Friday 29 January 2021

IPS अफसर ने नारे लगा कर जान बचाई। IPS अफसर तक डर जाए तो लालकिले को भला कौन बचा सकता था। कमिश्नर,IPS की पेशेवर काबिलियत की पोल खुली।पुलिस के डर को संयम बता रहे हैं।नाकामी छिपाने के लिए घायलों का सहारा।

         संयुक्त पुलिस आयुक्त सुरेंद्र सिंह यादव  
संयुक्त पुलिस आयुक्त सुरेंद्र सिंह यादव नारे लगाते हुए।
              कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव 

IPS अफसर ने नारे लगा कर जान बचाई।
IPS अफसर तक डर जाए तो लालकिले को भला कौन बचा सकता था।
कमिश्नर और IPS की काबिलियत की पोल खुली।
पुलिस के डर को संयम बता रहे हैं।
नाकामी छिपाने के लिए घायलों का सहारा।
सत्ता की लठैत बनी पुलिस फुफकारी नहीं तो मर जाएगी।
जब तक कमिश्नर और आईपीएस सत्ता के लठैत बने रहेंगे मातहत पुलिस इसी तरह पिटती रहेंगी।


इंद्र वशिष्ठ
लालकिले पर कुछ किसानों द्वारा कब्जा और झंडे फहराए जाना शर्मनाक हैं।
किसानों और पुलिस की झड़प में 394 पुलिस वाले घायल हुए हैं। हालांकि किसान भी घायल हुए हैं।
यह सब शर्मनाक तो है ही लेकिन इसके लिए पूरी तरह दिल्ली पुलिस कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव जिम्मेदार हैं। कमिश्नर की यह सबसे बड़ी विफलता हैं तो जाहिर सी बात हैं कि यह गृहमंत्री अमित शाह की भी नाकामी है।

कमिश्नर का अनाड़ीपन जिम्मेदार-
कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव ने कहा कि पुलिस ने संयम रखा। पुलिस के पास सभी विकल्प (ऑप्शन) थे लेकिन पुलिस ने संयम का रास्ता चुना क्योंकि हम जान माल का नुकसान नहीं चाहते थे। 
सच्चाई यह है कि पुलिस के पास कोई विकल्प था ही नहीं। कमिश्नर के गैर पेशेवर रवैये,अनाड़ीपन और नासमझी के कारण ही पुलिस वाले पिट गए और लालकिले पर कुछ किसानों  ने कब्जा किया।
आतंकियों के खिलाफ कार्रवाई क्यों नहीं की-
कमिश्नर ने खुद बताया कि उन्हें पहले दिन ही पता चल गया था कि आंदोलन की कमान आतंकियों के हाथों में चली गई है इसके बावजूद कमिश्नर ने ट्रैक्टर परेड को रद्द नहीं किया। सुरक्षा व्यवस्था भी कड़ी क्यों नहीं की गई। कमिश्नर की बात सच मान लें कि आंदोलन में आतंकी शामिल थे तो फिर पुलिस ने उनके खिलाफ अपने सभी विकल्पोंं का इस्तेमाल क्यों नहीं किया। आतंकियों के खिलाफ विकल्प इस्तेमाल करने से क्या उन्हें किसे ने रोका था ?

नाकामी छिपाने के लिए घायलों का सहारा-
पुलिस द्वारा अब अपने घायल पुलिस वालों का इस तरह प्रचार किया जा रहा है कि जैसे उन्होंने बहुत ही बहादुरी का काम किया है। सच्चाई यह है। पुलिस कमिश्नर के सही कदम न उठाने का खामियाजा इन पुलिस कर्मियों को भुगतना पड़ा है। जब तक कमिश्नर और आईपीएस सत्ता के लठैत बने रहेंगे मातहत पुलिस इसी तरह पिटती रहेंगी।

