारी से नहीं की हो और पुलिस की संस्थाओं को हडप  लिया हो वह लोगों का नुमाइंदा बनने लायक कैसे हो सकता है

 अगर पुलिस अफसर ईमानादारी से अपनी डयूटी ही कर लें तो वही सबसे बडी सेवा होगी। इसके बाद उनको सेवा करने के लिए अलग से कोई एनजीओ बनाने की जरुरत ही नहीं पडेगी और न ही एनजीओ के लिए उसके पास वक्त होगा। अपनी डयूटी को ईमानदारी से न करने वाले अपने निजी फायदे के लिए इस तरह के काम करते है। सरकार को भी सरकारी अफसरों के एनजीओ बनाने पर रोक लगानी चाहिए। अरविंद केजरीवाल ने भी इनकम टैक्स अफसर रहते हुए अपना एनजीओ बनाया । सरकारी अफसरों को वेतन जिस कार्य के लिए दिया जाता है उसके अलावा अपने पद का दुरुपयोग कर दूसरा कार्य करना क्या बेईमानी नहीं होती?
 चाणक्य से एक बार सिकंदर का एक दूत मिलने आया तो चाणक्य ने उससे पूछा कि राजकीय बातचीत करने आए हो या निजी। दूत ने कहा निजी इस पर चाणक्य ने दीया बुझा दिया और कहा कि इस दीये में राजकीय तेल है। सरकारी पद या सुविधा का इस्तेमाल निजी फायदे के लिए करने वाले नेताओं और अफसरों को इससे सीख लेनी चाहिए। मुंबई में प्रफेसर रहे संदीप देसाई रोजाना रेल में  भीख मांग कर गरीब बच्चों के लिए स्कूल बनवाने का कार्य कई साल से कर रहे है। समाज कल्याण की भावना का यह बडा उदाहरण है। वर्तमान माहौल में सिर्फ मीडिया में किसी व्यकित के महिमा मंडन के आधार पर लोगों को प्रभावित नहीं होना चाहिए। लोगों को अपने स्तर पर भी उस व्यकित के बारे में खुले दिमाग से मालूम करना चाहिए ताकि बाद में पछताना न पडे। मीडिया खासकर न्यूज चैनल तो भेडचाल में काम कर रहे है। बेईमान नेताओं को तो चुनाव में हराने का मौका लोगों के पास आएगा। लेकिन समाज कल्याण के नाम पर अपना कल्याण करने वाले एनजीओ वालों पर अंकुश लगाने की व्यवस्था भी लोगों के हाथ में होनी चाहिए है।

