Friday 28 October 2011

IPS ले तो उपहार, दूसरा ले तो भ्रष्टाचार




पुलिस अपने दाग छिपाए औरों के दिखाए---

इंद्र वशिष्ठ
दिल्ली ट्रैफिक पुलिस की फेसबुक पर ट्रैफिक नियम तोड़ने वालों की पहचान का खुलासा करने पर हाईकोर्ट ने एतराज किया और कहा कि उस व्यकित की जानकारी को फेसबुक पर डालने की कोई जरुरत नहीं है। जिसके बाद ट्रैफिक पुलिस ने अब नियम तोड़ने वाले की पहचान का खुलासा फेसबुक पर करना बंद कर दिया है। हाईकोर्ट में सवाल उठने पर पुलिस ने यह कदम उठाया है। इसका मतलब है कि पुलिस अभी तक अपनी मर्जी से ऐसा कार्य कर रही थी जिसकी कानून इजाजत नहीं देता या कानून जिसे सही नहीं मानता है। ऐसे में उन अफसरों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए जो अब तक ऐसा कर रहे थे।
पुलिस का दोगलापन-इस मामले से एक अहम सवाल उठता है जो पुलिस की ईमानदारी-निष्पक्षता-पारदर्शिता और विश्वसनीयता पर सवालिया निशान लगा देता है और यहीं मुख्य वजह है कि लोग आज भी पुलिस  पर पूरी तरह से भरोसा नहीं करते। ट्रैफिक नियम तोड़ने वालों की पहचान फेसबुक पर उजागर कर वाहवाही लूटने वाली पुलिस अपने उन आला अफसरों की पूरी पहचान और करतूत का पूरा खुलासा अपनी वेबसाइट या फेसबुक पर क्यों नहीं करती जो भ्रष्टाचार-अपराध-बेकसूरों को फंसाने-बम विस्फोट जैसे मामलों को सुलझाने का भी झूठा दावा कर बारी से पहले तरक्की लेने आदि के गंभीर मामलों  में शामिल  है। असल में पुलिस हमेशा कमजोर आम आदमी के मामले का तो ढिंढोंरा पीट कर प्रचार करती है। लेकिन जहां मामला आला अफसर या वीआइपी नेता का हो तो पुलिस को सांप सूंघ जाता है और वह चुप्पी साध लेती है। पुलिस की इस दोगलेपन की भूमिका के कारण ही लोगों का पुलिस पर भरोसा नहीं है।


