Wednesday 27 January 2021

लालकिले पर हमला वाकई शर्मनाक है ? तो शर्म क्यों नहीं आ रही ? गृहमंत्री अमित शाह और कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव पद पर क्यों ? IPS नायक बनो खलनायक नहीं



     लालकिले पर झंडा फहराने वाला दीप सिद्दू
              कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव

लालकिले पर हमला वाकई शर्मनाक है ? 
तो सरकार को शर्म क्यों नहीं आ रही ?
गृहमंत्री अमित शाह और कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव पद पर क्यों ?
कमिश्नर ने पुलिसकर्मियों की जान को भी खतरे में डाला-
IPS नायक बनो खलनायक नहीं

इंद्र वशिष्ठ
लालकिले पर जो हुआ क्या वह वाकई शर्मनाक है? या बस यूं ही हंगामा बरपा है।
यह सवाल इस लिए उठ रहा है कि किसानों ने लालकिले पर कब्जा कर निशान साहिब और किसानों का झंडा लगा कर अगर वाकई देश को पूरी दुनिया में शर्मसार किया या देशद्रोह किया है तो फिर देश के गृहमंत्री के पद पर अमित शाह को और दिल्ली पुलिस के कार्यवाहक कमिश्नर  सच्चिदानंद श्रीवास्तव को पद पर बने रहने का कोई हक नहीं है। इन दोनो के पद पर बने रहने से साफ है कि इस मामले का सिर्फ राजनीति के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है। 
अगर वाकई भाजपा की सरकार इस मामले को लेकर गंभीर होती तो गृहमंत्री अमित शाह को राजधानी की कानून व्यवस्था की स्थिति संभालने में विफल रहने के लिए तुरंत इस्तीफा देना चाहिए था।

कमिश्नर ने पुलिसकर्मियों की जान को भी खतरे में डाला-
 पुलिस कमिश्नर  को पद से हटाने के अलावा 
उनके खिलाफ पुलिस कर्मियों और दिल्ली के लोगों की जान को खतरे में डालने के लिए भी कार्रवाई की जानी चाहिए थी। कमिश्नर सच्चिदानंद श्रीवास्तव को ऐतिहासिक लालकिले पर किसानों के कब्जे के लिए भी याद रखा जाएगा।
हिंसा जायज नहीं-
हालांकि कुछ किसानों द्वारा की गई हिंसा को किसी तरह भी जायज नहीं ठहराया जा सकता हैं लेकिन यह जो कुछ हुआ उसके लिए पूरी तरह सरकार और पुलिस ही जिम्मेदार है।

साल 2019 में तो वकीलों ने पुलिस वालों को ही जमकर पीटा था उस मामले में सरकार ने तत्कालीन नाकाम कमिश्नर अमूल्य पटनायक को हटाने की बजाए बिना कसूर के ही स्पेशल कमिश्नर संजय सिंह और एडिशनल डीसीपी हरेंद्र सिंह का ही तबादला कर दिया था। जबकि हरेंद्र सिंह को तो वकीलों ने जमीन पर गिरा कर पीटा था।
सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन चीफ जस्टिस रंजन गोगोई असम में कामाख्या मंदिर गए थे उन्हें वहां कुछ असुविधा हुई तो एक एसपी को निलंबित तक कर दिया गया था।
 दिल्ली में बम धमाकों के बाद तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल को सिर्फ़ इस वजह से पद गंवाना पड़ गया था कि वह घटनास्थलों पर अलग अलग पोशाकों में नजर आ गए थे।
अब लालकिले जैसे संवेदनशील महत्वपूर्ण मामले में पुलिस कमिश्नर तक को पद से न हटाया जाना आश्चर्यजनक हैं। सरकार की भूमिका पर सवालिया निशान लगाता है।
पुलिस का 'फेलप्रूफ' इंतजाम फेल -
दिल्ली पुलिस के स्पेशल कमिश्नर दीपेंद्र पाठक ने मीडिया को पहले ही बता दिया था कि पाकिस्तान द्वारा भी किसान आंदोलन में गड़बड़ी की कोशिश की जा रही हैं किसानों को उकसाने के लिए पाकिस्तान से 308 टिवटर हैंडल का इस्तेमाल भी किया जा रहा है।  दीपेंद्र पाठक ने तो यह तक दावा किया था कि पुलिस ने सुरक्षा के 'फेलप्रूफ' इंतजाम किए हैं।
तो ऐसे में पुलिस और खुफिया एजेंसियों को क्या यह सब मालूम नहीं था कि कुछ किसान दिल्ली के अंदरूनी इलाकों में घुसने की कोशिश कर सकते हैं। ऐसे में पुलिस द्वारा सुरक्षा की पुख्ता व्यवस्था नहीं करना पुलिस की भूमिका पर सवालिया निशान लगाते हैं।
 असल में सच्चाई यह है कि पुलिस अफसरों की प्राथमिकता सिर्फ़  प्रधानमंत्री, मंत्री, जजों और लुटियंस इलाके की ही सुरक्षा करने की रहती है।
आम जनता की सुरक्षा और असुविधा की पुलिस को परवाह नहीं होती।

