Wednesday, 16 July 2025

पुलिस कमिश्नर काबिल हो, "प्रोफेशनली स्ट्रांग" नहीं। आईपीएस लडडू खाएंगे तो खिलाने भी पड़ेंगे। शाह के मन भाए, कमिश्नर पद पाए। गैरों पे करम अपनों पे सितम



गृहमंत्री जी 

कमिश्नर काबिल होना चाहिए, "प्रोफेशनली स्ट्रांग" नहीं।

आईपीएस लडडू खाएंगे तो खिलाने भी पड़ेंगे

आईपीएस अफसरों काबिल बनो, प्रोफेशनली स्ट्रांग नहीं

आईपीएस ईमानदार हो तो ईमानदार नज़र आना जरूरी है



इंद्र वशिष्ठ, 
दिल्ली पुलिस का कमिश्नर इस बार एजीएमयूटी काडर के ही किसी आईपीएस को बनाया जाता है या दूसरे काडर के आईपीएस को। यह आने वाले दिनों में साफ़ हो जाएगा।
कमिश्नर कोई भी बने पर सही मायने में वह काबिल जरूर होना चाहिए। "प्रोफेशनली स्ट्रांग" या लडडू खाने वाला नहीं होना चाहिए। 
आप सोच रहे होंगे ये तो बड़ी अजीब सी बात लिख दी। क्योंकि किसी पद के लिए प्रोफेशनली स्ट्रांग/पेशेवर रूप से मज़बूत होना तो काबलियत की निशानी होती है। नहीं, आजकल पुलिस में यदि कोई अफसर नाकाबिल, नालायक और बेईमान है, लेकिन जुगाड़ के दम से महत्वपूर्ण/ मलाईदार पद पाता रहता है तो उसे सीधे सीधे बेईमान कहने की बजाए सभ्य भाषा में प्रोफेशनली स्ट्रांग कहने का रिवाज चलन में है। दूसरी ओर सही मायने में काबिल और ईमानदारी से कर्तव्य पालन करने वाले को बेचारा, शरीफ, कमज़ोर, नादान और मूर्ख तक कहा जाता है।
शाह के मन भाए, कमिश्नर बन पाए-
बेशक आईपीएस अपने को  कितना  ही काबिल समझते/मानते हों, लेकिन अगर सत्ता की कृपा आप पर नहीं है तो सारी काबलियत धरी की धरी रह जाती है वह सब बेकार साबित हो जाती है। काबलियत पर कृपा हावी हो जाती है। जो मंत्री के मन भाया, वो ही कमिश्नर पद पाया। 
आईपीएस के साथ अन्याय-
पहले गुजरात काडर के राकेश अस्थाना को और फिर तमिलनाडु काडर के संजय अरोरा को  दिल्ली पुलिस का कमिश्नर बना कर प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमित शाह ने लगातार दो बार यह साबित कर दिया। 
मोदी, शाह को एजीएमयूटी काडर में क्या एक भी ऐसा काबिल आईपीएस अफसर नहीं मिला था, जिसे दिल्ली पुलिस का कमिश्नर बनाया जा सके। एजीएमयूटी काडर के आईपीएस अफसरों का हक मार कर उनके साथ अन्याय किया गया। वैसे भाजपा द्वारा तीसरी बार ऐसा किया गया है।
नाकाबिल हैं तो नौकरी से भी निकालो-
वैसे सरकार की नजर में अगर एजीएमयूटी काडर के जो आईपीएस अफसर वरिष्ठ होते हुए और रिकॉर्ड आदि में भी सब कुछ साफ/  सही होते हुए भी कमिश्नर बनाने के काबिल नहीं होते, तो फिर वह पुलिस सेवा में भी क्यों हैं, सरकार उन्हें  जबरन सेवा से रिटायर कर हटा क्यों नहीं देती?  ऐसे नाकाबिल अफसरों को स्पेशल कमिश्नर जैसे पदों पर रखना भी तो गलत ही है।
सत्ता के लठैत कमिश्नर? -
दरअसल इनसे पहले कमिश्नर के पद पर एजीएमयूटी काडर के कुछ ऐसे नाकाबिल आईपीएस भी अफसर रह चुके हैं। जिन्होंने सत्ता के लठैत बन खाकी को खाक में मिला दिया। ऐसे तत्कालीन कमिश्नरों के कारण ही पुलिस में भ्रष्टाचार व्याप्त है। ये कमिश्नर अपराध और अपराधियों पर अंकुश लगाने में भी विफल रहे। पेशेवर रुप से नाकाबिल कमिश्नरों के कारण ही आईपीएस अफसर और मातहत पुलिसकर्मी भी निरंकुश हो जाते हैं। जिसका खामियाजा जनता को भुगतना पड़ता हैं। हालत यह है कि लूट, झपटमारी आदि अपराध की सही एफआईआर तक दर्ज नहीं की जाती है। अपराध कम दिखाने के लिए अपराध को दर्ज ना करने या हल्की धारा में दर्ज किए जाने की परंपरा जारी है। थानों में लोगों से पुलिस सीधे मुंह बात तक नहीं करती। डीसीपी या अन्य वरिष्ठ अफसरों से मिलने के लिए भी लोगों को सिफारिश तक करानी पड़ती है।