 छाज बोले सो बोले छलनी भी बोले जिसमें बहत्तर छेद- दूसरा पुलिस में महत्वपूर्ण पदो पर नियुक्ति पर ही सवालिया निशान लगते रहते है। अब ट्रैफिक पुलिस के  संयुक्त पुलिस आयुक्त सत्येंद्र गर्ग को ही ले दूसरों के फेस फेसबुक पर दागदार करके खुश होने वाले गर्ग का फेस भी दूसरों से कम दागदार नहीं है। ऐसे अफसरों के असली फेस भी फेसबुक पर उजागर होने चाहिए।
खुद लें तो उपहार दूसरा लें तो भ्रष्टाचार- नंवबर 1999 में माडल टाउन के एमएलए कंवर कर्ण सिंह के सौतले भाई की हत्या कर दी गई। हत्या के मुख्य अभियुक्त प्रापर्टी डीलर राजेश शर्मा की पिस्तौल का लाइसेंस उसके दोस्त सुशील गोयल ने उत्तर -पश्चिम जिला के  तत्कालीन डीसीपी सत्येंद्र गर्ग की सिफारिश से बनवाया था। राजेश के खिलाफ इसी जिले की पुलिस ने एक मामले मे कार्रवाई की थी इसके बावजूद राजेश का लाइसेंस बनाया गया। इसके साथ ही इस संवाददाता को यह सनसनीखेज सूचना मिली कि सत्येंद्र गर्ग ने सुशील गोयल की पत्नी से एक विदेशी पिस्तौल उपहार में लिया है। विदेशी पिस्तौल का बाजार भाव उस समय भी एक लाख से तो ज्यादा ही था। पिस्तौल उपहार में लेने के बारे में गर्ग ने इस संवाददाता को जो तर्क दिए वह हास्यास्पद है। गर्ग ने कहा कि अपने लाइसेंस की वैधता के लिए उन्होंने पिस्तौल लिया है। उल्लेखनीय है कि लाइसेंसिंग विभाग के रिकार्ड में पिस्तौल उपहार के रुप में दर्ज कराई गई। जहां तक लाइसेंस की वैधता का सवाल है तो कोई सामान्य आदमी भी हथियार खरीदने का समय/ वैधता बढ़वा सकता है तो ऐसे में क्या एक पुलिस अफसर को उसका ही विभाग यह सुविधा  नहीं देता
16 नंवबर 1999 के सांध्य टाइम्स में यह खबर प्रकाशित होने के बाद पुलिस में हडकम्प मच गया। है। गर्ग को पिस्तौल लौटानी पडी। लेकिन इससे उनका दाग नहीं धुल जाता।  क्या कोई बिना अपने किसी फायदे के किसी को इतना महंगा उपहार देता है? पिस्तौल उपहार में देने को रिश्वत देने का  एक नायाब तरीका तक कहा गया। तत्कालीन पुलिस कमिश्नर अजय राज शर्मा ने 18 नंवबर को सत्येंद्र गर्ग को जिला उपायुक्त के पद से हटा दिया और  अपराध शाखा के तत्कालीन अतिरिक्त पुलिस आयुक्त के के पॉल को पिस्तौल उपहार मामले की जांच सौंपी। पॉल ने भी पिस्तौल उपहार में लेने को भ्रष्टाचार माना।