Friday 16 September 2011

अरविंद केजरीवाल का कारनामाः निजी हित बना जन हित


इंद्र वशिष्ठ
निजी हित को किस तरह जनहित का नाम दिया जा सकता है इसका अनूठा उदाहरण अरविंद केजरीवाल ने पेश किया है। अपने फायदे के लिए अन्ना का किस तरह इस्तेमाल किया जा सकता है ये भी केजरीवाल ने दिखा दिया है। केजरीवाल को इनकम टैक्स विभाग ने 9 लाख रुपए का भुगतान करने का नोटिस 5 अगस्त को दिया थां। केजरीवाल ने इस नोटिस के जवाब में मीडिया को जो बयान दिए है उनसे ही यह बात साफ हो जाती है कि इनकम टैक्स विभाग का उनसे पैसा वापस मांगना बिलकुल जायज है। केजरीवाल ने बताया कि दो साल  तक वह स्टडी लीव पर थे इस दौरान उनको वेतन मिलता रहा। इसके लिए बांड में शर्त थी कि छुटटी से वापस आने के बाद तीन साल तक अगर वह नौकरी छोडते है तो उन्हें स्टडी लीव के दौरान मिला वेतन वापस करना होगा। 1 नवंवर 2002 को केजरीवाल ने नौकरी वापस ज्वॉइन की और सवा साल बाद लीव विदाउट पे पर चले गए। इसके बाद फरवरी 2006 में इस्तीफा दे दिया। इस पर इनकम टैक्स विभाग ने दो साल का वेतन उसका ब्याज और कंपयूटर लोन के तौर पर लिए रुपए चुकाने के लिए केजरीवाल को नोटिस दिया। केजरीवाल ने 2006-7 में इनकम टैक्स विभाग से कहा कि  चंूकि वह आरटीआई के लिए काम कर रहे थे इसलिए मेरे मामले को जनहित में सरकार वेव ऑफ यानी माफ कर दें। केजरीवाल का कहना है कि सीबीडीटी के चेयरमैन ने भी उनको छूट देने की सिफारिश की थी लेकिन रेवेन्यू सेक्रेटरी इसके लिए राजी नहीं हुए और उनको स्टडी लीव के दौरान दिया गया वेतन वापस करने को कहा गया। इस पर केजरीवाल ने कहा कि उनके खाते में सिर्फ बीस हजार रुपए है। केजरीवाल के बयान से ही यह बात पूरी तरह साफ हो जाती है कि विभाग 2006 से ही रकम वापस करने के लिए केजरीवाल से कह रहा था केजरीवाल ने वेतन की रकम तो दूर कंपयूटर  लोन की रकम तक वापस नहीं की। केजरीवाल के बयान से ही यह भीे साफ है इनकम टैक्स विभाग का उनसे रकम वापस मांगना नियमानुसार और जायज है। वरना केजरीवाल सरकार से इसे जनहित का मामला मान कर माफ करने की मांग क्यों करतें? वेतन की रकम वापस करने से बचने के लिए सरकार से छूट मांगने वाले केजरीवाल शायद ये भूल गए कि वे उस रकम को वापस नहीं करना चाहते जो कि करदाताओं की  है। उस करदाता की जिनके हित की लडाई लडने की दुुहाई देते वह थकते नही। क्या यह केजरीवाल का दोहरा चऱित्र नहीें है?  केजरीवाल ने यह भी कहा कि वह इस बारे में अन्ना हजारे से पूछेंगे। ये तो केजरीवाल का नौकरी के दौरान का विभागीय और निजी मामला है। ये मामला जनहित या  आंदोलन का तो है नहीं । जिसके बारे में अन्ना से पूछने की बात केजरीवाल कर रहे है। इस तरह तो वह निजी फायदे के लिए अन्ना या उन लोगों का इस्तेमाल करना चाहते है जो उनसे जुडे है।  केजरीवाल के बयान विरोधाभासी और गुमराह करने वाले है एक ओर कहते है कि राजनीतिक आकाओं के दबाव में उनको इस समय इनकम टैक्स विभाग ने नोटिस दिया है। जबकि खुद ही कहते है कि पहले भी नोटिस दिए गए थे।केजरीवाल भी तो इस मामले मे राजनीति कर रहे है। माना कि अब राजनीतिक दबाव में नोटिस दिया गया है लेकिन सच तो यह है  ही कि सरकार का बकाया है तो उसे वसूला जाना ही चाहिए।  सरकार को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आइंदा भी जनहित के नाम पर किसी सरकारी अफसर का बकाया माफ न किया जाए। पैसा तो करदाताओं का है किसी के निजी हित के लिए बकाया माफ करना  जनहित नहीं होता। 