कमिश्नर कैसा हो-
गृहमंत्री अमित शाह को इस बार कम से कम ऐसा कमिश्नर तो लगाना ही चाहिए, जो अपराध और अपराधियों पर नियंत्रण करे और पुलिस में चरम पर पहुंच गए भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाए। अपराधियों और भ्रष्ट पुलिसकर्मियों का चोली दामन का साथ है।
इसलिए अपराधियों से सांठगांठ रखने वाले पुलिसकर्मियों को जेल भेजने से ही अपराध और अपराधियों पर काबू पाया जा सकता है।
एफआईआर दर्ज हो-
गृह मंत्री अमित शाह ने कुछ दिन पहले कहा कि कानून व्यवस्था मजबूत बनाने के लिए अपराधों का दर्ज होना ज़रूरी है, इसलिए एफआईआर दर्ज करने में किसी तरह की देरी नहीं होनी चाहिए।
एफआईआर दर्ज न करना अपराध हो-
गृह मंत्री अगर अपराधों को दर्ज कराने को लेकर वाकई गंभीर हैं, तो अपराधों को दर्ज न करने वाले पुलिस अफसर के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज किए जाने का कानून बनाया जाना चाहिए। 
मिसाल बनाएं- 
गृहमंत्री को सबसे पहले दिल्ली में ही यह सुनिश्चित करना चाहिए, कि सभी अपराधों की सही और बिना देरी के एफआईआर दर्ज हो। दिल्ली में ऐसा कमाल करके वह देश भर की पुलिस के सामने मिसाल पेश कर सकते हैं।
आंकड़ों की बाजीगरी-  
सच्चाई यह है कि अपराध को आंकड़ों की बाजीगरी के माध्यम से कम दिखाने के लिए पुलिस में बरसों से ही अपराध के सभी मामलों को सही दर्ज न करने या हल्की धारा में दर्ज करने की परंपरा है। लोगों को एफआईआर दर्ज कराने के लिए अदालत तक में गुहार लगानी पड़ती है। अपराध को दर्ज ना करके तो पुलिस एक तरह से अपराधियों की ही मदद करने का गुनाह ही करती है।
पुलिस के हथकंडे-  
सच्चाई यह है कि पुलिस अपराध कम दिखाने के लिए डकैती/लूट, स्नैचिंग/झपटमारी, चोरी/जेबकटने/ठगी/साइबर फ्रॉड आदि अपराधों के ज्यादातर मामलों को भी या तो दर्ज ही नहीं करती या हल्की धारा में दर्ज करती है।  हत्या तक के मामले में भी एफआईआर दर्ज नहीं करने के मामले भी इस पत्रकार ने उजागर किए हैं। दिल्ली में पिछले तीन दशक से ज्यादा समय से क्राइम रिपोर्टिंग के दौरान इस पत्रकार ने ऐसा ही होते हुए देखा है और ऐसे अनगिनत मामले खबरों के माध्यम से उजागर किए है। जब देश की राजधानी में गृह मंत्री के अन्तर्गत आने वाली पुलिस का यह हाल है तो देश भर का अंदाज़ा आसानी से लगाया जा सकता है।
एक ही रास्ता-
अपराध और अपराधियों पर नियंत्रण करने का सिर्फ और सिर्फ एकमात्र रास्ता अपराध के सभी मामलों की सही एफआईआर दर्ज करना ही है। अभी तो हालत यह है कि मान लो अगर कोई लुटेरा पकड़ा गया, जिसने लूट/ स्नैचिंग/ झपटमारी की 100 वारदात करना कबूल किया है। लेकिन एफआईआर सिर्फ दस-बीस वारदात की ही दर्ज पाई गई। 
इसलिए ऐसा कमिश्नर लगाया जाना चाहिए जो यह सुनिश्चित करें कि अपराध के सभी मामलों की सही एफआईआर दर्ज की जाए। 
लोगों के साथ सीधे मुंह बात तक न करने के लिए बदनाम पुलिस के व्यवहार को सुधारने के लिए ठोस/प्रभावी कदम उठाए। 
पुलिस अफसर संवेदनशील हो-
पीड़ित शिकायतकर्ता मुसीबत /इमरजेंसी में किसी भी समय दिन हो या रात  एसएचओ, डीसीपी से लेकर स्पेशल कमिश्नर  तक आसानी से तुरंत बात कर सके या उनसे मिल सके। लोग घर और बाहर (सड़क) सुरक्षित महसूस करे। अपराधियों के मन में पुलिस का खौफ  हो। 
गृहमंत्री के पास कुंडली-
वैसे कमिश्नर पद के लिए जो भी दावेदार हैं वह कितने ईमानदार/ बेईमान, काबिल /नाकाबिल है। ये बात गृह मंत्री से तो बिल्कुल भी छिपी हुई नहीं होती। खुफ़िया तंत्र के माध्यम से आईपीएस की पूरी कुंडली गृह मंत्री के पास पहुंच ही जाती है। 
