Tuesday 20 September 2011

किरण बेदी, आमोद कंठ का समाज कल्याण या अपना कल्याण ?




समाज कल्याण या अपना कल्याण,-जागों लोगों जागों -लोगों इन्हें भी पहचानों
इंद्र वशिष्ठ
सावधान: बेईमान नेताओं से ही नहीं अन्ना की टोली  से भी लोगों को चौकन्ना रहना चाहिए। लोग अगर समय रहते नहीं चेते तो बाद में पछताना भी पड सकता है। इसलिए लोगों को इन पर भी आंख मूंद कर भरोसा नही करना चाहिए। अन्ना टोली भी दूध की धुली नहीं लग रही है। कहीं ऐसा न हो कि भ्रष्ट नेताओं से दुखी लोगों का इस्तेमाल अन्ना टोली  अपने फायदे के लिए कर लें और बाद में लोग खुद को ठगा हुआ पाए।  अन्ना टोली के आचरण ,चरित्र और ईमानदारी की परख खुले दिमाग और विवेक से लोग करे तो उनके सामने अन्ना की टोली के लोगों की असलियत आते देर नहीं लगेगी। अन्ना टोली की किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल आदि एनजीओ चलाते है। विदेशो से भी उनको मोटी रकम मिलती है। लेकिन ये एनजीओ को लोकपाल के दायरे में नहीं लाना चाहते है। इसका मतलब ये नहीं चाहते कि उनको मिले धन का हिसाब-किताब कोई उनसे मांगें। अगर एनजीओ मिले धन का इस्तेमाल ईमानदारी से सेवा के कार्य में कर रहें है तो लोकपाल के दायरे से बाहर क्यों रहना चाहते है? एनजीओ वाले दान में मिले धन का इस्तेमाल अपने निजी हित के लिए तो नहीं कर रहे यह जानने का हक दानदाता को ही नहीं आम आदमी को भी होना चाहिए।
 किस तरह सरकारी अफसर पद का दुरुपयोग अपने निजी फायदे के लिए करते है इसका सबसे बडा उदाहरण पूर्व पुलिस अफसर किरण बेदी और आमोद कंठ है। दिल्ली पुलिस ने समाज सेवा के मकसद से प्रयास और नवज्योति संस्थाएं दो दशक पहले बनाई थी। आमोद कंठ और किरण बेदी इन संस्थाओं के महासचिव थे। लेकिन इन दोनों धूर्त अफसरों ने अपने निजी हित के लिए पुलिस का मानवीय चेहरा दिखाने वाली पुलिस की इन दोनों संस्थाओं को चालाकी से हथिया कर उसका निजीकरण कर लिया। इसके बाद भी इन दोनो ने दिल्ली पुलिस के संसाधनों और पुलिसवालों का इस्तेमाल अपने एनजीओ के  लिए किया।  किरण बेदी ने पुलिस थानों की इमारतों का इस्तेमाल अपने एनजीओ के लिए किया। पुलिस वालों से चंदा एकत्र यानी वसूल कराया गया।  क्या पुलिस अफसर रहते अपने निजी फायदे के लिए पुलिस मशीनरी का इस्तेमाल करना बेईमानी नहीं है? इससे ही साफ पता चलता है कि इन अफसरों ने वेतन तो सरकार से लिया लेकिन उस दौरान कार्य पुलिस का नहीं अपना निजी किया। क्या यह सरासर बेईमानी नहीं है? किरण बेदी ने पहली महिला आईपीएस होने को सबसे ज्यादा मीडिया में भुनाया। किरण बेदी को जरुरत से ज्यादा प्रचारित करने वाले मीडिया ने अपनी भूमिका ईमानदारी से निभाई होती तो लोगों के सामने बहुत पहले ही उनकी ईमानदार और काबिल अफसर होने के दावे की पोल खुल जाती। ये  देश-विदेश से असहाय लोगों की मदद करने के नाम पर दान में मोटी रकम लेते है। लेकिन  इनाम पाने की नीयत से कथित सेवा के नाम पर अपना प्रचार करते है।
  इन पूर्व अफसरों के एनजीओ का सरकार को अधिग्रहण कर लेना चाहिए। क्योंकि इन दोनो एनजीओ की  असली मालिक तो दिल्ली पुलिस और वो जनता है जिनसे इन एनजीओ के लिए पुलिस ने पैसे एकत्र या वसूल किए थे। दिल्ली में पिछले विधान सभा चुनाव मे आमोद कंठ तो कांग्रेस के टिकट पर चुनाव हार चुके है आमोद कंठ की तरह किरण बेदी भी अगर नेता बनना चाहती है तो उनका भ्रम भी लोगों को दूर कर देना चाहिए। जिस अफसर ने अपनी डयूटी ही ईमानदारी से नहीं की हो और पुलिस की संस्थाओं को हडप  लिया हो वह लोगों का नुमाइंदा बनने लायक कैसे हो सकता है

