Saturday 29 February 2020

दिल्ली में दंगों ने खोली IPS की पोल, गृहमंत्री की भूमिका पर सवालिया निशान।


दिल्ली में दंगों ने खोली IPS की पोल, 
गृहमंत्री की भूमिका पर सवालिया निशान।

इंद्र वशिष्ठ
दिल्ली  के कई इलाकों में 3-4 दिनों तक दंगाइयों का राज़ रहा। दंगाई पिस्तौल, पेट्रोल बम, लाठी-डंडों और पत्थर से लोगों पर हमला करते रहे। मकान, दुकान, स्कूल और धार्मिक स्थल में आग लगाते रहे। दंगाइयों ने दिल्ली पुलिस के हवलदार समेत चालीस से ज्यादा लोगों की जान ले ली।
तीन दिन तक दंगों को रोकने में पुलिस विफल रही। लेकिन इस मामले में लापरवाही बरतने के आरोप में किसी भी आईपीएस अफसर या एसएचओ के खिलाफ कोई विभागीय  कार्रवाई भी अब तक नहीं की गई है।

किसी भी इलाके में दंगे होना स्थानीय थाना पुलिस और खुफिया तंत्र की कार्यप्रणाली पर सवाल खड़े कर देता है।
दंगें होने के बाद कई दिनों तक उस पर काबू ना कर पाना आईपीएस अधिकारियों की काबिलियत पर सवालिया निशान खड़े कर देता है।
पुलिस का काम लोगों की जान-माल की रक्षा करने का होता है। पुलिस अपना यह काम करने में बुरी तरह फेल हो गई।

सांप्रदायिक दंगों के लिए बकायदा एसओपी है यानी दंगों के हालात में क्या कदम उठाए जाने चाहिए तय है। 
इसके बावजूद दंगों  में इतने लोगों की जान चली गई और संपत्ति का नुक़सान हुआ है।
इन दंगों के मामले में यह भी साफ़ है कि दंगों पर नियंत्रण के लिए पर्याप्त पुलिस बल नहीं भेजा गया। 
इससे पता चलता है कि दंगों की स्थिति का आकलन करने में अफसरों द्वारा लापरवाही बरती गई। इसलिए दंगाइयों पर नियंत्रण पाने में देरी हुई।

ख़ुफ़िया तंत्र और पुलिस की लापरवाही/विफलताओं के लिए संबंधित पुलिस अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए।
पुलिस बल के मुखिया होने के नाते तत्कालीन पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए ।
इसके बाद विशेष पुलिस आयुक्त ( कानून एवं व्यवस्था) सतीश गोलछा, संयुक्त पुलिस आयुक्त आलोक कुमार, जिला पुलिस उपायुक्तों वेद प्रकाश सूर्य और अमित शर्मा और दंगाग्रस्त इलाके के एसीपी और एसएचओ के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए। हालांकि दंगाइयों द्वारा किए पथराव में अमित शर्मा भी घायल हुए हैं।

दंगों के कारण डीसीपी दीपक मिश्रा को हटाया गया-
साल 1992 में बाबरी विध्वंस के बाद  सीलमपुर, जाफराबाद और वेलकम इलाके में दंगे हुए थे।
दंगें होना और उन पर काबू पाने में देरी होना पुलिस अफसरों की पेशेवर काबिलियत पर सवाल खड़े कर देता है। 
इसलिए उस समय उत्तर पूर्वी जिले के तत्तकालीन डीसीपी दीपक मिश्रा का तबादला कर दिया गया था। 

कहा तो यहां तक जाता है कि तत्कालीन पुलिस कमिश्नर मुकुंद बिहारी कौशल ने दीपक मिश्रा के भविष्य/ नौकरी को ख़राब होने से बचा लिया था। वर्ना दीपक मिश्रा की नौकरी ख़तरे में पड़ सकती थी। मुकुंद बिहारी कौशल ने दीपक मिश्रा को न केवल बचाया बल्कि उसे पश्चिम जिला में तैनात कर दिया।