लडडू खाएं हैं तो खिलाने भी पड़ेगें-
आपने दूसरों से लडडू खाए हैं, तो आपको खिलाने भी पड़ेंगे। आप दूसरे की बरात में गए हैं तो अपनी बरात में उसे ले जाना भी पड़ेगा। यह समाज का दस्तूर है और सब इससे बंधे हुए हैं। इसी तरह अगर आपने अपने मातहत से लडडू खाएं हैं तो मातहत को उसके मन मुताबिक मलाईदार/ महत्वपूर्ण पद रुपी लडडू देना भी पड़ेगा। बरसों बरस से ऐसा ही हो रहा है इसलिए भ्रष्टाचार पर अंकुश लगने की बजाए भ्रष्टाचार दिनों दिन फल फूल रहा है 
कमिश्नर वही, जो लडडू न खाएं-
क्या भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए ही दिल्ली पुलिस में अरुणाचल, गोवा मिजोरम और केंद्र शासित प्रदेश (एजीएमयूटी )काडर की बजाए दूसरे के काडर के आईपीएस अफसर को कमिश्नर के पद पर लगाया जाता है ? दूसरे काडर के आईपीएस को कमिश्नर के पद पर तैनात किए जाने का एक तर्क (लडडू वाला) पुलिस में यह भी दिया जा रहा है।
कहा जा रहा है कि दूसरे काडर से आए आईपीएस ने क्योंकि दिल्ली पुलिस में किसी से लडडू नहीं खाए हुए होते, इस लिए वह बिना किसी राग-द्वेष, भय-लालच के निष्पक्षता, पारदर्शिता, ईमानदारी के साथ अपना काम कर सकता है। लेकिन दूसरे काडर का आईपीएस तो बिल्कुल दूध का धुला हुआ ही होगा और अपने राज्य/काडर में उसने लडडू नहीं खाए होंगे, या कमिश्नर बनने के बाद लडडू नहीं खाएंगे इसकी क्या गारंटी है।
जबकि दिल्ली में तैनात आईपीएस में से कौन लडडू खाने वाला है और कौन नहीं, ये तो पुलिस में आसानी से सबको पता चल जाता है। 
भ्रष्टाचार चरम पर-
तमिलनाडु काडर से आए कमिश्नर संजय अरोरा के समय में तो पुलिस में भ्रष्टाचार चरम पर पहुँच गया। पुलिसकर्मियों के रिश्वतखोरी में गिरफ्तारी के पिछले साल के आंकड़ों से भी पता चलता है कि भ्रष्टाचार के मामलों में तीन गुना वृद्धि हुई है।
आईपीएस जिम्मेदार-
सच्चाई यह भी है संजय अरोरा और राकेश अस्थाना के कमिश्नर बनने से पहले तो इस पद एजीएमयूटी काडर के ही कमिश्नर रहे हैं। इस लिए जो भ्रष्टाचार आज चरम पर है। उसके लिए तत्कालीन कमिश्नर और कुछ आईपीएस अफसर ही असली जिम्मेदार है। इन अफसरों ने अगर ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन किया होता तो भ्रष्टाचार का पेड़ इतना फलता फूलता नहीं। संजय अरोरा के समय में तो सिर्फ भ्रष्टाचार के फलों से लदे पेड़ से पके हुए फल गिरने के कुछ मामले ही सामने आए हैं। पेड़ तो अभी भी फलों से लदे हुए खड़े हैं।  बीज बोने, खाद पानी दे कर उसे पेड़ बनने देने के अनुकूल वातावरण उपलब्ध कराने के लिए तो एजीएमयूटी काडर के कुछ आईपीएस ही जिम्मेदार है।
आईपीएस अगर भ्रष्टाचार की जड़ में शुरू में मट्ठा डाल कर उसे नष्ट कर देते तो आज भ्रष्टाचार चरम पर नहीं होता। 
आज भी सिर्फ कमिश्नर संजय अरोरा ही तो बाहरी काडर के हैं। डीसीपी से लेकर स्पेशल कमिश्नर तक के सभी पदों पर तो एजीएमयूटी काडर के आईपीएस ही है। इसलिए भ्रष्टाचार के लिए सिर्फ बाहरी काडर के कमिश्नर को ही अकेला दोषी नहीं ठहराया जा सकता। 
कोई मिसाल है क्या-
जो भी आईपीएस एसीपी, डीसीपी से लेकर स्पेशल कमिश्नर के पद पर रहते हुए भ्रष्टाचार रोकने और सभी अपराधों की सही एफआईआर दर्ज कराने के लिए ऐसा कुछ न करे , जिसकी मिसाल दी जा सके। ऐसे में वह कमिश्नर बन कर कौन सा तीर मार देंगे। 
कमिश्नर पद की दौड़ में शामिल आईपीएस अफसर क्या कमिश्नर बनने के बाद अपराध के सभी मामलों की सही एफआईआर दर्ज कराएंगे ? क्या भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए ईमानदारी से ठोस कदम उठाएंगे ?