दीप सिद्दू का भाजपा कनेक्शन-
25 जनवरी को किसानों का सतनाम पन्नू का धड़ा दिल्ली में घुसने की बात खुलेआम पुलिस अफसरों के सामने कह रहा था। इसके बावजूद पुलिस ने  किसानों को रोकने और सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम क्यों नहीं किए ?
पंजाबी फिल्मों के कलाकार दीप सिद्दू ने भी खुलेआम यह कहा था। इसी दीप सिद्दू ने भी लालकिले पर झंडा फहराया था। पंजाब के गुरदासपुर से भाजपा सांसद सन्नी देओल, प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह के साथ दीप सिद्दू की नजदीकी वाली वायरल तस्वीरें अलग ही कहानी बयां कर रही हैंं।
किसान को बदनाम मत करो-
लालकिले पर अपने झंडे लगाने के बाद अपना विरोध दर्ज करा कर किसान चुपचाप आराम से वापस चले गए। इसके बावजूद मीडिया द्वारा उन्हें उपद्रवी कहा जा रहा है।
दिल्ली तुम तो चुप ही रहो-
पिछले साल फरवरी में हुए दंगों और 1984 के दंगों के दौरान हजारों बेकसूर सिखों के नरसंहार की जिम्मेदार और गवाह दिल्ली को तो अब किसी को भी उपद्रवी कहने का नैतिक हक ही नहीं बनता है।
सोचो अगर तलवारधारी सिख और लाठी धारी सारे किसान  वाकई दंगा करने पर उतारू हो जाते तो हालात कितने खतरनाक और बेकाबू हो जाते। ऐसे में कुछ किसानों के कारण सभी किसानों के बारे में गलत बयान बाजी करना उचित नहीं है।
किसान जितनी तादाद में लालकिले के अंदर पहुंच गए थे अगर उनकी मंशा गलत होती तो वह वहीं पर कब्जा करके बैठ भी सकते थे। तब सरकार के लिए और लोगों के लिए बहुत बड़ा संकट खड़ा हो सकता था। 
किसानों की आवाज सुनो-
इससे साफ पता चलता है कि जैसे भगत सिंह
और बटुकेश्वर दत्त ने असेंबली में बहरी अंग्रेज सरकार को सुनाने के लिए सिर्फ धमाके की आवाज वाला बम फेंका था। उसी तरह लगता है कि शायद इन कुछ किसानों ने भी सरकार तक अपनी आवाज पहुंचाने के लिए लालकिले पर झंडा लगाने का यह रास्ता चुना होगा। हालांकि किसानों द्वारा की गई हिंसा को बिल्कुल भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। कुछ किसानों की इन हरकतों ने  किसान आंदोलन को बदनाम कर दिया।
इन किसानों का यह रास्ता गलत था या सही इस पर अलग अलग मत हो सकते हैं। उस पर कानून अनुसार कार्रवाई भी हो ही रही है । लेकिन इतना तो तय है कि यह सब किया कानून रद्द कराने के लिए ही गया। किसी आपराधिक मामले में भी नीयत या मकसद देखा जाता है।
सरकार का विरोध देशद्रोह नहीं-
इसे किसी भी तरह से देश के खिलाफ की जाने वाली कार्रवाई नहीं कहा जा सकता। लोगों को समझना चाहिए कि सरकार यानी राजनैतिक दल के सत्ताधारी नेता और देश दोनों अलग अलग  हैं। सत्ता में बैठे नेताओं द्वारा थोपे गए कानून का विरोध करना जनता का लोकतांत्रिक अधिकार है। सरकार का विरोध करने का मतलब देश का विरोध करना नहीं होता।
किसानों ने लालकिले पर लगे हुए राष्ट्र ध्वज का अपमान नहीं किया। लालकिले पर अपने ध्वज लगाना देशद्रोह कैसे हो सकता है। जिसने भी हिंसा की और कानून अपने हाथ में लिया उसके खिलाफ तो कानून के अनुसार कार्रवाई की ही जाएगी ।
सत्ताधारी करें तो ठीक-
जब संसद, विधानसभा में या अन्य सरकारी कार्यक्रम (हाल ही में कोलकाता में) में जयश्रीराम या अन्य धर्म के नारे लगाए जा सकते हैं।  नियम कानून की धज्जियां उड़़ाई जाती हैं तो किसानों द्वारा लालकिले पर अपने धर्म के नारे लगाना, झंडा फहराना अपराध कैसे माना जा सकता है ?
यह मामला सीधे सीधे सरकार की विफलता का है। किसानों ने जो किया उसके लिए सिर्फ और सिर्फ सरकार और पुलिस ही जिम्मेदार है। इन दोनों के कारण ही कुछ किसानों ने यह कदम उठाया । शेष किसानों ने तो शांतिपूर्ण तयशुदा रास्ते पर अपनी ट्रैक्टर परेड निकाली।