कई साल तक गर्ग को किसी महत्वपूर्ण पद पर तैनात नहीं किया गया। कुछ साल पहले तत्कालीन पुलिस कमिश्नर डडवाल की कृपा से गर्ग को अपराध शाखा और बाद में ट्रैफिक में तैनात कर दिया गया। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि गृह मंत्रालय में जुगाड़ और पुलिस कमिश्नर की कृपा हो  तो  तो दागी अफसर भी अच्छा पद पा जाता है। 
3 जी का कमाल-   सत्येंद्र गर्ग का कहना था  कि सुशील गोयल से उसकी मुलाकात बी के गुप्ता( वर्तमान पुलिस कमिश्नर)ने कराई थी। गोयल के अपराधियों से संबंध होने की उन्हें कोई जानकारी नहीं थी। सुशील गोयल का कहना था कि बी के गुप्ता तो उसके बड़े भाई जैसे है और गर्ग के अलावा संदीप गोयल़( अपराध शाखा के वर्तमान संयुक्त पुलिस आयुक्त ) आदि से भी उसके अच्छे संबंध है। इस मामले ने भ्रष्टाचार के साथ-साथ पुलिस अफसरों के जाति प्रेम को भी उजागर किया। पिस्तौल लेने-देने वाले और मिलवाने वाले का एक ही जाति का होना क्या महज संयोग होगा?
लाइसेंस में जातिवाद-चर्चा तो यह भी है कि उत्तर-पश्चिम जिले के हथियार के सभी लाइसेंस की अगर जांच की जाए तो  पता चल जाएगा  की किस अफसर ने लाइसेंस बनाने में  जातिवाद किया  और उस जिले में रहें किस अफसर ने किस रेल मंत्री से मुफत रेल या़त्रा का पास लिया था। 
कितने ईमानदार, पेशेवर और काबिल है?-फेसबुक पर आई फोटो के आधार पर चालान करना या फिल्म स्टार के साथ फोटो खिंचवा कर वाहवाही बटोरना आसान  है। लेकिन लोगों की जान खतरे में डालने वाले उत्पाती बाइकर्स समूह तक के खिलाफ फेस टु फेस जाकर कार्रवाई करने की हिम्मत या पेशेवर काबलियत ट्रैफिक पुलिस के अफसरों में भी नहीं दिखती है। क्रिकेट वल्ङ कप जीतने पर आईटीओ चैराहे के पास रात मे सोनिया गांधी ने बीच सड़क पर गाड़ी खड़ी कर रास्ता रोका। सोनिया और  गाड़ी के चालक ने सीट बेल्ट भी नहीं लगाई थी। न्यूज चैनलों पर यह सब दिखाया गया लेकिन ट्रैफिक पुलिस ने नियम तोड़ने वाली इस वीआइपी के खिलाफ काईवाई नहीं की?
पुलिस की कथनी और करनी में जब तक  अंतर  रहेगा उस पर लोग भरोसा करेंगे ही नहीं है। ईमानदारी और निष्पक्षता बातों से नहीं आचरण से जाहिर होती है। पुलिस अगर लोगों का भरोसा पाना चाहती है तो उसे अपना यह दोगलापन छोडना होगा।
-------आईपीएस लें तो उपहार दूसरा लें तो भ्रष्टाचार----