आईपीएस ने नारे लगा कर जान बचाई-
कमिश्नर अपनी नाकामी और विफलता को छिपाने के लिए अब यह सब कह या कर रहे हैं।
सच्चाई यह है कि कमिश्नर ने पुलिस को ऐसी खराब/खतरनाक स्थिति में पहुंचा दिया था कि उसके पास अपनी जान बचाने के लाले पड़ गए थे। आईपीएस अफसरों तक को अपनी जान बचाने के लिए नारों को ही हथियार के रुप में इस्तेमाल करना पड़ा। इससे आईपीएस अफसरों की पेशेवर काबिलियत पर भी सवालिया निशान लग जाता है।

ये हम लोगों के ऊपर से जाएंगे-
पुलिस के जवान ही नहीं आईपीएस अफसर तक कितने डरे, सहमे और असहाय थे। इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि उत्तरी क्षेत्र के संयुक्त पुलिस आयुक्त सुरेंद्र सिंह यादव  ने पुलिस के जवानों से कहा कि 'शांति से इनको (किसानों)  समझाओ वरना ये हम लोगों के ऊपर से जाएंगे'। इसके साथ ही यादव ने जय जवान, जय किसान के नारे लगाए और मातहतों ने भी नारे लगाए।
संयुक्त पुलिस आयुक्त एस एस यादव का नारे लगाता हुआ वीडियो पुलिस कमिश्नर के गैर पेशेवर रवैये, काबलियत की पोल खोलने के लिए काफी है। इससे पता चलता है कि कमिश्नर ने अपने जवानों और दिल्ली के लोगों की जान को खतरे में डाल दिया था। 
इससे यह साफ पता चलता है कि पुलिस बल कितना डरा हुआ था। इसके लिए पूरी तरह से कमिश्नर जिम्मेदार है। 
पुलिस बल को मौके की नजाकत या गंभीरता के आधार पर कार्रवाई करने का अधिकार होता है।  लालकिले पर हमला/कब्जा हुआ, पुलिस के अनेक जवानों ने लालकिले के बाहर की खाई में कूद कर अपनी जान बचाई। इसके बावजूद पुलिस कमिश्नर यह कह कर अपनी पीठ थपथपा रहें है कि हमने संयम से काम लिया। यह सिर्फ़ पुलिस की नाकामी को छिपाने की कोशिश है।
 सच्चाई यह हैं कि इस तरह की स्थिति से निपटने के लिए पुलिस की कोई तैयारी ही नहीं थी। इस मामले से कमिश्नर की पेशेवर काबिलियत  की पोल खुल गई है।

मातहतों और लोगों की जान से खिलवाड़-
यदि कमिश्नर की बात पर यकीन भी कर लें तो सबसे बड़ा सवाल यह ही उठता है कि यह  जानते हुए भी कि आंदोलन मिलिटेंट के हाथों में चला गया तो उन्होंने परेड को रद्द न कर अपने पुलिस वालों और आम लोगों की जान को जान बूझकर खतरे में क्यों डाल दिया। एक तरह से कमिश्नर की इस हरकत के कारण ही वह कथित मिलिटेंट लालकिले पर कब्जा कर झंडा फहराने में सफल हो गए। वैसे झंडा फहराने वालों में पंजाब का फिल्म कलाकार दीप सिद्दू भी शामिल था। दीप सिद्दू की प्रधानमंत्री मोदी, अमित शाह, भाजपा सांसद सन्नी देओल और हेमामालिनी के साथ की तस्वींरें वायरल हुई हैं।

आंसूगैस ही नहीं लाठीचार्ज भी किया-
पुलिस कमिश्नर ने कहा कि पुलिस ने संयम रखा और सिर्फ आंसूगैस का इस्तेमाल किया गया है। जबकि सच्चाई यह है कि ऐसे अनेक वायरल वीडियो मीडिया में सामने आए हैं  जिनमे साफ पता चलता है कि जहां पर किसान कम संख्या में थे वहां पुलिस ने उन पर लाठियां बरसाई। दूसरी ओर जहां पुलिस कम थी वहां किसानों ने उन पर हमला किया। लालकिले पर किसानों की संख्या बहुत ज्यादा थी इसलिए पुलिस चुपचाप बैठी रही। इसी लिए किसान लालकिले पर कब्जा कर झंडा फहराने में सफल हो गए। पुलिस कमिश्नर ने यदि अपने कर्तव्य का ईमानदारी से पालन किया होता तो लालकिले की शर्मनाक घटना नहीं होती।