किसान दो महीने से दिल्ली की सीमा पर शांतिपूर्ण धरना दे रहे हैं। डेढ़ सौ से ज्यादा किसान  अपनी जान गंवा चुके हैं। लेकिन सरकार बिल्कुल संवेदनहीन रवैया अपनाए हुए है।
इसके पहले किसान कई महीने से पंजाब में धरना प्रदर्शन कर रहे थे लेकिन सरकार उनकी बात सुन नहीं रही थी। ऐसे में किसान अपनी सरकार के सामने जा कर गुहार लगाने के लिए आए। लेकिन सरकार ने अपनी लठैत पुलिस को आगे कर दिया जिसने किसानों को दिल्ली में घुसने से ही रोक दिया। 
किसानों को घुसने से रोकने के लिए पुलिस ने रास्ते बंद किए हैं लेकिन अजीब बात यह है कि  लोग रास्ते बंद करने के लिए किसानों को दोष दे रहे हैं।

आईपीएस सत्ता के लठैत मत बनो- 
पुलिस जिस तरह किसी भी शिकायत/समस्या को तथ्यों के आधार दीवानी या फौजदारी मामला तय करके उसके अनुसार कार्रवाई करती हैं। पुलिस साफ बता देती है कि यह दीवानी या असंज्ञेय अपराध का मामला है इसमें अदालत ही कार्रवाई करेगी पुलिस की इसमें कोई भूमिका नहीं है।
इसी तरह कमिश्नर /आईपीएस अफसर
को किसानों जैसे मामले में भी सरकार से साफ कह देना चाहिए कि यह सीधे तौर पर कानून व्यवस्था या अपराध से जुड़ा मामला नहीं है। यह सीधे सीधे सरकार द्वारा बनाए कानून के विरोध का मामला है लोगों को शांतिपूर्ण विरोध करने का अधिकार है। ऐसे मेंं सरकार/ नेताओं को तुरंत किसानों से बात करके समस्या का समाधान करना चाहिए। सरकार के तुरंत बात न करने से ही कानून व्यवस्था बिगड़ने की नौबत आती है। कानून व्यवस्था बिगड़ने और प्रदर्शनकारियों से टकराव होने पर सारा ठीकरा पुलिस के सिर फूटता है। सरकार तो पल्ला झाड़ लेती है। राजनैतिक मुद्दा बनने पर सरकार आईपीएस अफसर को हटाने में देर नहीं लगाती। नई दिल्ली जिले के तत्कालीन डीसीपी मनोज लाल को प्रदर्शनकारी नेताओं के खिलाफ बलप्रयोग करने के कारण सरकार ने हटा दिया था। लेकिन मीडिया ने इसकी आलोचना की तो सरकार को मनोज लाल को वापस वहीं तैनात करना पड़ा।

शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन करने वालों को कुचलने के लिए लठैत की तरह पुलिस का इस्तेमाल किया जाना पुलिस का दुरुपयोग होता है। 
काश आईपीएस अफसर इतनी ईमानदारी से अपने कर्तव्यों का पालन करने वाले होते तो लालकिले जैसी घटना होने की नौबत नहीं आती। किसानों को आजाद देश में महीनों  गुहार नहीं लगानी  पड़ती।