Thursday 27 October 2011

किरण बेदी का क्राइम



इंद्र वशिष्ठ
किरण बेदी द्धारा एयर इंडिया के विमानों में 75 प्रतिशत रियायत पर इकनॉमी क्लास में किए गए सफर का विभिन्न संस्थाओं के आयोजकों से बिजनेस क्लॉस की टिकट का किराया वसूलना स्पष्ट रुप से आपराधिक मामला है। किरण बेदी उनके ट्रस्ट और किराए की जाली रसीद बनाने वाली ट्रैवल एजेंसी फलाईवेल के मालिक अनिल बल इसमें समान रुप से शामिल है। इन सभी के खिलाफ पहली नजर में आपराधिक साजिश रचने की आईपीसी की धारा 120 बी, धोखाधड़ी 420, धोखाधड़ी के लिए जालसाजी 468,दस्तावेजों में जालसाजी 471 और कामन इंटेशन की धारा 34 के तहत अपराधिक मामला बनता है। महत्वपूर्ण बात यह है कि यह अपराध इन लोगों ने एक बार या अनजाने में नहीं किया बल्कि किसी आदी मुजरिम की तरह पैसा वसूलने के मकसद से साजिश रच कर बार-बार किया  है। अपराध के मामले में  नीयत ( इंटेशन) और मकसद( मोटीव) को देखा जाता है। किरण बेदी के मामले में गलत नीयत और ज्यादा रकम वसूलने का मकसद बिलकुल स्पष्ट है। पुलिस सर्विस के दौरान भी इस तरह पैसा वसूलने की जानकारी बेदी ने विभाग से छिपाई  वरना बेदी के खिलाफ विभागीय एक्शन भी होता।
उल्लेखनीय है कि पूर्व मंत्री ए राजा आदि के खिलाफ भी आइपीसी की इन्हीं धाराओं के तहत मुकदमा चल रहा है।इस तरह राजा और बेदी बराबर है।
जाली रसीद- पैसा वसूलने के मकसद से बिजनस क्लास में सफर  की जो रसीदें आयोजकों को दी गई वह जाहिर है कि जाली ही थी क्योंकि जो किराया बेदी ने खर्च ही नहीं किया स्पष्ट है कि उसकी रसीद असली तो हो ही नहीं सकती। किरण बेदी का यह कहना कि उनका मकसद इस तरह अपने एनजीओ के लिए पैसा बचाना था इसमें कोई पर्सनल फायदा नहीं उठाया। पूर्व आइपीएस और लॉ ग्रेजुएट किरण बेदी को शायद कानून की मामूली समझ भी नहीं है वर्ना अपराध के इस मामले में वह इस तरह के हास्यापद तर्क न देती। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि कितनी काबिल अफसर रहीं होगी किरण? एनजीओ भी उनका है और यात्राओं का ज्यादा पैसा  भी उन्होंने हीं वसूला तो यह पर्सनल फायदा नही तो क्या है ?
किरण बेदी ने कहा कि ट्रैवल एजेंसी ने रसीद जारी कर आयोजकों से पैसे लिए थे इसलिए एजेंसी को पैसा लौटाने को कहा है। पैसा ट्रैवल एकाउंट में पड़ा है जबकि पहले किरण ने कहा था कि यह पैसा मेरे एनजीओ को गया है। उल्लेखनीय है कि अगर कोई लुटेरा लूट की रकम दान कर दें तो भी उसका अपराध खत्म नही हो जाता। रोहिणी में एक बार एक ठेकेदार ने सरकारी कर्मचारियों से मिलीभगत कर सड़क सिर्फ फाइलों में बनी दिखा कर सरकार को चूना लगा दिया था। किरण का मामला भी ऐसा ही है बिजनस क्लास में सफर किए बिना ही उसकी रसीद देकर पैसा वसूल लिया ।  किरण बेदी ने वीरता पदक के आधार पर हवाई किराए में छूट का फायदा उठाया लेकिन आयोजकों से बढा- चढा कर किराए के पैसे वसूले।
पूर्व मुख्य न्यायधीश जे एस वर्मा ने किरण बेदी को आड़े हाथों लिया और कहा कि जो पैसा आपने खर्च नहीं किया हो उसे दूसरे से लेना हरगिज स्वीकार्यनहीं है।इससे भी आपत्तिजनक  बात यह है कि बेदी ने इसका यह कह कर बचाव किया कि यह रकम उन्होंने अपने लिए नहीं ली। 