पुलिस अफसरों के मुताबिक असल में हुआ यह बताते हैं कि उस समय पुलिस ने लापरवाही और गैर जिम्मेदाराना तरीके से इतनी अंधा धुंध गोलियां चलाई थी कि उसका जवाब देना भारी पड़ गया था। गोलियों का हिसाब किताब दिखाने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी थी।
बताया जाता है कि एक आईपीएस अफसर ने तो  साफ़ मना कर दिया था कि गोलियों का हिसाब पूरा करने के लिए उसका नाम गोली चलाने वालों में शामिल न किया जाए।
दक्षिण भारतीय यह आईपीएस कुछ समय पहले ही विशेष आयुक्त के पद से रिटायर हुए हैं।

डीसीपी हटाया-
शाहीन बाग और जामिया में धरना प्रदर्शन करने वालों पर गुंडों द्वारा गोलियां चलाईं गई।
 लोगों की सुरक्षा में लापरवाही बरतने के लिए तत्तकालीन डीसीपी चिन्मय बिस्वाल को हटा दिया गया।

स्पेशल कमिश्नर को‌ हटाया-

पिछले साल तीस हजारी कोर्ट में वकीलों ने पुलिस वालों को जमकर पीटा, आगजनी और तोड़फोड़ की।

इस मामले में भी विशेष पुलिस आयुक्त कानून व्यवस्था संजय सिंह और उत्तरी जिले के तत्तकालीन एडिशनल डीसीपी हरेंद्र सिंह का तबादला कर दिया गया।
 हरेंद्र सिंह को तो वकीलों ने बुरी तरह पीटा था। हालांकि इन दोनों के तबादले से पुलिस में जबरदस्त रोष पैदा हो गया था।

गृहमंत्री की भूमिका पर सवालिया निशान-

ऐसे में जब दंगों में चालीस से ज्यादा लोगों की जान चली गई और सैंकड़ों लोग घायल हो गए। लेकिन अभी तक किसी भी आईपीएस अफसर के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं किया जाना गृह मंत्री अमित शाह और उपराज्यपाल अनिल बैजल की भूमिका पर सवालिया निशान लगाते हैं।

प्रधानमंत्री के काफिले के रास्ते में अगर कोई व्यक्ति गलती से भी आ जाता है। तो उसे सुरक्षा में गंभीर चूक माना जाता है। पुलिस अफसरों तक के खिलाफ  कार्रवाई की जाती है।
क्या चालीस से ज्यादा लोगों की जान जाना  गंभीर मामला नहीं है? 
या सिर्फ प्रधानमंत्री की जान की ही कीमत है ?
आम आदमी की जान की कोई कीमत नहीं?
आम आदमी की जान की रक्षा करने में पुलिस की यह जबरदस्त चूक है।

दंगें में एक पुलिसकर्मी के शहीद होने से पुलिस का मनोबल प्रभावित होता है। चालीस से ज्यादा लोगों के मरने का आम लोगों को भी गहरा सदमा लगता है। 

भड़काने वाले भाषण देने वाले नेताओं के खिलाफ पुलिस अफसर अगर पहले ही कार्रवाई कर देते तो दंगे होने से रोके जा सकते थे।










Wednesday 26 February 2020

कमिश्नर की वर्दी पर लागा दंगों का दाग़, अमूल्य पटनायक एक बार फिर नाकारा साबित।



पुलिस कमिश्नर एक बार फिर नाकारा साबित।
कमिश्नर की वर्दी पर लागा दंगों का दाग़  ।

इंद्र वशिष्ठ

दिल्ली में हुए दंगों ने पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक को एक बार फिर से नाकारा और विफल कमिश्नर साबित कर दिया। 
अमूल्य पटनायक दंगों के बदनुमा दाग़ लेकर कमिश्नर पद से रिटायर होंगे। दंगें में शहीद हुए दिल्ली पुलिस के हवलदार रतन लाल समेत सभी बेकसूर लोगों की मौत के लिए पुलिस कमिश्नर ही जिम्मेदार हैं। पुलिस का काम लोगों की सुरक्षा और कानून एवं व्यवस्था बनाए रखने का है। इसलिए पुलिस बल का मुखिया होने के नाते पुलिस कमिश्नर ही जिम्मेदार है। 