Wednesday 20 July 2011

माफी मांगना कब सीखेगी पुलिस

 इंद्र वशिष्ठ
भारतीय मूल के डाक्टर हनीफ को  आतंकवादी मामले में शामिल होने के आरोप में  गिरफतार करने के लिए आस्ट्रेलिया सरकार ने  उससे माफी मांगी । हनीफ को वर्ष 2007 में
जांच में आरोप गलत साबित होने पर रिहा कर दिया गया था। माफी मांगने के अलावा उसे मुआवजा भी दिया गया। आस्ट्रेलिया सरकार का यह व्यवहार बडप्पन  दिखाता है वह भी किसी विदेशी के मामले में। इसके साथ ही यह भी दिखाता हैै कि आम आदमी की इज्जत का उनके लिए कितना महत्व है। क्या हमारी सरकार और पुलिस आस्टेªलिया सरकार से कुछ सबक सीखेगी ?कयोंकि हमारे यहां  पुलिस  हर साल न जाने कितने बेकसूर लोगों को बिना किसी सबूत के गिरफतार करजेल में डाल देती है। दिल्ली पुलिस की बेशर्मी का तो आलम यह है कि बेकसूरो की हत्या तक करने बाद भी वह माफी नहीं मांगती है। बेकसूरो को गिरफतार कर जेल भेजना तो उसके लिए बहुत ही मामूली बात है। सीबीआई भी ऐसे मामलों में पीछे नहीं है। आरुषि-हेमराज हत्याकांड में तीन बेकसूर नौकरो की गिरफतारी से भी यह बात एक बार फिर साबित हो गई ।  सीबीआई के आईपीएस अफसर अरुण कुमार ने बकायदा प्रेस को बताया कि नौकरो ने  नारको टेस्ट आदि में हत्या करना कबूला है।  सीबीआई ने अब  इस केस को बंद करने के लिए कोर्ट में कलोजर रिपोर्ट दाखिल की है। अब सीबीआई ने इस मामले में तीनो नौकरों को  बेकसूर मानते हुए उनको कलीन चिट दी है। लेकिन सिर्फ बेकसूर मान लेने से ही सरकार या सीबीआई की जिम्मेदारी खत्म नहीं हो जाती है। सीबीआई को उन नौकरों से माफी मांगनी चाहिए। इसके अलावा सरकार को उन नौकरो को मुआवजा देना चाहिए। इसके साथ ही अदालत और सरकार  को सीबीआई के उन अफसरो के खिलाफ सख्त कार्रवाई करनी चाहिए जिन्होंने इन नौकरो को गिरफतार किया और उनको बदनाम किया । जब तक बेकसूरो को गिरफतार करने वाले अफसरो के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई नहीे होगी । बेकसूरो को जेल में डालने का सिलसिला रुकने वाला नही है।  जमीनी हकीकत यह है कि कई बार पुलिस के आला अफसर सचाई का पता
 लगाए बिना मामला सुलझाने की जल्दी में अपने मातहत की बताई कहानी को ही अंतिम सच मानकर आरोपी को झूठा समझते है। बेकसूर का मामला उजागर होने के बाद भी पुलिस उसे जेल से बाहर निकलवाने को प्राथमिकता के आधार पर नहीं लेती है। पुलिस सामान्य प्रक्रिया के तहत उस मामले की तय तारीख पर ही उसे डिस्चार्ज यानि आरोपमुकत करने के लिए अदालत में अर्जी लगाती है। जबकि होना यह चाहिए कि बेकसूर के मामले को तुरन्त अदालत को बता कर उसे तुरन्त जेल से रिहा कराना चाहिए। बेकसूर को आरोप मुकत करा देने से ही इंसाफ नहीं हो जाता है। बेकसूरों को गिरफतार करने वाले पुलिसवालों के खिलाफ अदालत को खुद ही मुकदमा चलाना चाहिए। इसके अलावा  अदालत को पुलिस को यह आदेश देना चाहिए कि मीडिया में बयान देकर बेकसूर से माफी मांगे और मुआवजा दे।
अभी आलम यह है कि पुलिस तफतीश कर सचाई का पता लगाए बिना ही बेकसूर को जेल में डाल देती है। टीचर उमा खुराना के साथ भी ऐसा ही हुआ था लाइव इंडिया चैनल पर दिखाई खबर के आधार पर ही बिना तफतीश किए उमा को गिरफतार कर लिया गया। बाद में की गई तफतीश में वह खबर ही झूठी निकली। वर्ष 2006 में तिमार पुर में एक सिपाही ने बदला लेने के लिए फर्जी एनकाउंटर में दो लोगों की हत्या कर दी। वर्ष 1997 में कनाट प्लेस में दो व्यापारियों की फर्जी एनकाउंटर में हत्या कर दी गई । तत्कालीन पुलिस कमिश्नर निखिल कुमार ने माफी तक नहीं मांगी।
ये तो वे मामले है जो मीडिया की सुर्खियों में आने के कारण उजागर हो गए थे और इंसाफ मिल सका। वरना  बेशर्म पुलिस ने तो  माफी तक नहीं मांगी। सुप्रीम कोर्ट भी बार-बार कहता है कि बिना ठोस सबूत के किसी को गिरफतार करने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। लेकिन इसका पालन पुलिस या सीबीआई क्यों नहीं करती।