Friday 7 October 2011

अन्ना और नेता वोट के ठेकेदार


अन्ना और नेता वोट के ठेकेदार
इंद्र वशिष्ठ
अन्ना के बारे में भी लोगों को खुले दिमाग और गंभीरता से विचार करने की जरुरत है। लोगों को यह सोचना चाहिए कि वोट किसे दें इसका फैसला करने का हक उनका है या नेता और अन्ना उनको बताएंगे कि वोट किसे देना है । क्या लोग खुद इस लायक नहीं है कि किसे वोट देना  चाहिए है इसका फैसला वह स्वयं कर सकें ? नेताओं या अन्ना जैसों के कहने पर अगर लोग वोट देते है तो लोगों की समझदारी और विवेक पर सवालिया निशान लग जाता है। ऐसे में चुनाव को स्वतंत्र और निष्पक्ष कैसे कहा जा सकता है। क्या लोगों में  अपना उम्मीदवार खुद चुनने की अक्ल नहीं है? क्या लोग भेड़चाल में चलना  चाहते है? जिसे कभी नेता तो कभी अन्ना जैसे अपने फायदे के लिए हांकते रहें। वोट देने के अपने हक को किसी को हड़पने न दें।
 नेता,अन्ना या मीडिया पर आंख मूंद कर भरोसा करने की बजाए लोगों को जागरुक हो कर अपने विवेक से वोट देने का फैसला करना चाहिए। अन्ना हजारे और बीजेपी किस तरह लोगों को गुमराह कर रहे है। इस का अंदाजा  अन्ना और बीजेपी नेताओं के बयानों से लगाया जा सकता है। अन्ना हजारे ने मीडिया को बताया कि बीजेपी अध्यक्ष ने उनको पत्र लिख कर जन लोकपाल बिल का समर्थन किया है। इन दोनों के बयानों में  सत्य और तथ्य नहीं  है। एक तरह से दोनों अपने-अपने फायदे के लिए सिर्फ अर्धसत्य बोल रहे है। सचाई यह है कि  बीजेपी अध्यक्ष ने अपने पत्र में  बिलकुल भी यह नहीं कहा  कि वह अन्ना के जनलोकपाल बिल को उसके सभी प्रावधानों समेत हू-ब-हू स्वीकार करते है। यह जगजाहिर है कि पहले बीजेपी नेता संसद में और लोगों की बीच कहते रहे है कि वह अन्ना के जनलोकपाल बिल के अनेक प्रावधानों से वह सहमत नहीं है। बीजेपी जजों और संसद में सांसदों के आचरण को लोकपाल के दायरे में लाए जाने के पक्ष में नहीं है।
अन्ना हजारे ने 4 अक्टूबर को मीडिया में बीजेपी अध्यक्ष के पत्र के बारे में इस तरह बयान दिया जैसे कि बीजेपी ने अन्ना के जनलोकपाल बिल को पूरी तरह स्वीकार कर लिया है। अन्ना और उसकी टोली  का कहना है  कि बीजेपी ने तो उनके बिल को समर्थन करने का पत्र दे दिया । कांग्रेस अगर शीतकालीन सत्र में जन लोकपाल बिल को पारित कराने के लिए समर्थन पत्र उनको नहीं देती तो वह चुनाव में कांग्रेस को वोट न देने की अपील करेंगे। अन्ना के बयान के बाद न्यूज चैनलों पर चर्चा के दौरान भी अन्ना की टोली और बीजेपी नेता इस तरह के बयान दे रहे है जैसे कि बीजेपी ने अन्ना के जनलोकपाल को पूरी तरह मान लिया है।
बीजेपी का तो इस तरह के बयान देना मौके का फायदा उठाने की राजनीति है। लेकिन अन्ना के इस तरह के बयान देना भी राजनीति नहीं तो ओर क्या  है? इस तरह के बयान देकर तो अन्ना बीजेपी के पक्ष में माहौल बनाने की राजनीति करते ही दिखाई दे रहे है।  अन्ना दूसरें दलों के बारे में कुछ नहीं कह रहे हैं। क्या दूसरे सभी दल अन्ना के बिल को पास कराने का पत्र उनको दे चुकें है?  यह ठीक है कि कांग्रेस सरकार चला रही है। लेकिन वह अकेले नहीं कई दलों की मदद से सरकार चला रही है। वह ऐसे में कोई भी काम उसी सीमा तक कर सकती है जहां तक सहयोगी दल उसे इजाजत देंगे। ऐसे में सिर्फ कांग्रेस को निशाना बनाना क्या उचित है? यदि सत्ताधारी दल जो चाहे वह करा सकता है तो संसद के अनेक सत्र विपक्ष के अवरोध के कारण बेकार क्यों जाते?
 अन्ना का मकसद चाहे कितना सही हो लेकिन इस तरह के धमकीनुमा बयान से तानाशाही और राजनीति की गंध आती है।  इस मामले में मीडिया खास तौर पर न्यूज चैनल की भूमिका भी सही नहीं है। मीडिया का कार्य किसी का भोंपू बन कर लोगों को गुमराह करना नहीं होता। मीडिया का कार्य होता है कि वह ईमानदारी और निष्पक्षपता से पूरा सत्य और तथ्य पेश करे ताकि लोगों के सामने सबके असली चेहरे उजागर हो। असली चेहरे सामने आने पर ही लोग सही फैसला कर सकते है।