इसके अलावा जिले के डीसीपी,एसएचओ से लेकर बीट में तैनात सिपाही तक भी इसके लिए जिम्मेदार हैं। वसूली के लिए तो गलियों की खाक तक छानने वाली थाना स्तर की पुलिस अगर सतर्क होती तो इतनी बड़ी तादाद में लोगों के एकत्र होने की सूचना पहले ही मिल जाती और उनको जमा होने से रोका जा सकता था।   

ख़ुफ़िया एजेंसियों की पोल खुल गई-

इन दंगों ने दिल्ली पुलिस के ख़ुफ़िया तंत्र और केंद्रीय खुफिया एजेंसियों की भूमिका पर सवालिया निशान लगा दिया है। दिल्ली पुलिस केंद्रीय गृह मंत्रालय के अधीन है। इसलिए पूर्वी दिल्ली में लगातार तीन दिनों तक हुए दंगों से गृहमंत्री अमित शाह की काबिलियत पर भी सवाल खड़े हो गए हैं।
देश की राजधानी में तीन चार-दिनों तक दंगे होते रहे और उन पर काबू पाने में पुलिस कमिश्नर विफल रहे। 

कई पूर्व आईपीएस अधिकारियों  का भी  कहना हैं कि सीएए के विरोध में धरना प्रदर्शन लंबे समय से चल रहा है। इस आंदोलन के कारण ही हिंसा हुई है। ऐसे में पुलिस को पहले से ऐसे लोगों की पहचान करनी चाहिए थी और उन पर नजर रखना चाहिए थी जो इस आंदोलन को उकसा रहे थे। इससे हिंसा शुरू ही नहीं हो पाती। हिंसा ने पुलिस के ख़ुफ़िया तंत्र की पोल खोल दी।
ख़ुफ़िया तंत्र अगर सही तरह से काम कर होता तो दंगे होने से रोक सकते थे।
संवेदनशील इलाकों में लोगों के बीच क्या सुगबुगाहट चल रही है। इसकी भनक खुफिया तंत्र लगाने में विफल रहा या उसने गंभीरता से कोई कोशिश ही नहीं की।
पुलिस का ख़ुफ़िया तंत्र और थाने में बीट के सिपाही भी अगर सतर्क होते तो पहले ही जानकारी मिल जाती। जिसके आधार पर अतिरिक्त पुलिस बल तैनात करके स्थिति को बिगाड़ने से बचाया जा सकता था।

पुलिस शुरू से ही सतर्कता और सख्ती बरतती तो हालात बेकाबू नहीं होते-

हल्का लाठी चार्ज और आंसू गैस के गोले दागना, पुलिस ने जाफराबाद से लेकर भजनपुरा तक हुए उपद्रव के दौरान शुरू में यही रवैया अपनाया।
दंगाई पिस्तौल, लाठी-डंडों से लैस होकर चल रहे थे। पत्थर और पेट्रोल बम फेंके जा रहे थे। मकान, दुकान और धार्मिक स्थल को आग लगाई गई। खुलेआम हथियार लहराए जा रहे थे। गोलियां चलाई जा रही थी। लेकिन पुलिस बचाव की मुद्रा में दिखाई दी। क्योंकि पुलिस की तादाद कम थी। इसलिए पुलिस दंगाइयों को पकड़ने की कोशिश करने की बजाए उनको खदेड़ने की कोशिश करती रही।
जाफराबाद में खुलेआम फायरिंग करने और पुलिस वाले पर पिस्तौल तानने वाले शाहरुख को भी पुलिस ने तुरंत मौके पर ही नहीं पकड़ा।
25 फरवरी की शाम को यानी दंगों के तीसरे दिन पुलिस को दंगाइयों को देखते ही गोली मारने के आदेश दिए गए। हिंसाग्रस्त इलाकों में कर्फ्यू लगाया गया।