धर्म को बदनाम न करो या धर्म के नाम पर अधर्म न करो

इंद्र वशिष्ठ
एक तो वैसे ही दिल्ली के ज्यादातर इलाकों में लोगों को रोजाना जाम का सामना करना पडता है। उस पर विभिन्न समुदायों के धार्मिक जुलूसों और राजनैतिक दलों के कार्यक्रमों के कारण लगने वाले जाम ने लोगों की मुसीबत और बढा दी है। पीएम के काफिले की सुरक्षा और सुविधा के लिए
 लगने वाले जाम में फंसने से किसी व्यकित कीमौत हो जाने का मामला तो प्रकाश में आ जाता है लेकिन धार्मिक जुलूस और रैलियों के कारण मरीजो और आम आदमी को होेने वाली  परेशानी की न तो पुलिस को ना ही सरकार को और न मीडिया को ही परवाह है। ये तीनों तो लोगों की समस्याओं के प्रति संवेदनहीन हो गए है। आश्चर्य तो  विभिन्न समुदाय के उन कथित मठाधीशो /ठेकेदारों पर होता है जो धार्मिक जुलूस निकालते है। दिल्ली के  भीड-भाड वाले इलाको से गुजरने वाले इन जुलूसों के कारण जबरदस्त जाम का सामना लोगों को करना पडता है। किसी भी व्यकित को कष्ट पहुंचाना सबसे बडा अधर्म होता है। धर्म की ये बुनियादी बात ही आज धर्म के कथित ठेकेदारों को शायद मालूम नहीं। वरना वे पूरे-पूरे दिन जुलूस निकाल कर लोगों को कष्ट न पहुंचाते। कभी मुहर्रम;कभी शहीदी दिवस कभी वाल्मीक जयन्ती आदि पर धार्मिक जुलूस निकाले जाते है। वाल्मीक जयन्ती और अन्य धार्मिक आयोजनों का तोे दिल्ली के कुछ नेेताओं ने राजनीतिकरण ही कर दिया है।
सभी धर्मो में मानव की सेवा करने को कहा गया है। अरे धर्म के ठेकेदारों
मानव की सेवा नहीं कर सकते तो मत करो परन्तु धर्म के नाम पर कोई ऐसा कार्य तो मत करो जिससे दूसरे मानव को कष्ट हो । आप धार्मिक है इसका असली पता तो आपके आचरण से चलता है। ऐसे जुलूस आदि से नही जिससे किसी को परेशानी हो। हरेक शुक्रवार को रास्ता बंद करके लोगों को परेशान करके की जाने वाली इबादत को मेरे विचार से तो
अल्लाह  कबूल भी नहीं करता होगा।
इसलिए धर्म के कथित ठेकेदारों धर्म के असली मर्म को समझो ।
ऐसे ही हमारे नेता है जो लोगों की समस्या उठाने के नाम पर जाम लगा कर लोगों को परेशान कर देते है।
इन सभी जुलूसों से एक दिन पहले पुलिस जुलूस के रास्तों से बचने की सलाह का बयान मीडिया में जारी कर अपना खानापूर्ति कर लेती है। वैसे ही दिल्ली की हर सडक पर वाहनों की भीड रहती है अब जुलूस के रास्तों से बचने के लिए उन सडको पर दूसरे वाहन भी जाएंगे तो जाम लगेगा ही। इस दौरान यातायात को सुचारु रुप से चलाने के लिए यातायात पुलिस पुख्ता इंतजाम नहीं करती इसलिए भी लोग घंटों जाम में फंस जाते है या रेंग-रेंग का वाहन चलते है। पहले बोट कलब पर रैलियां-प्रदर्शन होते थे  वहां 1992 से
 इन पर रोक लगा दी गई। इससे वीवीआइपी तो सुखी हो गए । लेकिन  इसके बाद खासकर पुरानी दिल्ली के लोगों की परेशानियां बढ गई। रैलियां और जुलूस आदि फिर से बोट कलब जैसे खुले इलाकों में ही होने चाहिए । सरकार की किसी बात का विरोध संसद भवन या पीएम हाउस के सामने ही होना चाहिए। इन कुछ वीवीआइपी की सुरक्षा और
सुविधा के नाम पर दिल्ली के लाखों लोग कयों परेशानी झेले। लेकिन सरकार और पुलिस ऐसा नहीं
चाहती। कयोंकि सत्ता में कोेई भी दल हो सब अपनी सुविधा देखते है उनकी बला से
आम आदमी जाए भाड मे।