Monday 3 October 2011

पुलिस य़ानी नेताओं के लठैत

 पुलिस बनी सत्ता की लठैत

इंद्र वशिष्ठ
रामलीला मैदान में आधी रात को शांतिपूर्ण तरीके से सत्याग्रह  करने वाले लोगों पर पुलिस की बर्बरतापूर्ण कार्रवाई किसी भी तरह से सही नहीं ठहराई जा सकती है। इस घटना में घायल हुई राजबाला की 26 सितंबर को अस्पताल में मौत हो गई। पुलिस ने कहा कि राजबाला भगदड में घायल हुई थी। लेकिन इस बयान से पुलिस का अपराध कम नहीं हो जाता। पुलिस के इस बयान को ही अगर सही मान लिया जाए तो सवाल उठता है कि भगदड किस वजह से हुई थी? इसका बिलकुल स्पष्ट उत्तर है और यह जगजाहिर है कि पुलिस के लाठीचार्ज और आंसूगैस के गोले दागने से ही भगदड  हुई थी।
इस तरह पुलिस चाहे जो तर्क दे लेकिन राजबाला की मौत के लिए पुलिस  ही जिम्मेदार है। अपराध के मामले में अपराधी की नीयत( इंटेंशन) यानी इरादा और उसका मकसद देखा जाता है। आधी रात को पुलिस की कार्रवाई से ही यह स्पष्ट हो जाता है कि पुलिस ने राजनेताओं के मकसद को पूरा करने के लिए ही गलत नीयत से कार्य किया था। इस तरह पुलिस ने  अपराध किया है। इस तरह की अमानवीय कार्रवाई सरकारें करती रहेगी जब तक फिरंगियों के बनाए कानून और पुलिस व्यवस्था में बदलाव या सुधार  नहीं किया जाएगा। क्योंकि  किसी भी दल की सरकार हो वह पुलिस को अपने लठैतों की तरह रखना चाहती है। ताकि अपने विरोधियों को  डंडे के दम पर कुचल सकें। इसीलिए लोगों का दमन करने और उन पर राज करने के लिए बनाए फिरंगियों के कानून आजादी के बाद भी जारी है।
 सत्ता में चाहे कोई भी दल हो किसी की भी नीयत इन काले कानूनों को बदलने और पुलिस में सुधार करने की नहीं रहीं । इसीलिए धर्मवीर आयोग की पुलिस में सुधार के लिए दी गई रिपोर्ट सालों से धूल खा रही हैं। सुप्रीम कोर्ट द्धारा पुलिस में सुधार के लिए दिए गए निर्देशों पर भी  सरकारें पूरी तरह अमल नही कर रही है। किसी भी राजनैतिक दल को पुलिस की ज्यादतियों पर आवाज उठाने की याद सिर्फ उस समय आती है जब वह विपक्ष में होते है। सत्ता में सब उसी कानून और पुलिस के सहारे अपना राज कायम  रखना चाहते है। इसीलिए बेकसूर लोग पुलिस के जुल्म के शिकार होते रहेंगें। इसके लिए जिम्मेदार है नेताओं की फिरंगियों वाली सोच।
 संविधान के अनुसार  तो वे जनप्रतिनिध या जनसेवक है।लेकिन सत्ता मिलते ही वे गिरगिट की तरह रंग बदल कर मालिक बन बैठते है ये सोच ही सभी समस्याओं की जड है। सत्ता के अहंकार या नशे में चूर नेताओं से न्यायपूर्ण और भ्रष्टाचार मुक्त शासन की कल्पना करना बेमानी है। और कहा ही जाता है कि अहंकार सबसे पहले व्यकित के दिमाग पर असर डालता और उसकी  सोचने समझने की शकित खत्म कर देता है इसी लिए सत्ता के मद मे डूबे नेता इस तरह की पुलिसिया कार्रवाई कराते है। भ्रष्ट अफसरों के बलबूते ही सरकार अमानवीय कार्रवाई पुलिस से करवा पाती है। अफसोसनाक  बात है कि आईएएस या आईपीएस बनने के बाद ज्यादातर अफसरों की सोच भी फिरंगियों वाली हो जाती है। और जनसेवक