आईपीएस की काबिलियत पर सवाल-

पुलिस कमिश्नर सिस्टम में पुलिस के पास ही इतने अधिकार है कि उसे दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए किसी से आदेश के लिए इंतजार की जरूरत ही नहीं है। घटनास्थल पर मौजूद पुलिस अफसर खुद ही दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई करने के लिए फैसला ले सकते हैं। इसके बावजूद तीन दिन तक दंगों पर काबू न पाया जाना पुलिस कमिश्नर और आईपीएस अधिकारियों की काबिलियत पर सवाल खड़े करता है।

लोकतंत्र में शांति पूर्वक विरोध प्रदर्शन करना सबका अधिकार है।
शांतिपूर्वक आंदोलन करने वाले लोगों की सुरक्षा व्यवस्था करना पुलिस का काम है।
शाहीन बाग/ जामिया के आंदोलनकारियों पर गुंडों द्वारा 2-3 बार गोलियां चलाई गईं। इससे पुलिस की भूमिका पर सवालिया निशान लग गया। 

अनुराग ठाकुर और कपिल मिश्रा में दम है तो खुद गोली मार कर दिखाएं।-

दिल्ली विधानसभा के  चुनाव के दौरान मंत्री अनुराग ठाकुर द्वारा "देश के गद्दारों को गोली मारो सालो" को जैसे भड़काने वाले भाषण खुलेआम दिए गए। इसके बाद ही शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे लोगों पर गुंडों द्वारा गोलियां चलाई गईं। हालांकि  गोली चलाने के मामले में एक नाबालिग और कपिल गुर्जर को मौके पर ही पकड़ गया। 
अनुराग ठाकुर की तरह ही कपिल मिश्रा ने भी इसी तरह भड़काने वाले भाषण दिए। लेकिन पुलिस ने इनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की।
गोली मारने का जो काम वह उकसा कर दूसरों से करवाना चाहते हैं। वह खुद क्यों नहीं करके दिखाते हैं ?
असल में ये नेता धूर्त होते हैं लोगों को इनके बहकावे और उकसाने में नहीं आना चाहिए। लोगों को ख़ास कर युवाओं को अपनी जिंदगी ऐसे लोगों के चक्कर में बर्बाद नहीं करना चाहिए। नेता तो राज सुख  भोगता है और इनके उकसाने में आने वाला गोली चला कर जेल भोगता है।  लोगों में अगर जरा भी अक्ल है तो इन नेताओं से कहना चाहिए कि तुम खुद जाकर गोली मार कर दिखाओ तो पता चलेगा कि तुम दोगले नहीं हो। लोग अगर ऐसे नेताओं को पलट कर जवाब देने लग जाएं तो इनकी अक्ल ठिकाने लग जाएगी। 

कपिल मिश्रा जानबूझकर अपने समर्थकों के साथ उस जगह गया जहां पर मुस्लिम महिलाओं द्वारा शांतिपूर्वक धरना प्रदर्शन किया जा रहा था। इस वजह से दंगे हुए और आसपास के इलाकों में भी फ़ैल गए।