कमिश्नर की वर्दी पर लागा लालकिले का दाग।
किसानों में घुसे आतंकियों को पकड़ा क्यों नहीं।
मातहतों और लोगों की जान को खतरे में डाला।

दिल्ली पुलिस को मालूम था कि किसान आंदोलन पर आतंकवादियों/ मिलिटेंट का कब्जा हो गया है। यह गंभीर संवेदनशील सूचना मिलने के बावजूद पुलिस ने ट्रैक्टर मार्च की अनुमति रद्द नहीं की। इससे साफ जाहिर होता हैं कि लालकिले पर कुछ किसानों द्वारा हमला, झंडा फहराने के लिए पूरी तरह पुलिस कमिश्नर दोषी है। इससे यह भी पता चलता है कि पुलिस कमिश्नर ने दिल्ली के लोगों की ही नहीं अपने मातहत पुलिस वालों की जान को भी खतरे में डालने का काम किया है। हालांकि यह भी सच्चाई है कि बिना गृहमंत्री की अनुमति के पुलिस कमिश्नर अपनी मर्जी से कुछ भी नहीं कर सकते थे। इसलिए गृहमंत्री अमित शाह भी जिम्मेदार हैं।

दिल्ली पुलिस के एडहॉक कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव ने 27 जनवरी की शाम को मीडिया को जो जानकारी दी उससे ही साफ पता चल जाता है कि दिल्ली की सुरक्षा व्यवस्था और पुलिस बल कितने "काबिल" कमिश्नर के हाथों में है। 

आतंकवादियों की मंशा साफ ,पुलिस की नहीं -
पुलिस कमिश्नर ने बताया कि 25 जनवरी की देर शाम को उन्हें ये समझ आया कि वे (किसान) अपने वायदे से मुकर रहे हैं। जो आतंकवादी और आक्रामक लोग (एग्रेसिव और मिलिटेंट एलिमेंट्स) उनमें थे उनको उन्होंने आगे कर दिया है। मंच पर भी उनका कब्जा हो गया है। भड़काऊ भाषण दिए गए हैं। इससे उनकी मंशा शुरू में ही समझ मेंं आ गई। फिर भी पुलिस ने संयम से काम लिया। जो हिंसा हुई वह तय शर्तो का पालन न करने के कारण हुई। इसमें सभी किसान नेता शामिल रहे हैं। पुलिस ने इस दौरान संयम बरतते हुए आंसूगैस का ही इस्तेमाल किया।
नेताओं ने विश्वासघात किया-
पुलिस कमिश्नर ने कहा कि किसान नेताओं ने एग्रीमेंट का पालन नहीं कर विश्वासघात किया है और जो भी कानूनी कार्रवाई बनती है उनके खिलाफ की जाएगी।
कमिश्नर की काबीलियत पर सवाल-
पुलिस कमिश्नर के इस खुलासे से कमिश्नर की काबिलियत और भूमिका पर ही सवालिया  निशान लग जाते हैं। सबसे पहला तो यह कि जब यह पता चल गया था कि आंदोलन का नेतृत्व मिलिटेंट के हाथों में चला गया है तो पुलिस ने ट्रैक्टर परेड को रद्द करने की तुरंत घोषणा क्यों नहीं की। 
एनकाउंटर स्पेशलिस्ट कहां थे-
वहां मौजूद मिलिटेंट को पकड़ने के लिए कोई कार्रवाई क्यों नहीं की गई। पुलिस के स्पेशल सेल में तो वीरता पदक विजेता ऐसे कई 'बहादुर' अफसरों की भरमार है जो चुटकियों में आतंकवादियों का भी एनकाउंटर करने के स्पेशलिस्ट माने जाते हैं। इसके बावजूद भी अगर पुलिस खुद सक्षम नहीं थी तो मिलिटेंट को पकड़ने के लिए एनएसजी की मदद ले सकते थे। कौन-कौन से आतंकवादी वहां मौजूद थे उनके नाम तक भी कमिश्नर ने नहीं बताए हैं। मिलिटेंट कोई नेता तो नहीं होता जिसका कि नाम उजागर करने से पुलिस कमिश्नर को डर लगता। मिलिटेंट का नाम तो ढिंढोरा पीट कर बताया जाता हैं। 
किसानों में घुसे आतंकवादियों की फ़ोटो जारी हो- 
आंदोलन वाले स्थानों पर पुलिस के अलावा खुफिया एजेंसियों के अफसर भी मौजूद रहते हैं। इसके अलावा मीडिया का भी वहां जमावड़ा रहता हैं। इन सभी के पास वहां के वीडियो मौजूद थे। पुलिस को जब यह मालूम चल गया था कि वहां मिलिटेंट मंच पर भी मौजूद थे। तो कमिश्नर को उन मिलिटेंट की फोटो और वीडियो भी जारी करनी चाहिए थी जिससे कमिश्नर की बात आसानी से सही साबित हो जाती। लेकिन कमिश्नर ने मिलिटेंट की फोटो तो क्या उनके नाम तक नहीं बताए। इससे कमिश्नर के दावे पर सवालिया निशान लग जाता है।