ऐसा बिल्कुल नहीं होगा। क्योंकि पुलिस में भ्रष्टाचार इतने चरम पर पहुंच गया है कि अगर किसी लडडू खाने वाले को कमिश्नर बनाया गया, तो हालात बद से बदतर ही हो जाएगी। 
 निरंकुश-
आज हालात ये है कि कुछ आईपीएस/ डीसीपी के कुछ पालतू/खास चौकी इंचार्ज अपने एसएचओ को, एसएचओ अपने एसीपी को कुछ नहीं समझते। ऐसे में जनता को क्या क्या झेलना पड़ता होगा। इसका सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है। 
राजधानी में बेखौफ अपराधियों द्वारा वसूली के लिए गोलियों चलाना आम बात हो गई है। सड़कों पर लुटेरों/स्नैचर का राज हो गया लगता है। गृहमंत्री के निर्देश के बावजूद भवन निर्माण करने वालों से पुलिस वालों की वसूली बदस्तूर जारी है। 
उम्मीद-
केवल साफ़ नीयत और ईमानदारी से कर्तव्य पालन करने वाले काबिल, निष्ठावान एजीएमयूटी काडर के आईपीएस ही बुरी तरह सड़ चुके पुलिस सिस्टम में सुधार कर सकते हैं। 
मिसाल-
अपराध के सभी मामलों की सही एफआईआर दर्ज कराने के लिए सिर्फ एजीएमयूटी काडर के तत्कालीन पुलिस कमिश्नर भीम सेन बस्सी और वी एन सिंह ने ही ईमानदारी से कोशिश की थी। उस दौरान के आंकड़ों से यह बात साफ साबित होती है। इन दोनों के अलावा बाकी कमिश्नर/ आईपीएस तो आंकड़ों की बाजीगरी से अपराध कम दिखाने की परंपरा का पालन करते रहे और कर रहे हैं। भीम सेन बस्सी ने इसके पहले गोवा में  भी अपराध की सही एफआईआर दर्ज करने की शुरुआत की थी। 
कमज़ोर कमिश्नर- 
कुछ आईपीएस अफसरों द्वारा संजय अरोरा की छवि एक ऐसे कमजोर/शरीफ/नाकारा कमिश्नर के रूप पेश की जाती है,जो धृतराष्ट्र बन कर पूरी तरह से अपने एसओ/डीसीपी मनीषी चंद्र पर आंख मूंद कर निर्भर है। 
छाज बोले  सो बोले छलनी भी बोले, जिसमें सत्तर छेद-
इस तरह की छवि बनाने वाले आईपीएस को पहले अपने गिरेबान में भी झांक लेना चाहिए। शायद ही ऐसा कोई आईपीएस होगा, जिसने अपने निजी कार्यों / सीक्रेट सर्विस/मिशन के लिए खास पुलिसकर्मियों को नहीं रखा हुआ। 
मातहत के वश में आईपीएस-
रिटायर होते ही जबरदस्त चर्चा में आए स्पेशल कमिश्नर रणवीर सिंह कृष्णियां के मातहत रहे इंस्पेक्टर विकास, तत्कालीन स्पेशल कमिश्नर (कानून एवं व्यवस्था) दबंग दीपक मिश्रा के मुंह लगे अजय और सख्त माने जाने वाले तत्कालीन कमिश्नर युद्ध बीर सिंह डडवाल के मातहत रहे महाना को ये आईपीएस क्या इतनी जल्दी भूल गए। उपरोक्त आईपीएस तो कमज़ोर नहीं थे फिर किस निजी स्वार्थ या किन विशेष खूबियों के कारण ये अपने  एसओ/ पीए आदि के वशीभूत हो गए। ये तो सिर्फ कुछ उदाहरण हैं वरना ऐसे अफसरों और उनके मुंह लगो की अंतहीन फेहरिस्त है। 
मुंह लगा ही मुंह दिखाने लायक नहीं छोड़ेगा - 
वैसे ऐसी छवि बनने देने के लिए कमिश्नर और वह आईपीएस खुद ही जिम्मेदार होते हैं वह न जाने अपने किस निजी स्वार्थ  के कारण  एसओ/पीए या अपने मुंह लगे किसी अन्य मातहत को इतनी छूट दे देते हैं कि वह मातहत अपनी औकात/हैसियत/हद भूल कर खुद को ही कमिश्नर/ आईपीएस समझने लग जाता है। हैसियत भूल कर व्यवहार करने वाला मातहत ही अपने आका आईपीएस की बदनामी का कारण बनता है। 
सबके अपने अपने पालतू -
वैसे यह बात हर स्तर के पुलिस अफसर पर लागू होती है। ज्यादातर अफसरों के अपने अपने मुंह लगे/खास मातहत होते हैं। पुलिस विभाग में सबको पता होता है कि किस अफसर से उसका कौन मुंह लगा मातहत काम करवा सकता है। दरअसल हरेक को अपने निजी कार्यों, घर/प्रापर्टी मैनजमेंट/ देखभाल और अन्य प्रबंधन आदि के लिए ऐसे ही वफ़ादार/राजदार मातहत चाहिए होते हैं। 
ज्यादातर आईपीएस/दानिप्स अफसर जब दिल्ली पुलिस में प्रोबेशन पर आते है। तभी से वह अपने साथ ऐसे "विशेष खूबियों" वाले पुलिसकर्मियों को जोड़ लेते है या पुलिसकर्मी उनके साथ जुड़ जाते हैं। आईपीएस अपनी पूरी नौकरी के दौरान उसे साथ जोड़े रखते हैं। अगर ईमानदारी से जांच की जाए तो यह सच्चाई सामने आ जाएगी। 