सत्ता सुख ही असली धर्म-
यह वही कपिल मिश्रा है जिसे मंत्री पद से हटा दिया तो उसे  केजरीवाल में बुराईयां ही बुराईयां दिखाई देने लगी और केजरीवाल के खिलाफ बोलने लगा। उसके पहले यह आराम से न केवल मंत्री पद का सुख भोग रहा था बल्कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में बहुत ही अपमानजनक भाषा में मंच से बोलता था। अनुपम खेर के सामने मोदी के बारे में बदतमीजी से बोलने का उसका वीडियो दुनिया ने देखा है। सत्ता सुख पाने के लिए फिर वह मोदी के चरणों में ही गिर गया। 
इन जैसे लोगों का एक ही धर्म है कि किसी भी तरह सत्ता सुख मिल जाए।
अब भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ चुके कपिल मिश्रा को लोगों ने भी नकार दिया।  
सुर्ख़ियो में रहने के लिए अनुराग ठाकुर और कपिल मिश्रा जैसे बयानवीर लोग भड़काने वाले बयान देते है।

गोलियां चली पर आपा नहीं खोया-
जिस मुस्लिम समुदाय के लोगों को दंगों के लिए जिम्मेदार माना जाता रहा है। जिनकी महिलाएं पर्दे में रहती हैं।
उस समुदाय की महिलाओं द्वारा इतने लंबे समय से शांतिपूर्ण तरीके से शाहीन बाग में धरना दिया जा रहा है।  गुंडों द्वारा उन पर गोलियां भी चलाई गईं इसके बावजूद इन लोगों ने आपा नहीं खोया और संयम का परिचय दिया। 
सरकार का कोई नुमाइंदा इन लोगों से बात करने या उनको समझाने के लिए शाहीन बाग नहीं गया। इन लोगों को गृहमंत्री आदि के निवास तक मार्च तक करने नहीं दिया गया। अब ऐसे में इनकी बात सरकार तक कैसे पहुंचे। सरकार की नीयत और कानून सही है तो वह इन लोगों से मिलने और बात करने से क्यों डरती है।

सत्ता के लठैत आईपीएस-
पुलिस की भूमिका - शांतिपूर्वक धरना, प्रदर्शन और मार्च की इजाजत न देकर पुलिस लोगों के संवैधानिक/ लोकतांत्रिक अधिकार का हनन कर रही है। 
सरकार चाहे किसी भी दल की हो पुलिस कमिश्नर और आईपीएस अफसर हमेशा सत्ता के लठैत की तरह ही काम करते हैं।
आईपीएस अफसर महत्वपूर्ण पदों पर तैनाती के लिए नेताओं के सामने नतमस्तक हो जाते हैं। 
कांग्रेस के राज में 2011 में  रामलीला मैदान में रात के समय तत्कालीन पुलिस कमिश्नर बृजेश कुमार गुप्ता और आईपीएस धर्मेंद्र कुमार के नेतृत्व में  पुलिस ने सोते हुए महिलाओं और बच्चों पर लाठीचार्ज किया और आंसू गैस का इस्तेमाल कर फिंरगी राज़ को भी पीछे छोड़ दिया। सलवार पहन कर भाग रहे रामदेव को पकड़ा था।

सरकार का विरोध करना देशद्रोह नहीं होता-

सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस दीपक गुप्ता का कहना है कि जब तक कोई प्रदर्शन हिंसात्मक नहीं हो जाता,तब तक सरकार को उसे रोकने का अधिकार नहीं है।
सरकारें हमेशा सही नहीं होती। बहुसंख्यकवाद लोकतंत्र के खिलाफ है। 

जस्टिस दीपक गुप्ता ने कहा कि अफसोस की बात है कि आज देश में असहमति को देशद्रोह समझा जा रहा है। असहमति की आवाज को देश विरोधी या लोकतंत्र विरोधी करार देना संवैधानिक मूल्यों पर चोट है। 
सरकार और देश दोनों अलग हैं। सरकार का विरोध करना आपको देश के खिलाफ खड़ा नहीं करता।
हाल के दिनों में विरोध करने वालों को देशद्रोही बता दिया गया। उन्होंने कहा अगर किसी पार्टी को 51 फीसदी वोट मिलता है तो इसका मतलब यह नहीं है कि बाकी 49 फीसदी लोग पांच साल तक कुछ नहीं कहेंगे। लोकतंत्र 100 फीसदी लोगों के लिए होता है। इसलिए हर किसी को लोकतंत्र में अपनी भूमिका का अधिकार है।