 अगर पुलिस अफसर ईमानादारी से अपनी डयूटी ही कर लें तो वही सबसे बडी सेवा होगी। इसके बाद उनको सेवा करने के लिए अलग से कोई एनजीओ बनाने की जरुरत ही नहीं पडेगी और न ही एनजीओ के लिए उसके पास वक्त होगा। अपनी डयूटी को ईमानदारी से न करने वाले अपने निजी फायदे के लिए इस तरह के काम करते है। सरकार को भी सरकारी अफसरों के एनजीओ बनाने पर रोक लगानी चाहिए। अरविंद केजरीवाल ने भी इनकम टैक्स अफसर रहते हुए अपना एनजीओ बनाया । सरकारी अफसरों को वेतन जिस कार्य के लिए दिया जाता है उसके अलावा अपने पद का दुरुपयोग कर दूसरा कार्य करना क्या बेईमानी नहीं होती?
 चाणक्य से एक बार सिकंदर का एक दूत मिलने आया तो चाणक्य ने उससे पूछा कि राजकीय बातचीत करने आए हो या निजी। दूत ने कहा निजी इस पर चाणक्य ने दीया बुझा दिया और कहा कि इस दीये में राजकीय तेल है। सरकारी पद या सुविधा का इस्तेमाल निजी फायदे के लिए करने वाले नेताओं और अफसरों को इससे सीख लेनी चाहिए। मुंबई में प्रफेसर रहे संदीप देसाई रोजाना रेल में  भीख मांग कर गरीब बच्चों के लिए स्कूल बनवाने का कार्य कई साल से कर रहे है। समाज कल्याण की भावना का यह बडा उदाहरण है। वर्तमान माहौल में सिर्फ मीडिया में किसी व्यकित के महिमा मंडन के आधार पर लोगों को प्रभावित नहीं होना चाहिए। लोगों को अपने स्तर पर भी उस व्यकित के बारे में खुले दिमाग से मालूम करना चाहिए ताकि बाद में पछताना न पडे। मीडिया खासकर न्यूज चैनल तो भेडचाल में काम कर रहे है। बेईमान नेताओं को तो चुनाव में हराने का मौका लोगों के पास आएगा। लेकिन समाज कल्याण के नाम पर अपना कल्याण करने वाले एनजीओ वालों पर अंकुश लगाने की व्यवस्था भी लोगों के हाथ में होनी चाहिए है।