अगर आईपीएस अधिकारी का दिल्ली से बाहर तबादला हो गया है तब भी वह मातहत दिल्ली में उसके घर परिवार की सेवा में रहते हैं। 
कोई नादान नहीं हैं -
हालांकि सच्चाई यह भी है कि कमिश्नर चाहे कोई भी हो वह कमजोर/शरीफ नहीं होता, सब दिमाग वाले तो होते ही हैं। लेकिन एसओ या "विशेष खूबियों " वाले किसी भी मातहत पर आंख मूंद पर निर्भर रहने वाले कमिश्नर/ आईपीएस के चरित्र, पेशेवर काबलियत, ईमानदारी पर सवाल उठना तो लाजमी है। उनके मुंह लगे मातहत की गतिविधियों/व्यवहार से ही यह संदेश जाता है कि कमिश्नर/आईपीएस उसके कहे अनुसार चलते हैं। 
कोई भी कमिश्नर और आईपीएस अफसर इतना सीधा/नादान/ मूर्ख तो बिल्कुल नहीं होता कि वह अपना पेशेवर या निजी फायदा नुकसान सोचे समझे बिना, सिर्फ अपने मातहत के कहने भर पर ही किसी को एसीपी, एसएचओ, चौकी इंचार्ज या अन्य  महत्वपूर्ण और मलाई दार माने जाने वाले पद पर लगा या हटा दे।
गृह मंत्री के जो मन भाएगा , वही कमिश्नर बन पाएगा -
पिछले लगभग पैंतीस साल में इस पत्रकार ने देखा कि ज्यादातर मामलों में कमिश्नर का पद पाने का सिर्फ और सिर्फ एक ही पैमाना है सत्ताधारी दल की कृपा। वह आईपीएस काबिल और ईमानदार है या नहीं, सत्ता को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता (लेकिन जनता को फर्क पड़ता है)। इसलिए जिसे मन चाहे उसे कमिश्नर बना देते हैं। सत्ता में चाहे किसी दल की सरकार हो पैमाना एक ही रहता है। सब अपने चहेते/वफ़ादार को ही कमिश्नर बनाते हैं। जो चालाक अफसर हैं वह यह जानते हैं और अपने लक्ष्य को पाने के लिए बरसों पहले से ही अपने आकाओं की शरण में पहुंच जाते हैं। आखिर एक दिन तपस्या का मनचाहा फल मिल ही जाता है। लेकिन ऐसा भी हुआ कि कई अफसर जीवन भर कमिश्नर पद पाने के लिए सत्ता के दरबारी बने रहे, लेकिन पद पाने में विफल हो गए। उनकी तपस्या में  शायद कोई कमी रह गई या सत्ता ही बदल गई। दूसरे काडर वालों की तपस्या में ज्यादा दम रहा होगा। 
विवादों के कारण सुर्खियों में रहे राकेश अस्थाना मोदी और शाह के मन भाए / खासमखास थे सिर्फ इसलिए उन्हें  रिटायरमेंट से ठीक चार दिन पहले सेवा विस्तार देकर दिल्ली पुलिस का कमिश्नर बनाया गया। राकेश अस्थाना ने पुलिस कंट्रोल रूम यानी पीसीआर यूनिट को ही खत्म कर दिया। पीसीआर वैन और  उसके स्टाफ़ को थानो और जिलों में लगा दिया। 
तमिलनाडु काडर के संजय अरोरा ने कमिश्नर बनने के बाद पुराने पीसीआर सिस्टम को फिर से बहाल कर राकेश अस्थाना की काबलियत पर ही सवालिया निशान लगा दिया। 
गृह मंत्री मिसाल बनाएं - 
एजीएमयूटी काडर के आईपीएस जो पहले यह माने बैठे रहते थे कि नियमानुसार कमिश्नर तो वह ही बनेगें। गृहमंत्री अमित शाह ने लगातार दो बार दूसरे काडर के आईपीएस को कमिश्नर बना कर एक तरह से उनका हक छीन लिया। यह ठीक नहीं है क्योंकि इससे यह संदेश जाता है कि एजीएमयूटी काडर के आईपीएस तो कमिश्नर बनने के काबिल ही नहीं है। जो कि पूरी तरह सच नहीं है। किसी भी काडर में सारे के सारे आईपीएस तो दूध के धुले हुए नहीं होते।
 लाख कमियों के बावजूद भी एजीएमयूटी काडर में पहले भी बहुत ही काबिल, शानदार और मिसाल देने लायक आईपीएस अफसर रह चुके हैं। जिनकी पेशेवर काबलियत और बहादुरी का यह पत्रकार भी दशकों से चश्मदीद गवाह रहा  हैं। इस काडर में अब भी काबिल अफसरों की कमी नहीं है। हरेक काडर के आईपीएस का सपना/ लक्ष्य अपनी पुलिस फोर्स का मुखिया बनने का होता है। 
इसके पहले भी भाजपा के शासन काल में उत्तर प्रदेश काडर के अजय राज शर्मा को दिल्ली पुलिस कमिश्नर के पद पर तैनात किया गया था। हालांकि दबंग अजय राज शर्मा को अब तक का सबसे काबिल और सफल कमिश्नर माना जाता है। 