कमिश्नर ने भी विश्वासघात किया ? -
कमिश्नर ने कहा कि किसान नेताओं ने विश्वासघात किया लेकिन अब तो लगता है कि पुलिस कमिश्नर ने भी अपनी वर्दी और उस शपथ के साथ विश्वासघात किया है जो आईपीएस अफसर बनते समय उन्होंने भी ली थी। कमिश्नर का सबसे पहला कर्तव्य तो आतंकवादियों को पकड़ने का होना चाहिए था। 
यह तो शुकर हैं कि जिन्हें कमिश्नर आतंकवादी या मिलिटेंट बता रहे हैं वह कोई बड़ा खून खराबा किए बिना वापस चले गए। वरना कमिश्नर ने तो ऐसा गैर पेशेवर काम कर दिया था कि दिल्ली में न जाने क्या हो जाता।
लालकिले जाने की बात भी मालूम थी-
पुलिस ने चंद सेकंड का एक संपादित वीडियो जारी किया जिसमें किसान नेता राकेश टिकैत कह रहा है कि वह लालकिले से इंडिया गेट तक परेड निकालेंगे। 
अब इस पर भी कमिश्नर की काबिलियत पर सवालिया निशान लग जाता हैं। जब कमिश्नर के पास पहले से टिकैत के बारे मे यह जानकारी थी तो सबसे पहली बात तो यह कि उन्होंने टिकैत के खिलाफ पहले ही कार्रवाई क्यों नहीं की। दूसरा जब लालकिला जाने की बात पता चल ही गई थी तो लालकिले पर सुरक्षा व्यवस्था कड़ी क्यों नहीं की गई।
पुलिस को चुनौती देकर घुसे-
किसान नेता सतनाम पन्नू ने 25 जनवरी को पुलिस अफसरों के सामने और मंच से भी खुलेआम घोषणा की थी कि वह तो रिंग रोड पर ही परेड करेंगे। 
कमिश्नर के खिलाफ कार्रवाई -
इन सब बातों से साफ पता चलता है कि पुलिस कमिश्नर ने जानबूझकर ऐसा काम किया जोकि आपराधिक लापरवाही की श्रेणी में भी आ सकता है।
किसान नेताओं के खिलाफ तो विश्वासघात और अपराध की अन्य धाराओं के तहत पुलिस ने मुकदमा दर्ज कर ही दिया है। लेकिन पुलिस कमिश्नर ने जो अक्षम्य अपराध किया उसके खिलाफ भला कार्रवाई कौन करेगा ।


IPS सत्ता के लठैत मत बनो।
सत्ता की लठैत बनी पुलिस फुफकारी नहीं तो मर जाएगी।
जब तक कमिश्नर और आईपीएस सत्ता के लठैत बने रहेंगे मातहत पुलिस इसी तरह पिटती रहेगी।