के पद पर बैठे ये अफसर भी लोगों पर राज करने की मानसिकता में रहते है। मलाईदार पद पाने के लिए भ्रष्ट अफसर ही बेईमान नेताओं की हां में हां मिलाते है और बेकसूर लोगों पर जुल्म ढहाते है। पुलिस कमिश्नर या डीजी बनने के लिए नेताओं के तलुए चाटते है। ऐसे में  बेईमान अफसर अपने आका नेताओं के ही हुक्म का पालन करेगा। उस कसम को वो अफसर बेच खाता है जो उसने सर्विस में शामिल होते समय ली थी।
 बेईमान नौकरशाह हो या पुलिस अफसर जो अपने आका नेता की जितनी सेवा करता है उसका फल उसे रिटायरमेंट के बाद भी मिलता है। रिटायरमेंट के बाद भी उसे गर्वनर या किसी अन्य पद से नवाज दिया जाता है। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना है तो अफसरों की नियुकित पूरी तरह पारदर्शी और काबलियत के आधार पर हीं होनी चाहिए। नौकरशाह और पुलिस अफसरों को रिटायरमेंट के बाद गर्वनर या अन्य किसी पद पर नियुक्त नहीं किया जाना चाहिए। वरना बेईमान नेता और अफसर इसी तरह बेकसूर लोगों पर जुल्म करते रहेंगे। लेकिन ये सब होगा कैसे ये सबसे बडा सवाल है इस समय तो सुप्रीम कोर्ट से ही उम्मीद की थोडी बहुत किरण नजर आती है।
रामलीला मैदान में बेकसूर औरतों तक पर जुल्म ढहाने के लिए पुलिस कमिश्नर और गृह सचिव के खिलाफ ऐसी कडी कार्रवाई की जाए ताकि फिर कोई अफसर इस तरह की कार्रवार्इ करने की सोचे भी नही।  अफसरों के खिलाफ जब तक कडी कार्रवाई नहीं होगी वे सरकार के लठैत बने रहेंगें। रामलीला मैदान जैसी पुलिसिया कार्रवाई दोबारा कोई सरकार भी करने  की सोचे भी नही लिए इसके लिए जरुरी है कि  गृह मंत्री के खिलाफ भी सुप्रीम कोर्ट  कडी कार्रवाई करें।
कांग्रेस सरकार के अनेक चेहरे ; हरियाणा में कुछ दिन पहले हत्या के  आरोपी पूर्व एमएलए ने अपने हथियारबंद साथियों के दम पर पुलिस और कानून का कई दिनों तक खुल कर मखौल उडाया और पुलिस मूक दर्शक बनी रही। बाद में जुलूस के साथ जाकर उसने अपनी मर्जी से समर्पण किया। राजस्थान में आरक्षण की मांग को लेकर गुजरों ने कई दिन तक रेल पटरी और सडकों पर रास्ता रोके रखा। जिसकी वजह से आम लोगों को परेशानी का सामना करना पडा।
मुंबई में राजठाकरे के बदमाशों ने यूपी-बिहार के लोगों को वहां से भगाने के लिए  मारपीट  कर कानून का मजाक उडाया। इन तीनों राज्यों में कांग्रेस की ही सरकारें हैं इन सभी जगहों पर सरकार ने धारा 144 लगा कर कार्रवाई क्यों नहीं की? वहां पर कानून व्यवस्था कायम रखने के लिए पुलिस एक्शन क्यों नहीं लाजिमी हुआ? जबकि रामलीला मैदान की अमानवीय कार्रवाई के बारे में तो मंत्री कपिल सिब्बल ने कहा कि कानून व्यवस्था कायम रहनी चाहिए, इसलिए ये एक्शन लाजिमी था। दूसरी ओर महाराष्ट में ही पुलिस ने बेकसूर किसानों को गोली तक मार  दी। अन्ना हजारे  को दिल्ली पुलिस ने गिरफतार किया । यू पी पुलिस ने भटटा परसौल में किसानों पर अत्याचार किए।इन मामलों से ही स्पष्ट है कि नेता राजनीतिक मकसद से पुलिस का इस्तेमाल जमींदार के लठैतों की तरह करते है।