वैसे दूसरे काडर का आईपीएस ही काबिल और ईमानदार होगा और एजीएमयूटी काडर के सारे नाकाबिल/निकम्मे और बेईमान है यह भी पूरी तरह सच नहीं है। यह भी सच है कि लडडू न खाने वाले तो कुछ विरले ही होते हैं।

गृह मंत्री कुछ नया करें- 
सत्ता द्वारा दूसरे काडर से अपने किसी खास अफसर को लाकर कमिश्नर बना देना तो बहुत आसान काम है। ये काम तो राजनीतिक दल बरसों से करते ही आए है। 
इसलिए गृह मंत्री की काबलियत तो इस बात से पता चलेगी, कि वह एजीएमयूटी काडर में से ही किसी काबिल आईपीएस को कमिश्नर बनाए। इसके बाद गृह मंत्री अपनी निगरानी में उस कमिश्नर से ही पुलिस में आमूल चूल सुधार करवा कर मिसाल बनाए। 
गृह मंत्री जिम्मेदार -
दिल्ली पुलिस सीधे सीधे गृहमंत्री के अन्तर्गत ही है। ऐसे में अगर एजीएमयूटी काडर में से उन्हें एक भी आईपीएस  कमिश्नर पद के योग्य नहीं लगता है तो कहीं न कहीं इस हालात के लिए वह भी जिम्मेदार है।
जैसे कि जब कोई बच्चा बिगड़ जाता है तो उसके माता पिता को ही जिम्मेदार ठहराया जाता है। यही कहा जाता है बच्चे पर उन्होंने ध्यान नहीं दिया या जरूरत से ज्यादा लाड प्यार करके उन्होंने उसे बिगाड़ दिया। सब पहले अपने बच्चे को सुधारने की कोशिश करते हैं। 
इस लिए गृह मंत्री को अगर वाकई दिल्ली पुलिस में सुधार करना चाहते हैं तो उन्हें आईपीएस अफसरों की गतिविधियों पर तो खास ध्यान देना चाहिए। 

महल की छत पर बैठ जाने से कौआ गरुड़ नहीं हो जाता-
ईमानदारी तो बिल्कुल व्यक्तिगत मामला है। यह तो व्यक्ति, व्यक्ति पर निर्भर करता है। एक सिपाही भी बहुत ईमानदार हो सकता है और एक आईपीएस भी बहुत बड़ा बेईमान हो सकता है।
यह भी सच है कि आईपीएस या कमिश्नर अगर सही नीयत और ईमानदारी से काम करें है तो थाना स्तर तक भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सकता है। भ्रष्टाचार की जड़ तो थाने में ही है।
ईमानदारी की सीमा तय कर दी-
वैसे तो लडडू ज्यादातर को पसंद है लेकिन कुछ ऐसे अफसर भी होते है जिन्होंने अपनी  ईमानदारी या कह लो कि ,बेईमानी के लिए एक सीमा/परिभाषा/ लक्ष्मण रेखा तय कर रखी है। हालांकि ईमानदारी और बेईमानी को सीमा में नहीं बांधा जा सकता। ये तो कथित ईमानदारों का दिल को बहलाने के लिए ख्याल अच्छा वाली बात है। क्योंकि या तो व्यक्ति ईमानदार है या बेईमान है। सीमित ईमानदारी या सीमित बेईमानी जैसी कोई चीज नहीं होती।
इस सीमा या परिभाषा के अंदर रहकर लडडू खाने वाले खुद अपने मुंह से अपने ईमानदार होने का ढिंढोरा पीटते रहते हैं। 
इस पत्रकार ने तीन दशक से ज्यादा के समय में ऐसे अनेक आईपीएस को बहुत नजदीक से देखा है। लेकिन आज तक ऐसा कोई अफसर नहीं मिला, जो ईमानदारी की कसौटी पर पूरा खरा उतर सके। 
वैसे आजकल किसी को सीधे सीधे बेईमान कहने की बजाए सभ्य भाषा में प्रोफेशनली स्ट्रांग अफसर कहा जाने लगा है। 
कसौटी-
सिर्फ रिश्वत लेना ही भ्रष्टाचार/बेईमानी नहीं होता। पुलिस अफसर ने अगर अपने कर्तव्य का पालन ईमानदारी से नहीं किया, जिस व्यक्ति का जो अधिकार है वह उसे नहीं दिया, अपराध के मामले को दर्ज ही नहीं किया, किसी के खिलाफ झूठा मामला दर्ज करना, किसी बेकसूर को फंसाना/ गिरफ्तार करना, अपराधियों से सांठगांठ करने वाले मातहत पुलिसकर्मी को बचाना आदि तो भ्रष्टाचार ही नहीं बल्कि संगीन अपराध भी है। आईपीएस अफसरों द्वारा घरेलू/पारिवारिक काम के लिए पुलिसकर्मियों को रखना। सरकारी कारों का बेदर्दी के परिवार के लिए इस्तेमाल करना भी भ्रष्टाचार/ बेईमानी ही होता है। रिटायर्ड आईपीएस अफसरों द्वारा भी पुलिस की कार/ ड्राइवर/ रसोईया रखने के मामले समय समय सामने आते रहते हैं।
 ईमानदारी नजर आना ज़रूरी-
दरअसल जो वाकई ईमानदार होता है उसे ढिंढोरा पीटने की जरूरत नहीं होती। उसके कार्य और आचरण से यह स्पष्ट रूप से जग जाहिर हो जाता है। वैसे भी आईपीएस अगर ईमानदार है तो ईमानदारी नजर आना ज़रूरी है। 
लडडू खाने खिलाने का सिलसिला-