कमिश्नर हालात बिगाड़ै, किसान का आईपीएस बेटे संभालै-
दो साल पहले भी गांधी जयंती के दिन उत्तर प्रदेश के किसान दिल्ली आना चाहते थे लेकिन पुलिस ने उन्हें गाजीपुर सीमा पर रोका और इसी तरह के अत्याचार किए। ऐसे आईपीएस अफसर भी होते हैं जो किसानों के दिल्ली आने की सूचना मिलते ही पुलिस कमिश्नर से कहने लग जाते हैं कि किसानों के आने से दिल्ली में हाहाकार मच जाएगा ,कानून व्यवस्था खराब हो जाएगी। कमिश्नर को ऐसे अफसरों की बातें खुद के लिए भी अनुकूल लगती है। इसलिए वह किसानों को दिल्ली में घुसने से रोकने के लिए जुट जाते हैं। 
जबकि होना तो यह चाहिए कि सरकार तक अपनी आवाज़ पहुंचाने के लिए किसान या कोई भी जाना चाहे तो उसे वहां तक आसानी से पहुंचाने की  पुलिस को ऐसी अच्छी व्यवस्था करनी चाहिए जिससे सामान्य यातायात भी सुचारु रहे और किसी को कोई परेशानी भी नहीं हो। ऐसा करने से ही अफसरों की पेशेवर काबिलियत का पता चलेगा।
अब तो हालात यह हैं कि सत्ता के इशारे पर पुलिस  प्रदर्शनकारियों को सरकार तक पहुंचने से रोकने का गलत तरीका अपनाती हैं जिसके कारण टकराव होता है।  ऐसे में हालात बिगाड़ने के लिए पूरी तरह कमिश्नर ही जिम्मेदार है। हालात बिगड़ने के बाद कमिश्नर किसान परिवार से आए आईपीएस अफसरों को किसानों को समझाने के लिए आगे कर देते हैं। 
जैसे अब शुरू में  उत्तरी रेंज के संयुक्त पुलिस आयुक्त एस एस यादव के माध्यम से  किसानों को समझाने के लिए अपील करवाई गई थी। जिसमें उन्होंने बकायदा यह भी बताया कि वह भी किसान परिवार के ही हैं।

इसी तरह दो साल पहले गांधी जयंती पर पुलिस और किसानों के टकराव के बाद तत्कालीन संयुक्त पुलिस आयुक्त रवींद्र सिंह यादव को किसानों को समझाने की जिम्मेदारी दी गई। जिसके बाद किसान घाट आए और शांतिपूर्वक वापस चले गए।
किसान परिवार से आए आईपीएस अफसरों की बात राय अगर कमिश्नर पहले ही ले लेंं तो हालात बिगड़ने की नौबत ही नहीं आए।
धूर्त राजनेता किसानों पर अत्याचार भी किसान पुत्र पुलिसकर्मियों से करवा देते हैं। पुलिस में ज्यादा संख्या किसान पुत्रों की ही है।

सत्ता की लठैत बनी पुलिस -
सत्ता यानी मंत्री अगर प्रदर्शनकारियों को रोकने का आदेश पुलिस को देता है तो काबिल कमिश्नर को तो सरकार को यह सच्चाई बतानी चाहिए कि रोकने से तो हालात ज्यादा बिगड़  जाएगी। इसलिए सरकार को तुरंत प्रदर्शनकारियों को बुला कर उनसे बात करनी चाहिए। लेकिन अफसोस इस बात का हैं कि नाकाबिल कमिश्नर और आईपीएस में सरकार के सामने यह सच्चाई कहने की हिम्मत ही नहीं होती है। इसलिए आईपीएस सत्ता के लठैत बन कर लोगों को रोकने में ही सारी ताकत लगा देते हैं। आंसू गैस, लाठीचार्ज और कभी कभी तो गोली भी चला देते हैंं।  यह सब करके हार जाने के बाद ही वह लोगों को दिल्ली में आने की इजाज़त देते हैं। पुलिस की इसी हरकत के कारण वह सत्ता के लठैत कहलाते हैं और लोगों में पुलिस के प्रति सम्मान खत्म हो जाता है।