नेताओं के लठैत बनी पुलिस

इंद्र् वशिष्ठ
रामलीला मैदान में आधी रात को शांतिपूर्ण तरीेके से अनशन करने वाले लोगों पर पुलिस की बर्बरतापूर्ण कार्रवाई किसी भी तरह से सही नहीं ठहराई जा सकती है। लेकिन  इस तरह की अमानवीय कार्रवाई सरकारें करती रहेगी जब तक फिरंगियों के बनाए कानून और पुलिस व्यवस्था में बदलाव या सुधार  नहीं किया जाएगा। लेकिन किसी भी दल की सरकार हो वह पुलिस को अपने लठैतों की तरह रखना चाहती है। ताकि अपने विरोधियों को  डंडे के दम पर कुचल सकें। इसीलिए लोगों का दमन करने और उन पर राज करने के लिए बनाए फिरंगियों के कानून आजादी के बाद भी जारी है। सत्ता में चाहे कोई भी दल हो किसी की भी नीयत इन काले कानूनों को बदलने और पुलिस में सुधार करने की नहीं रहीं । इसीलिए धर्मवीर आयोग की पुलिस में सुधार के लिए दी गई रिपोर्ट सालों से धूल खा रही हैं।किसी भी राजनैतिक दल को पुलिस की ज्यादतियों पर आवाज उठाने की याद सिर्फ उस समय आती है जब वह विपक्ष में होते है। सत्ता में सब उसी कानून और पुलिस के सहारे अपना राज कायम  रखना चाहते है। इसीलिए बेकसूर लोग पुलिस के जुल्म के शिकार होते रहेंगें। इसके लिए जिम्मेदार है नेताओं की फिरंगियों वाली सोच। संविधान के अनुसार  तो वे जनप्रतिनिध या जनसेवक है।लेकिन सत्ता मिलते ही वे गिरगिट की तरह रंग बदल कर स्वामी या मालिक बन बैठते है ये सोच ही सभी समस्याओं की जड। सत्ता के अहंकार या
नशे में चूर नेताओं से न्यायपूर्ण और भ्रष्टाचार मुक्त शासन की कल्पना करना बेमानी है। और कहा ही जाता है कि अहंकार या का्रेध सबसे पहले व्यकित के दिमाग पर असर डालता और उसकी
 सोचने समझने की शक्ति खत्म कर देता है इसी लिए सत्ता के मद मे डूबे नेता इस तरह की पुलिसिया कार्रवाई करते है।
भ्रष्ट नौकरशाह और पुलिस अफसरों के बलबूते ही सरकार अमानवीय कार्रवाई पुलिस से करवा पाती है। अफसोसनाक  बात है कि आईएएस या आईपीएस बनने के बाद ज्यादातर अफसरों की सोच भी फिरंगियों वाली हो जाती है। और जनसेवक के पद पर बैठे ये अफसर भी लोगों पर राज करने की मानसिकता में रहते है। मलाईदार पद पाने के लिए  भ्रष्ट अफसर ही बेईमान नेताओं की हां में हां मिलाते है और बेकसूर लोगों पर जुल्म ढहाते है।  पुलिस कमिश्नर बनने के लिए नेताओं के तलुए चाटते है। ऐसे में  बेईमान अफसर अपने आका नेेताओं के ही हुक्म कापालन करेगा। उस कसम को वो अफसर बेच खाता है जो उसने सर्विस में शामिल होते समय ली थी। बेईमान नौकरशाह हो या पुलिस अफसर जो अपने आका नेता की जितनी सेवा करता है उसका फल उसे रिटायरमेंट के बाद भी मिलता है। रिटायरमेंट के बाद भी उसे गर्वनर या किसी अन्य पद से नवाज दिया जाता है। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना है तो अफसरों की नियुक्ति  प्रक्रिया पूरी तरह पारदर्शी और काबलियत के आधार पर हीं होनी चाहिए। नौकरशाह और पुलिस अफसरों को रिटायरमेंट के
गर्वनर या अन्य किसी पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए। वरना बेईमान नेता और अफसर इसी तरह बेकसूर लोगों पर जुल्म करते रहेंर्गें। लेकिन ये सव होगा कैसे ये सबसे बडा सवाल है इस समय तो सुप्रीम कोर्ट से ही उम्मीद की थोडी बहुत किरण नजर आती है। रामलीला मैदान में बेकसूर औरतों तक पर जुल्म ढहाने के लिए
पुलिस कमिश्नर और गृह सचिव के खिलाफ ऐसी कडी कार्रवाई की जाए ताकि फिर कोई अफसर इस तरह की कार्रवाई करने की सोचे भी नही। बेईमान अफसरों के खिलाफ जब तक कडी कार्रवाई नहीं होगी वे सरकार के लठैत बने रहेंगें। रामलीला मैदान जैसी पुलिसिया कार्रवाई दोबारा कोई सरकार भी करने  की सोचे भी नही लिए इसके लिए जरुरी है कि कम से कम गृह मंत्री के खिलाफ भी सुप्रीम कोर्ट  कडी कार्रवाई करें।
कांग्रेस सरकार के अनेक चेहरे ; हरियाणा में कुछ दिन पहले हत्या के  आरोपी पूर्व एमएलए ने अपने हथियारबंद साथियों के दम पर पुलिस और कानून का कई दिनों तक खुल कर मखौल उडाया और पुलिस मूक दर्शक बनी रही। बाद में जुलूस के साथ जाकर उसने अपनी मर्जी से समर्पण किया। राजस्थान में आरक्षण की मांग को लेकर गुजरों ने कई दिन तक रेल पटरी और सडकों पर रास्ता रोके रखा। जिसकी वजह से आम लोगों को परेशानी का सामना करना पडा।
मुंबई में राजठाकरे ने कई दिनों तक गुंडागर्दी कर कानून का मजाक उडाया।
इन तीनों  राज्यों में कांग्रेस की ही सरकारें हैं इन सभी जगहों पर सरकार ने धारा 144 के तहत कार्रवाई नहीं की। वहां पर कानून व्यवस्था कायम रखने के लिए पुलिस एक्शन क्यों नहीं लाजिमी हुआ। रामलीला मैदान की अमानवीय कार्रवाई के बारे में तो मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि कानून व्यवस्था कायम रहनी चाहिए इसलिए ये एक्शन लाजिमी था।