Friday 16 September 2011

अरविंद केजरीवाल का कारनामाः निजी हित बना जन हित


इंद्र वशिष्ठ
निजी हित को किस तरह जनहित का नाम दिया जा सकता है इसका अनूठा उदाहरण अरविंद केजरीवाल ने पेश किया है। अपने फायदे के लिए अन्ना का किस तरह इस्तेमाल किया जा सकता है ये भी केजरीवाल ने दिखा दिया है। केजरीवाल को इनकम टैक्स विभाग ने 9 लाख रुपए का भुगतान करने का नोटिस 5 अगस्त को दिया थां। केजरीवाल ने इस नोटिस के जवाब में मीडिया को जो बयान दिए है उनसे ही यह बात साफ हो जाती है कि इनकम टैक्स विभाग का उनसे पैसा वापस मांगना बिलकुल जायज है। केजरीवाल ने बताया कि दो साल  तक वह स्टडी लीव पर थे इस दौरान उनको वेतन मिलता रहा। इसके लिए बांड में शर्त थी कि छुटटी से वापस आने के बाद तीन साल तक अगर वह नौकरी छोडते है तो उन्हें स्टडी लीव के दौरान मिला वेतन वापस करना होगा। 1 नवंवर 2002 को केजरीवाल ने नौकरी वापस ज्वॉइन की और सवा साल बाद लीव विदाउट पे पर चले गए। इसके बाद फरवरी 2006 में इस्तीफा दे दिया। इस पर इनकम टैक्स विभाग ने दो साल का वेतन उसका ब्याज और कंपयूटर लोन के तौर पर लिए रुपए चुकाने के लिए केजरीवाल को नोटिस दिया। केजरीवाल ने 2006-7 में इनकम टैक्स विभाग से कहा कि  चंूकि वह आरटीआई के लिए काम कर रहे थे इसलिए मेरे मामले को जनहित में सरकार वेव ऑफ यानी माफ कर दें। केजरीवाल का कहना है कि सीबीडीटी के चेयरमैन ने भी उनको छूट देने की सिफारिश की थी लेकिन रेवेन्यू सेक्रेटरी इसके लिए राजी नहीं हुए और उनको स्टडी लीव के दौरान दिया गया वेतन वापस करने को कहा गया। इस पर केजरीवाल ने कहा कि उनके खाते में सिर्फ बीस हजार रुपए है। केजरीवाल के बयान से ही यह बात पूरी तरह साफ हो जाती है कि विभाग 2006 से ही रकम वापस करने के लिए केजरीवाल से कह रहा था केजरीवाल ने वेतन की रकम तो दूर कंपयूटर  लोन की रकम तक वापस नहीं की। केजरीवाल के बयान से ही यह भीे साफ है इनकम टैक्स विभाग का उनसे रकम वापस मांगना नियमानुसार और जायज है। वरना केजरीवाल सरकार से इसे जनहित का मामला मान कर माफ करने की मांग क्यों करतें? वेतन की रकम वापस करने से बचने के लिए सरकार से छूट मांगने वाले केजरीवाल शायद ये भूल गए कि वे उस रकम को वापस नहीं करना चाहते जो कि करदाताओं की  है। उस करदाता की जिनके हित की लडाई लडने की दुुहाई देते वह थकते नही। क्या यह केजरीवाल का दोहरा चऱित्र नहीें है?  केजरीवाल ने यह भी कहा कि वह इस बारे में अन्ना हजारे से पूछेंगे। ये तो केजरीवाल का नौकरी के दौरान का विभागीय और निजी मामला है। ये मामला जनहित या  आंदोलन का तो है नहीं । जिसके बारे में अन्ना से पूछने की बात केजरीवाल कर रहे है। इस तरह तो वह निजी फायदे के लिए अन्ना या उन लोगों का इस्तेमाल करना चाहते है जो उनसे जुडे है।  केजरीवाल के बयान विरोधाभासी और गुमराह करने वाले है एक ओर कहते है कि राजनीतिक आकाओं के दबाव में उनको इस समय इनकम टैक्स विभाग ने नोटिस दिया है। जबकि खुद ही कहते है कि पहले भी नोटिस दिए गए थे।केजरीवाल भी तो इस मामले मे राजनीति कर रहे है। माना कि अब राजनीतिक दबाव में नोटिस दिया गया है लेकिन सच तो यह है  ही कि सरकार का बकाया है तो उसे वसूला जाना ही चाहिए।  सरकार को भी यह सुनिश्चित करना चाहिए कि आइंदा भी जनहित के नाम पर किसी सरकारी अफसर का बकाया माफ न किया जाए। पैसा तो करदाताओं का है किसी के निजी हित के लिए बकाया माफ करना  जनहित नहीं होता।