सभी सरकार एक सी-
सरकार चाहे भाजपा की हो या कांग्रेस की सभी पुलिस का इस्तेमाल अपने ग़ुलाम/ लठैत की तरह करते हैं। इसके लिए नेताओं से ज्यादा वह कमिश्नर/ आईपीएस अफसर दोषी हैं जो महत्वपूर्ण पद पाने के लिए राजनेताओं के दरबारी/ गुलाम/ लठैत बन कर आम आदमी पर अत्याचार करने से भी पीछे नहीं हटते। 

धारा 144 लगाना, लोगों की आवाज दबाना-
माना कि धारा 144 लागू होने के कारण प्रदर्शन करना मना है। लेकिन यह धारा भी तो पुलिस ही लगाती है। प्रदर्शनकारी  इस देश के ही तो होते हैं और वह अपनी आवाज़ अपने प्रधानमंत्री, सांसदों, नेताओं तक नहीं पहुंचाएंगे तो किसके सामने अपना दुखड़ा रोएंगे ?
अगर वहां पहुंच कर कोई कानून हाथ में लेने की कोशिश करे तो ही पुलिस को उनके खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए। 
समाधान की बजाए टकराव के रास्ते पर पुलिस -
नाकाबिल अफसरों के कारण ही हालात बिगडते हैं।  दिल्ली वालों को परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इसके लिए कमिश्नर ही पूरी तरह जिम्मेदार होता हैं लेकिन आम लोग समझते हैं कि किसानों या अन्य प्रदर्शनकारियों के कारण उन्हें परेशानी का सामना करना पड़ा।  प्रदर्शनकारी तो अपने लोकतांत्रिक हक का लोकतांत्रिक तरीकों से शांतिपूर्वक इस्तेमाल करना चाहते हैं। सरकार के इशारे पर पुलिस ही उनके अधिकारों का हनन करती हैं।
प्रदर्शन का हक़ छीनती पुलिस-
पुलिस अफसरों की काबिलियत का पता इस बात से चलता है कि बडे़ से बड़े प्रदर्शन के दौरान कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए कितना अच्छा इंतजाम करते है। लेकिन अब तो पुलिस आसान रास्ता अपनाती  है धारा 144 लगा कर लोगों के इकट्ठा होने पर ही रोक लगा देती है। सुरक्षा कारणों के नाम पर मेट्रो के गेट बंद कर या सड़क पर यातायात बंद कर लोगों को परेशान करती है।
पुलिस जब धारा 144 लगा कर लोगों को उनके प्रदर्शन के हक़ से वंचित करने की कोशिश करती है तभी टकराव होता है।  

लोकतंत्र में अपनी समस्याओं और मांगों को अपनी सरकार के सामने शांतिपूर्ण तरीके से रखा जाता है। लेकिन यहां तो उल्टा ही हिसाब है सरकार चाहे किसी भी दल की हो संसद सत्र के दौरान संसद भवन के आसपास धारा 144 लगा कर लोगों को वहां प्रदर्शन करने से ही रोक दिया जाता है। अब ऐसे में कोई कैसे अपनी सरकार तक अपनी फरियाद पहुंचाए।

छात्रों पर जुल्म ढहाया-
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्र  साल 2019 में अपनी मांगों को लेकर संसद भवन जाना चाहते थे। पुलिस ने उनको रोकने के लिए पूरी ताकत लगा दी।
वकीलों और नेताओं से पिटने और बदसलूकी के बावजूद जो पुलिस कमिश्नर और आईपीएस अफसर उनके खिलाफ एफआईआर तक दर्ज करने की हिम्मत नहीं दिखाते। उस पुलिस ने छात्रों पर लाठीचार्ज कर अपनी बहादुरी/ मर्दानगी का परिचय दिया। पुलिस की बर्बरता का आलम यह रहा कि उसने अंधे छात्रों पर भी रहम नहीं किया। नेत्रहीन छात्र को भी पीटने में संवदेनहीन पुलिस को ज़रा भी शर्म नहीं आई। 
हिंसा, आगजनी, तोड़ फोड़ और पुलिस अफसरों को भी बुरी तरह पीटने  वाले वकीलों के सामने आईपीएस अफसर हाथ जोड़कर विनती करते हैं दूसरी ओर शांतिपूर्ण तरीके से संसद भवन जाना चाह रहे छात्रों पर भी पुलिस जुल्म ढहाती है।