आम आदमी के नही सत्ता के साथ पत्रकार

इंद्र वशिष्ठ
कांग्रेस मुख्यालय में  जनार्दन द्विवेदी को जूता दिखाने के मामले मंे पुलिस; नेता और पत्रकारों की असलियत एक बार फिर उजागर हो गई। इस मामले से ही आसानी से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि आज लोकतंत्र की हालत खराब क्यों है? इस मामले में किस ने क्या भूमिका निभाई और क्या निभानी चाहिए थी? पुलिस ,नेता और पत्रकारों की भूमिका पर सवालिया निशान लग गया है।
पत्रकारों की भूमिका;राजस्थान के सुनील कुमार ने पहले द्विवेदी से कोई सवाल पूछा। उसके बाद वह द्विवेदी के पास गया और जूता निकाल कर उनको दिखाने लगा। द्विवेदी इस पर कोई प्रतिक्रिया व्यकत करते इसके पहले ही एक पत्रकार आगे बढा उसने सुनील को पकडा और उसकी पिटाई करने लगा यह देख कर कुछ और पत्रकार भी सुनील को पीटने लगे। न्यूज चैनलों में यह दिखाया गया कि सुनील को पीटने वालों में कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह भी शामिल थे। किसी को भी किसी की पिटाई करने का कोई हक नही और साथ ही यह अपराध भी है। ऐसे में कुछ पत्रकारों द्वारा की गई यह हरकत शर्मनाक तो है ही अपराध भी है। ऐसे करने वाले पत्रकार कहलाने के हकदार नही है। ये पत्रकार के रुप में नेताओं के चमचे है और अपने आका नेता को खुश करने की लिए इन कथित पत्रकारों ने वो हरकत की जो नेता के चेले करते है। पत्रकार होते तो सुनील कुमार से बात कर ये पता लगाने की कोशिश करते कि उसने जूता दिखा कर विरोध प्रकट करने जैसा कदम क्यों और किन हालात में उठाया। बाकी सुनील की हरकत पर कार्रवाई करने का फैसला उस नेता और पुलिस पर छोड देते। लेकिन पत्रकारों ने तो खुद ही कानून अपने हाथों में ले लिया। ऐसा सिर्फ वे कथित पत्रकार करते है जो अपने स्वार्थपूर्ति के लिए नेताओं के तलुए चाटते है। द्विवेदी जो कि वरिष्ठ नेता है ने भी सुनील को पीटने वालों को रोका नही। दूसरी और दिग्विजय तो पिटाई करने वालों में शामिल दिखाए गए।
पुलिस की भूमिका; पुलिस का कहना है कि पुलिस नियंत्रण कक्ष को  मिली सूचना के आधार पर सुनील को सीआरपीसी की धारा 107/151 के तहत गिरफतार किया गया। धारा 151 के अनुसार पुलिस संज्ञेय अपराध को होने से रोकने के लिए एहतियातन गिरफतार कर सकती है। शांति भंग करने पर धारा 107 लगाई जाती है। लेकिन सवाल यह है कि सुनील ने कोई संज्ञेय अपराध तो किया नहीं था। ऐसे मामलों  को सामान्यत  पुलिस अंसज्ञेय अपराध की श्रेणी में दर्ज करके उसकी रिपोर्ट  मजिस्टे्ट के सामने पेश करती। मजिस्ट्ेट उस पर कार्रवाई करता है। असंज्ञेय