आईपीएस नायक बनो खलनायक नहीं-
लेकिन अफसोस आईपीएस जैसी सेवा में आने के बाद भी अफसर नेताओं के लठैत के रुप में काम करते हैं। ऐसे अफसरों के कारण ही पुलिस की छवि नायक की बजाए खलनायक की बन गई है।
क्या आईपीएस अफसर इतने अनाडी होते हैं कि उन्हें यह समझ नहीं आता कि नेता उन्हें अपने राजनैतिक फायदे के लिए लठैत की तरह उन्हें इस्तेमाल कर रहे हैं। आईपीएस कानून और संविधान के तहत काम करने की शपथ लेते हैं लेकिन मनचाही पोस्टिंग जैसे निजी फायदे के लिए वह नेताओं के दरबारी बनने से भी नहीं शरमाते। आईपीएस अफसरों की इसी बात का फायदा नेता जमकर उठाते हैं। आईपीएस अगर ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन करें और नेताओं की गलत बात को मानने से इनकार कर दें तो न केवल पुलिस का बल्कि देश और समाज का भला हो जाए।
जैसे ही किसान दिल्ली सीमा पर आए थे उन्हें सरकार तक आसानी से पहुंचने देने की व्यवस्था पुलिस को करनी चाहिए थी। लेकिन पुलिस ने अपने आकाओं को खुश करने के लिए उल्टा काम किया। किसानों को दिल्ली में घुसने से ही रोक दिया। किसानों को अगर पुलिस न रोकती तो यह समस्या दो दिन में हल हो सकती थी। 
किसानों के साथ अन्याय-
क्या किसानों को दिल्ली आकर शांतिपूर्ण तरीक़े से अपनी सरकार के गलत कानून का विरोध करने का हक न देना किसानों के साथ अन्याय नहीं है ?
कैसा लोकतंत्र ? लोक पर तंत्र हावी -
यह कैसा लोकतंत्र हैं कि जिन नेताओं को लोग चुनते हैं वह सत्ता संभालने के बाद नागरिकों के साथ गुलामों जैसा व्यवहार करते हैं। पुलिस की ताकत के कारण ही नेता जनता को गुलाम समझने की हिम्मत करते हैं।
किसानों की शुरू से एक ही मांग है कि नए बनाए तीनों कृषि कानूनों को खत्म किया जाए। इसके बावजूद सरकार बार बार बैठकें करके मामले को लटका रही है। सरकार अगर कानून बनाने से पहले ही किसानों के साथ बैठकें कर लेती तो टकराव की यह नौबत नहीं आती। 
सरकार द्वारा बिना मांगे और बिना किसानों से सलाह के यह कानून बना देना ही उसकी नीयत पर सवालिया निशान लगा देता है। राज्यसभा में जिस तरह  सांसदों की वोटिंग की मांग को अनसुना कर ध्वनि मत से इस कानून को पास किया गया उस पर तो संविधान विशेषज्ञ भी सवाल उठा चुके हैं।