आम आदमी को पीटने वाली बहादुर पुलिस-
खुद के पिटने पर रोने वाली पुलिस लोगों को पीट कर खुश-
यह वही पुलिस है जिसकी डीसीपी मोनिका भारद्वाज द्वारा वकीलों के आगे डर कर हाथ  जोड़ने और जमात सहित दुम दबाकर कर भागने की वीडियो पूरी दुनिया ने देखी। यह वही दिल्ली पुलिस है जिसे वकीलों ने पीटा तो अनुशासन भूल कर अपने परिवारजनों  के साथ पुलिस मुख्यालय पर अपना दुखड़ा रोने जमा हो गई थी।

उस समय आम आदमी पुलिस के पिटने पर खुश हुआ था उसकी मुख्य वजह यह है कि आम आदमी पुलिस के दुर्व्यवहार, भ्रष्टाचार, अत्याचार और अकारण लोगों को पीटने से त्रस्त हैं। इसलिए वकीलों ने पीटा तो आम आदमी ने कहा कि पुलिस के साथ ठीक हुआ। हालांकि कानून के ज्ञाता वकीलों द्वारा ही कानून हाथ में लेना बहुत ही शर्मनाक है।
वकीलों के खिलाफ तो डीसीपी मोनिका भारद्वाज ने अपने साथ हुई बदसलूकी की खुद एफआईआर तक दर्ज कराने की हिम्मत नहीं दिखाई।
हिंसा, आगजनी और पुलिस अफसरों तक को बुरी तरह पीटने  वाले वकीलों पर तो इस कथित बहादुर पुलिस ने आत्म रक्षा में भी पलट कर वार नहीं किया। उस समय जिस पुलिस के हाथों में लकवा मार गया था वहीं पुलिस आम आदमी पर खुल कर हाथ छोड़ती है।

IPS खाकी को ख़ाक में मत मिलाओ-
यह पुलिस आम आदमी पर ही डंडे बरसा कर बहादुरी दिखा सकती। वरना इस पुलिस के आईपीएस कितने बहादुर है यह सारी दुनिया ने उस वीडियो में देखा है जब भाजपा सांसद मनोज तिवारी ने उत्तर पूर्वी जिले के तत्कालीन डीसीपी अतुल ठाकुर को गिरेबान से पकड़ा और एडिशनल डीसीपी राजेंद्र प्रसाद मीणा को खुलेआम धमकी दी। तब पुलिस कमिश्नर और इन आईपीएस अधिकारियों की हिम्मत मनोज तिवारी के खिलाफ एफआईआर तक दर्ज करने की नहीं हुई।

जागो IPS जागो -
किसी के भी पिटने पर किसी को ख़ुश नहीं होना चाहिए लेकिन वकीलों ने पुलिस को पीटा तो लोग खुश हुए। आईपीएस अफसरों को इस पर चिंतन कर पुलिस का व्यवहार सुधारने की कोशिश करनी चाहिए। वरना ऐसी आशंका है कि एक दिन ऐसा भी हो सकता है कि पुलिस के अत्याचार से परेशान हो कर आम आदमी भी डंडे बरसाने वाली पुलिस पर आत्म रक्षा में पलटवार करने लगेगा। इस सबके लिए सिर्फ और सिर्फ आईपीएस अफसर ही जिम्मेदार होंगे।
पुलिस को अपनी बहादुरी और मर्दानगी दिखाने की हिम्मत और शौक है तो अपराध करने, कानून तोड़ने वाले नेताओं/रईसों और गुंडों पर  दिखाएं।
गुंडों, शराब माफिया तक से पिटने वाली पुलिस द्वारा वर्दी के नशे में आम शरीफ़ आदमी पर अत्याचार करना बहादुरी नहीं होती।