अपराध के मामले में पुलिस अपने आप गिरफतार नहीं करती। लेकिन इस मामले में पुलिस ने अपने आका नेताओं को खुश करने के लिए बिना नेता से शिकायत लिए अपने आप ही धारा 107/151 के तहत कार्रवाई का तरीका अपनाया  ताकि  सुनील को गिरफतार कर जेल भेजा जा सके। एक और तो पुलिस आम आदमी की रिपोर्ट तक आसानी से दर्ज नहीें करती दूसरी और मामला सत्ताधारी  नेता का हो तो 100 नंबर पर मिली सूचना के आधार पर ही कार्रवाई कर देती है। पुलिस अगर स्वतंत्र,निष्पक्ष और ईमानदार होती तो कानून का पालन करती और उन कथित पत्रकारों और नेताओं को भी गिरफतार करती जिन्होंने ने सुनील को पीटने का अपराध किया। न्यूज चैनलों पर देश और पूरी दुनिया ने उनको सुनील की पिटाई करते देखा। पिटाई करने वालों के खिलाफ कार्रवाई के लिए इससे बडा और स्पष्ट सबूत और क्या हो सकता है। लेकिन पुलिस ने उसे अनदेखा कर  सिर्फ सुनील के खिलाफ एकतरफा कार्रवाई  कर दी। पुलिस को द्विवेदी से शिकायत लेकर आईपीसी की असंज्ञेय अपराध की धारा के तहत मामला दर्ज करना चाहिए था। तब कोर्ट उस मामले में कार्रवाई करता। कोर्ट में शिकायतकर्ता द्विवेदी को भी जाना पडता। सत्ताधारियों के मन मुताबिक  पुलिस कार्रवाई करती है। इसलिए कोई भी दल सत्ता में हो वह पुलिस को स्वतंत्र नहीं रखना चाहता है।
नेताओं कीभूमिका; कांग्रेस ने बिना जांच पडताल तुरन्त सुनील को आरएसएस का आदमी बता दिया। पत्रकार जरनैल सिंह ने गृह मंत्री पर जूता फेंका था।  सिख दंगों के आरोपियों को टिकट देने के विरोध में उसने जूता फेंका था। उस समय सिखों की वोट की खातिर कांग्रेस ने किसी संगठन पर कोई आरोप नहीं लगाया बल्कि दो नेताओं के टिकट काट दिए। भारत में नेताओं पर जूते फेंकने का सिलसिला तब से जारी है ।  किसी संगठन पर आरोप लगा देने या नेताओं द्वारा सिर्फ ऐसी घटना की निन्दा कर देने से समस्या समाप्त नहीं होने वाली।सभी दलों के नेताओं को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए। संसद और विधान सभाओं में  जूतम पैजार; मारपीट और तोडफोड तक की  हरकतें करने वाले नेताओं द्वारा इस तरह के मामलों कि निन्दा करना हास्यास्पद और दिखावा है। भ्रष्ट नेताओं के कारण  लोगों के मन में उनके लिए गुस्सा भर गया है। इस लिए सुनील जैसा आम आदमी ही नही पत्रकार भी अपना गुस्सा प्रकट करने के लिए जूते का सहारा ले रहा है।  इसके लिए नेता जिम्मेदार है।  नेताओं को  इन घटनाओं से सबक लेकर अपना आचरण;व्यवहार और चरित्र सुधार लेना चाहिए। कयोंकि जैसा राजा वैसी प्रजा होती है । नेता ईमानदार होंगे तभी लोग उनकी इज्जत करेंगे।