Friday 14 February 2020

महिला की FIR दर्ज न करने वाले सदर बाजार थाने को CP, IPS ने चुना सर्वश्रेष्ठ थाना। घिटोरनी थाने को भी सर्वश्रेष्ठ थाना चुना जाना चाहिए

महिला की FIR दर्ज न करने वाले सदर बाजार थाने को IPS ने चुना सर्वश्रेष्ठ थाना।
घिटोरनी थाने को भी सर्वश्रेष्ठ थाना चुना जाना चाहिए-

इंद्र वशिष्ठ

लूट की शिकार हुई महिला की रिपोर्ट तक दर्ज नहीं करने वाले सदर बाजार थाना को दिल्ली पुलिस का सर्वश्रेष्ठ थाना चुना गया है। शिकायतकर्ता की शिकायत तक रिसीव नहीं करने वाले फर्श बाजार थाना को भी सर्वश्रेष्ठ थाना चुना गया है।

दिल्ली पुलिस के काबिल आईपीएस अफसरों द्वारा तीन थानों को सर्वश्रेष्ठ थाना घोषित किया गया है। इनमें प्रथम स्थान सदर बाजार थाना,दूसरा स्थान कालकाजी थाना और तीसरा स्थान फर्श बाजार थाना को मिला है। इन थानों के एस एच ओ को पुलिस दिवस पर आयोजित समारोह में ट्राफी दे कर सम्मानित किया जाएगा।

इस मामले से पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक और  आईपीएस अधिकारियों की भूमिका पर सवालिया निशान लग गया है।

सर्वश्रेष्ठ सदर बाजार थाना की करतूत-

महिला लुटी और कार के नीचे आते-आते बची।  सदर बाजार थाना पुलिस ने एफआईआर तक  दर्ज नहीं की--

16 सितंबर 2019 को सदर बाजार इलाके में स्कूटर सवार  लुटेरे ने एक महिला से चेन छीनने में ऐसा झटका मारा कि वह सड़क पर गिर गई। महिला के पीछे से वैन और सामने से कार आ रही थी महिला कार के नीचे आते-आते बची। पुलिस को 100 नंबर पर  कॉल की गई। पीसीआर महिला को थाने ले गई। पुलिस ने एफआईआर दर्ज नहीं की।
महिला से एक सादे काग़ज़ पर शिकायत लिखवा ली गई। महिला के पति ने खुद लोगों के पास जाकर सीसीटीवी फुटेज दिखाने की गुहार लगाई। इसके बाद वारदात का सीसीटीवी फुटेज सामने आया। वारदात की जगह पर पुलिस का सीसीटीवी कैमरा भी लगा हुआ है लेकिन वह शो-पीस बन हुआ है।
 आरोप है कि सीसीटीवी फुटेज पुलिस को दिए जाने के बाद भी पुलिस ने कोई कार्रवाई नहीं की। वारदात को अंजाम देने के बाद भी वह लुटेरा इलाके में ही घूमता देखा गया। सीसीटीवी फुटेज में लुटेरे के स्कूटर का नंबर भी साफ़ है। 23 सितंबर को समाचार पत्र में यह मामला उजागर होने पर  पुलिस ने एफआईआर दर्ज की।

महिला डीसीपी मोनिका भारद्वाज के होते हुए पीड़ित महिला की रिपोर्ट न दर्ज करने से पुलिस का संवेदनहीन चेहरा उजागर हो गया।