पुलिस कानून हाथ में लेने वाले ताकतवर लोगों और खास समुदाय के खिलाफ कार्रवाई नहीं करती।
इन मामलों से यह पता चलता है

कमजोर को पीटती और ताकतवर से पिटती पुलिस--

आईपीएस अफसर भी गुलाम की तरह पुलिस का इस्तेमाल करते है।-- 
देश की राजधानी दिल्ली में ही पुलिस जब नेता के लठैत की तरह काम करती है तो बाकी देश के हाल का अंदाजा लगाया जा सकता है। 4-6-2011 को रामलीला मैदान में रामदेव को पकड़ने के लिए सोते हुए औरतों और बच्चों पर तत्कालीन पुलिस आयुक्त बृजेश कुमार गुप्ता और धर्मेंद्र कुमार के नेतृत्व में पुलिस ने लाठीचार्ज और आंसू गैस का इस्तेमाल कर फिरंगी राज को भी पीछे छोड़ दिया। उस समय ये अफसर भूल गए कि पेशेवर निष्ठा,काबलियत को ताक पर रख कर लठैत की तरह लोगों पर अत्याचार करने का खामियाजा भुगतना भी पड़ सकता है। इसी लिए प्रमुख दावेदार होने के बावजूद अन्य कारणों के साथ इस लठैती के कारण भी धर्मेंद्र कुमार का दिल्ली पुलिस कमिश्नर बनने का सपना चूर चूर हो गया। 
धर्म ना देखो अपराधी का -- 
रामलीला मैदान की बहादुर पुलिस को 21 जुलाई 2012 को सरकारी जमीन पर कब्जा करके मस्जिद बनाने की कोशिश करने वाले गुंड़ों ने दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। माहौल बिगाड़ने के लिए जिम्मेदार बिल्डर नेता शोएब इकबाल के खिलाफ पुलिस ने पहले ही कोई कार्रवाई नहीं की थी। जिसका नतीजा यह हुआ कि गुंड़ों ने पुलिस को पीटा, पथराव और आगजनी की। लेकिन अफसरों ने यहां गुंड़ों पर भी  रामलीला मैदान जैसी मर्दानगी दिखाने का आदेश पुलिस को  नहीं दिया। इस तरह आईपीएस अफसर भी नेताओं के इशारे पर पुलिस का इस्तेमाल कहीं बेकसूरों को पीटने के लिए करते है तो कहीं गुंड़ों से भी पिटने देते है। अफसरों की इस तरह की हरकत से निचले स्तर के पुलिसवालों में रोष पैदा हो जाता है।
बुखारी का भी बुखार क्यों नहीं उतारती सरकार ---दिल्ली पुलिस ने जामा मस्जिद के इमाम को सिर पर बिठाया हुआ है। कोर्ट गैर जमानती वारंट तक भी जारी करती रही हैं लेकिन दिल्ली पुलिस कोर्ट में झूठ बोल कह देती है कि इमाम मिला नहीं। जबकि इमाम पुलिस सुरक्षा में रहता है। मध्य जिले में तैनात रहे कई डीसीपी  तक इमाम अहमद बुखारी को सलाम  ठोकने जाते रहे हैं। दिल्ली पुलिस में आईपीएस कर्नल सिंह ने ही  इमाम की सुरक्षा कम करने की हिम्मत दिखाई थी। शंकराचार्य जैसा व्यक्ति जेल जा सकता है तो इमाम क्यों नहीं? एक मस्जिद के अदना से इमाम को सरकार द्वारा सिर पर बिठाना समाज के लिए खतरनाक है। इमाम को भला पुलिस सुरक्षा देने की भी क्या जरूरत है। कानून सबके लिए बराबर  होना चाहिए। अहमद बुखारी के खिलाफ कितने आपराधिक मामले दर्ज हैं इसका भी खुलासा सरकार को करना चाहिए।

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