बताया जाता है कि कुछ आईपीएस जब एसीपी के पद से अपनी शुरुआत करते है तभी से वह लडडू खाना शुरू कर देते है। यह सिलसिला उसके स्पेशल कमिश्नर बनने तक जारी रहता है। इस दौरान लडडू खिलाने वालों को मलाई दार पद मिलते रहते है यही नहीं उनके खिलाफ आई गंभीर भ्रष्टाचार या अपराधी से मिलीभगत की शिकायतों पर लडडू खाने वाले अफसर कोई कार्रवाई न करके अपने लडडू धर्म का पालन करते हैं। जैसे मंदिर में सवा रुपया चढ़ाने वाला भी भगवान् से लाख रुपए देने की  कामना करता है। इस तरह लगभग तीस साल तक तक लडडू खिलाने वाले की इच्छाओं का तो अंदाजा लगा जा सकता है। लडडू खिलाने वाले को तपस्या का मनचाहा फल यानी मोक्ष मिलता है। अपने अराध्य/ इष्ट /आका आईपीएस के कमिश्नर बनने पर। 
ईमानदारी की कसम ताक पर रखी-
अफ़सोस यह देख कर होता है कि अपनी मेहनत से आईपीएस बनने वाला लालच के कारण खुद को कितना गिरा देता है। 
इसी तरह जो आईपीएस जीवन भर मनचाहा पद पाने के लिए सत्ता के सामने दंडवत रहता है उसकी तपस्या का मुख्य लक्ष्य होता है कमिश्नर पद पाना। जिसको वह मोक्ष पाने के बराबर मानता है।
लेकिन माया महाठगिनी है कमिश्नर पद पाने के बाद उस की इच्छा फिर सिर उठाती है। अब उसकी इच्छा होती है कि रिटायरमेंट के बाद गवर्नर, यूपीएससी सदस्य या अन्य कोई ऐसा पद मिल जाए जिस पर मरने तक सुख भोग सके। 
इन्हीं अंतहीन इच्छा के कुचक्र में वह दिन रात अपने इष्ट नेताओं की अराधना तपस्या में लगा रहता है।  मोह माया के चक्कर में वह इतना उलझ जाता है कि वह उस शपथ को भी ताक पर रख कर दलदल में उतर जाता है जो उसने आईपीएस बनने के समय ली थी। 
शरीफ धक्के खाते हैं-
अभी हालत ये है कि शरीफ़ आदमी पुलिस से डरता है और अपराधी बेखौफ हैं। 
नेता, बिजनेसमैन ही नहीं संदिग्ध चरित्र के व्यक्ति या दलाल टाइप के लोग तो बीट के सिपाही, एसएचओ, एसीपी, डीसीपी से लेकर पुलिस मुख्यालय में बैठे अफसरों तक आसानी से दिन-रात किसी भी समय मिल सकते है या किसी भी समय उनसे फोन पर बात कर सकते हैं। दूसरी ओर परेशान पीड़ित थाने से लेकर डीसीपी दफ़्तर और पुलिस मुख्यालय तक धक्के खाते रहते हैं। 
चोरी का माल मोरी में-
पुलिस वालों का भी पैसा हड़पे/मर जाने के किस्से पुलिस में चटखारे लेकर सब सुनते और सुनाते हैं। 
कुछ समय पहले उत्तरी जिले में प्रापर्टी डीलर अमित गुप्ता की उसकी करतूतों के कारण बदमाशों ने हत्या कर दी। पूरी दिल्ली पुलिस में चर्चा है कि अनेक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों के लडडू अमित गुप्ता के पास थे। उसके मरने से लडडू भी मर गए। 
सबक-
एसीपी राजबीर सिंह के अंजाम से भी अफसरों ने कोई सबक नहीं सीखा। पाप की कमाई के लाखों रुपए हड़पने के लिए राजबीर सिंह की उसके ही दोस्त प्रापर्टी डीलर विजय भारद्वाज ने 2008 में गुड़गांव में गोली मारकर हत्या कर दी। मीडिया द्वारा बनाया गया कथित सुपर कॉप बदनामी की मौत मरा। 
जब भाई अपने भाई का ही नहीं, बहन तक का पैसा/ हक हड़प जाते हैं। ऐसे में भी लडडू खाने वाले पुलिस अफसर इस भ्रम में रहते हैं कि उनका पैसा कोई नहीं हड़प सकता।
डीसीपी के चहेते लगते हैं चौकी इंचार्ज-
मध्य जिले में रहे एक चौकी इंचार्ज के बारे में कहा जाता है कि डीसीपी के कच्छे तक वह ला कर देता है। मतलब डीसीपी हर काम उससे कराते। 
डीसीपी का मुंह लगा सब-इंस्पेक्टर मलाईदार मानी जाने वाली संगतराश चौकी में लंबे समय तक रहा और उसके बाद एलएनजेपी चौकी पहुंच गया। 
डीसीपी का पालतू होने के कारण वह अपने एसएचओ (थाना आईपी इस्टेट) तक की परवाह नहीं करता था। बल्कि डीसीपी से एसएचओ की क्लास लगवा देता था। लडडू खाने खिलाने में माहिर ऐसे चौकी इंचार्ज अपने मातहतों से सीधे मुंह बात तक नहीं करते। 
ये तो सिर्फ एक उदाहरण है सभी जिलों में यही हाल बताया जाता है। कुछ सब-इंस्पेक्टर ऐसे हैं जो हमेशा चौकी इंचार्ज के पद पर ही रहते हैं। 