वैसे अपराध कम दिखाने के लिए एफआईआर दर्ज न करने में डीसीपी मोनिका भारद्वाज माहिर हैं।
मोनिका भारद्वाज ने पश्चिम जिला की डीसीपी रहते हुए 88 वारदात एक ही एफआईआर में दर्ज करने का कारनामा किया था।
यह जग जाहिर है कि सदर बाजार थाना को दिल्ली के सबसे मलाईदार थानों में गिना जाता है।
सड़क और पटरी पर अतिक्रमण कर धंधा करने वाले पुलिस की उगाही का बहुत बड़ा जरिया है।
आईपीएस अधिकारियों के अलावा पूरी दुनिया को  यह सब कुछ दिखाई देता है

फर्श बाजार थाना की करतूत-

10 फरवरी 2020 को एक व्यक्ति फर्श बाजार थाना में शिकायत दर्ज कराने गया। उसने अपनी लिखित शिकायत पुलिस को दी। शिकायतकर्ता एसएचओ ए के सिंह से मिला। लेकिन पुलिस ने शिकायत पत्र को रिसीव तक करने से मना कर दिया। शिकायतकर्ता के वकील सत्य प्रकाश शर्मा ने स्पेशल कमिश्नर (कानून- व्यवस्था) सतीश गोलछा को फोन किया तब सतीश गोलछा के दखल के बाद शिकायत पत्र को रिसीव किया गया और उस पर मुहर लगाई गई।

पुलिस कमिश्नर और आईपीएस की भूमिका पर सवालिया निशान-

जिस सदर बाजार थाने में लुटेरों की शिकार महिला की रिपोर्ट तक दर्ज नहीं की जाती है। जिस फर्श बाजार थाने में आम आदमी का  शिकायत पत्र रिसीव तक नहीं किया जाता है। उन थानों को सर्वश्रेष्ठ थाना चुना जाना पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक और वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों की भूमिका पर सवालिया निशान लगाता है।

शिकायत पत्र रिसीव तक नहीं करते-

वैसे यह हाल पूरी दिल्ली के थानों में है। बिना सिफारिश या पैसे दिए बिना आम आदमी की शिकायत रिसीव तक नहीं की जाती है यानी उसके शिकायत पत्र पर पुलिस मुहर तक आसानी से नहीं लगाती।
ओखला औद्योगिक इलाके में एक फैक्टरी के मालिक  ने बताया कि कुछ दिन पहले उसे अपनी शिकायत रिसीव कराने यानी मुहर लगवाने के लिए पांच हजार रुपए देने पड़े।


घिटोरनी थाने को भी  सर्वश्रेष्ठ थाना चुना जाना चाहिए-

मेट्रो में एक लड़की के सामने एक युवक द्वारा अश्लील हरकतें करने की शर्मनाक वारदात सामने आई। घबराई हुई लड़की ने हिम्मत कर मोबाइल से आरोपी की फोटो खींच ली।
लड़की इस मामले में एफआईआर दर्ज कराने मेट्रो के घिटोरनी थाने गई। वहां कोई महिला सिपाही नहीं थी। वहां मौजूद हवलदार को लड़की ने सारी बात बताई। इसके बावजूद हवलदार ने एफआईआर दर्ज करने से साफ़ मना कर दिया। लड़की ने पुलिस की महिला हेल्पलाइन पर मदद मांगी तब एफआईआर दर्ज की गई। लड़की ने टि्वट कर आपबीती बताई।

पुलिस कमिश्नर नाकारा-
 डीसीपी और एस एच ओ के खिलाफ कार्रवाई करने की तो पुलिस कमिश्नर में हिम्मत नहीं हैं। इसलिए पुलिस कमिश्नर सदर बाजार थाना की तरह घिटोरनी थाने को भी सर्वश्रेष्ठ थाना तो घोषित कर ही सकते हैं।

इन मामले ने पुलिस के महिलाओं के प्रति संवेदनशील होने के दावे की एक बार फिर से धज्जियां उड़ाई हैं।