पुलिस को बता कर दिल्ली में घुसें-
25 जनवरी की सुबह किसान मजदूर संघर्ष कमेटी (पंजाब) के अध्यक्ष सतनाम सिंह पन्नू और महासचिव सरवन सिंह पंधेर के अलावा कई अन्य नेताओं ने मंच से एलान किया कि किसान मजदूर संघर्ष कमेटी हर हाल में रिंग रोड पर ट्रैक्टर परेड निकालेगी। कमेटी अपने रूट पर कायम है। पुलिस बेशक रोकने की कोशिश करे, लेकिन हम इसी रूट पर ही परेड निकालेंगे।
सतनाम सिंह पन्नू और सरवन सिंह पंधेर की दो बार पुलिस अधिकारियों के साथ बैठक हुई। इसके बाद पंधेर ने मीडिया से कहा  किसान मजदूर संघर्ष कमेटी गणतंत्र दिवस पर पहले से निर्धारित बाहरी रिंग रोड पर ही ट्रैक्टर परेड निकालेगी।





       दीप सिद्दू


4 comments:

  1. Panditji aapki aik tarfa soach se mai bahut dookhi hu . Aap ko is se jyada mai kuch nahin kahssakta.

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  2. इंद्र वशिष्ठ जी ने बहुत सटीक बात कही है, 62 दिन तक दिल्ली की दहलीज पर भरी ठंड में किसानो के धैर्य की जितनी तारीफ की जाए कम है,एक भी अप्रिय बात किसानों द्वारा बॉर्डर पर नहीं हुई,शांति प्रदर्शन एक मिशाल हैं,26 जनवरी को अनुमति से दिल्ली में प्रवेश के बाद भी शांति पूर्वक रहे सब को हाथ जोड़ प्रणाम करते जा रहे थे, जबरन बेरिकेट तोड़ कर लाल किला आना कोई देशद्रोह नहीं हो सकता,हमारे लिए जब हम धर्मनिरपेक्ष हैं तो निशान साहिब का झंडा तो निशान साहिब जी का सम्मान है हम नतमस्तक हैं और सलाम करते हैं उस ध्वज को जो लाल किले पर चंद मिनट ही रहा हो, अगर रोष में कुछ अधिक भी कर सकते थे नहीं किया इसलिए किसानों की जितनी तारीफ की जाए कम है, शर्म करो सरकार के ओहदेदारों दिल्ली में आपके तख्त तक बिगुल बजा दिया जिन्हें 62 दिनों तक दरबार के अंदर तक आने ही नहीं दिया था!
    *जैसे शांतिपूर्ण आये थे उसी तरह वापिस चले गए,संसार में दूसरी कोई मिशाल नहीं है, हमे किसानों पर फक्र है!
    जय जवान जय किसान!

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  3. वशिष्ठ भाई आपकी भी बात सझाई गई और भी बहुत से भाइयों ने बोला परंतु आज का दौर कान पर जूं रेंगने का नही है पुरानी कहावत है जिसकी लाठी उसकी भैंस तो आज लाठी सत्ता पक्ष के पास है उनके द्वारा किया कार्य वही सही है आज चौथे स्तंभ को दरकिनार किया जा रहा है केवल जरूरत पड़ने पर ही याद करते है वो भी मजबूरी है उनकी?

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  4. समय का इंतजार सबको है
    वक्त करवट बदलेगा?

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