ऐसे सब-इंस्पेक्टर ही अपने आका आईपीएस अधिकारी को शुरू में ही लडडू खिला खिला कर साध लेते हैं। 
आईपीएस अधिकारियों की तरक्की के साथ लडडू खिलाने वालों को भी मलाईदार पोस्टिंग मिलती जाती है। ऐसे आईपीएस अधिकारी ही अपने चेलों को एसीपी, एसएचओ, चौकी इंचार्ज, ट्रैफिक, साइबर सेल, आर्थिक अपराध शाखा, क्राइम ब्रांच, स्पेशल सेल जैसी महत्वपूर्ण मलाई दार मानी जाने वाली यूनिट में तैनात करवा कर उन्हें लडडू खिलाने का फल देते हैं। 
नियमों के नाम पर खानापूर्ति-
भ्रष्टाचार पर अगर अंकुश लगाना है तो 
पुलिस मुख्यालय को चौकी इंचार्ज लगाने के लिए भी तो कोई नियम बनाना चाहिए। 
वैसे नियम तो एसएचओ लगाने के भी बने हुए, लेकिन यह सब खानापूर्ति ही ज्यादा लगती है। कमिश्नर तो आते जाते रहते हैं लेकिन जुगाड़ वाले यानी लडडू खिलाने वाले तो एसएचओ और सब डिवीजन में एसीपी के पद पर जमे रहते हैं। दिखावे के लिए इनको बीच बीच में कुछ समय के लिए हटाया जाता है। लेकिन कुछ समय बाद फिर से महत्वपूर्ण पद पर लगा दिया जाता है। 





Wednesday, 9 July 2025

दिल्ली पुलिस का एएसआई गिरफ्तार, 3 हवलदार फरार, चारों निलंबित


दिल्ली पुलिस का एएसआई गिरफ्तार,
3 हवलदार फरार , चारो निलंबित



इंद्र वशिष्ठ, 
दिल्ली पुलिस में भ्रष्ट पुलिसकर्मियों के लगातार पकड़े जाने के बावजूद निरंकुश पुलिसकर्मी बेखौफ होकर वसूली में लगे हुए है। 
सीबीआई ने 8 जुलाई को थाना द्वारका उत्तर में तैनात एएसआई सुभाष चंद्र यादव को 35 हजार रुपए रिश्वत लेते हुए गिरफ्तार किया। 
इस मामले में हवलदार ओमवीर लांबा की तलाश की जा रही है।
निलंबित-
 एएसआई सुभाष चंद्र यादव और हवलदार ओमवीर लांबा को निलंबित कर दिया गया है।
शिकायतकर्ता विकास और उसका दोस्त सेक्टर 18 के बाजार में सब्जी की दुकान लगाना चाहते हैं। एएसआई सुभाष चंद्र यादव और हवलदार ओमवीर लांबा ने इन दोनों से एकमुश्त बीस - बीस हज़ार रुपए और प्रति माह 5-10 हजार रुपए रिश्वत मांगी। पुलिसवालों ने कहा रिश्वत दिए बिना दुकान नहीं लगाने देंगे। सीबीआई ने 8 जुलाई को 35 हजार रुपए रिश्वत लेते हुए एएसआई सुभाष चंद्र यादव को गिरफ्तार कर लिया। 
विजिलेंस की टीम से हाथापाई कर फरार-
एक अन्य मामले में दिल्ली पुलिस की विजिलेंस यूनिट 7 जुलाई को स्वरूप नगर थाना में तैनात हवलदार विकास और हवलदार अशोक को रिश्वत लेते रंगेहाथ गिरफ्तार करने में विफल हो गई। हवलदार रिश्वत की रकम लेने के बाद विजिलेंस टीम से हाथापाई करके भागने में सफल हो गए। फरार हवलदारों को निलंबित कर दिया गया है। 
शिकायतकर्ता ने विजिलेंस यूनिट में बताया कि उसके स्वरूप नगर स्थित प्लॉट में कुछ दिन पहले बारिश आंधी की वजह से एक पेड़ टूट कर गिर गया था। बीट में तैनात हवलदार अशोक और हवलदार विकास उसको पेड़ काटने के केस में फंसाने की धमकी देकर उससे एक लाख रिश्वत की मांग कर रहे है। रिश्वत की मांग एक प्रॉपर्टी डीलर के माध्यम से की जा रही है। 
महकमे वाले की भी शर्म नहीं की-
शिकायतकर्ता का भतीजा जो कि दिल्ली पुलिस में सब-इंस्पेक्टर है उसने भी दोनों हवलदारों से बात कर कहा की जब वन विभाग अपनी कार्रवाई कर चुका है तो पुलिस की इसमें क्या भूमिका रह जाती है। लेकिन दोनों हवलदार फिर भी शिकायतकर्ता को ये कहकर कि पेड़ काटने का केस मर्डर केस जितना ख़तरनाक होता है शिकायतकर्ता को धमकाते रहे और पैसे माँगते रहे। 
सोमवार शाम को विजिलेंस यूनिट ने अपना जाल बिछाया और दोनों हवलदार जब रिश्वत की रकम की पहली किश्त 20 हजार रुपए ले कर जाने लगे, तो विजिलेंस टीम ने दोनों को घेर लिया। दोनों हवलदार विजिलेंस टीम से हाथापाई कर खेतों के रास्ते भाग गए। 
विजिलेंस यूनिट ने दोनों हवलदारों और पैसे मांगने में बिचौलिया रहे प्रॉपर्टी डीलर पर मुकदमा दर्ज कर लिया। हवलदारों की तलाश की जा रही है।