Friday 22 November 2019

सत्ता की लठैत बनी पुलिस, निर्बल को पीटती,सबल से पिटती, कमिश्नर ने किया पुलिस का बंटाधार



सत्ता की लठैत बनी पुलिस, 
निर्बल को पीटती , सबल से पिटती।
पुलिस कमिश्नर ने किया पुलिस का बंटाधार।
कमजोर पर सितम, ताकतवर को सलाम करती पुलिस।

इंद्र वशिष्ठ

जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के छात्र अपनी मांगों को लेकर संसद भवन जाना चाहते थे। पुलिस ने उनको रोकने के लिए पूरी ताकत लगा दी।
पुलिस ने संवेदनशीलता, इंसानियत को ताक पर रख दिया।
वकीलों और नेताओं से पिटने और बदसलूकी के बावजूद जो पुलिस कमिश्नर और आईपीएस अफसर उनके खिलाफ एफआईआर तक दर्ज करने की हिम्मत नहीं दिखाते। उस पुलिस ने छात्रों पर लाठीचार्ज कर अपनी बहादुरी/ मर्दानगी का परिचय दिया। पुलिस की बर्बरता का आलम यह रहा कि उसने अंधे छात्रों पर भी रहम नहीं किया। नेत्रहीन छात्र को भी पीटने में संवदेनहीन पुलिस को ज़रा भी शर्म नहीं आई। 

हिंसा, आगजनी, तोड़ फोड़ और पुलिस अफसरों को भी बुरी तरह पीटने  वाले वकीलों के सामने आईपीएस अफसर हाथ जोड़कर विनती करते हैं दूसरी ओर शांतिपूर्ण तरीके से संसद भवन जाना चाह रहे छात्रों पर पुलिस ज़ुल्म ढहाती है।

पुलिस कमिश्नर की संवेदनहीनता की पराकाष्ठा- 

पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक जय सिंह मार्ग स्थित पुलिस के नए बने मुख्यालय में बैठते हैं। पुलिस के अत्याचार के खिलाफ दिव्यांग छात्र वहां जाकर प्रदर्शन करना चाहते थे।  लेकिन पुलिस उनको आईटीओ स्थित पुराने पुलिस मुख्यालय ले गई। 

पुलिस के प्रवक्ता डीसीपी मंदीप सिंह रंधावा ने सात छात्रों के प्रतिनिधि मंडल को बातचीत के लिए बुलाया। छात्रों ने पुलिस अफसरों को पिटाई के वीडियो सौंपे। पुलिस ने मामले की जांच कराने और पुलिस कमिश्नर से हफ्ते के भीतर मुलाकात कराने का भरोसा दिया।

संवेदनहीन पुलिस कमिश्नर के पास दिव्यांग छात्रों से मिलने की फुर्सत नहीं थी। अमूल्य  पटनायक में रत्ती भर भी इंसानियत होती तो दिव्यांग छात्रों से तुरंत मिलते और उनको भरोसा दिलाते कि पिटाई करने वाले पुलिस कर्मियों को बख्शा नहीं जाएगा।
वैसे अमूल्य पटनायक से इंसानियत की उम्मीद करना बेमानी है। क्योंकि यह ऐसे कमिश्नर है जो वकीलों द्वारा पीटे गए अपने घायल पुलिस वालों का हाल तक पूछने नहीं गए।
उप-राज्यपाल के कहने के बाद ही पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक और डीसीपी मोनिका भारद्वाज घायल पुलिस वालों का हाल पूछने गए थे।

सत्ता की लठैत बनी पुलिस -

सरकार चाहे भाजपा की हो या कांग्रेस की सभी पुलिस का इस्तेमाल अपने ग़ुलाम/ लठैत की तरह करते हैं। इसके लिए नेताओं से ज्यादा वह आईपीएस अफसर दोषी हैं जो महत्वपूर्ण पद पाने के लिए राजनेताओं के दरबारी/ गुलाम/ लठैत बन कर आम आदमी पर अत्याचार करने से भी पीछे नहीं हटते। 

धारा 144 लगाना, लोगों की आवाज दबाना-
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माना कि धारा 144 लागू होने के कारण प्रदर्शन करना मना है। लेकिन यह धारा भी तो पुलिस ही लगाती है।  पुलिस धारा 144 हटा कर छात्रों को शांतिपूर्वक जाने भी तो दे सकती थी। ये प्रदर्शनकारी छात्र इस देश के ही तो बच्चे हैं और वह अपनी आवाज़ अपने प्रधानमंत्री, सांसदों, नेताओं तक नहीं पहुंचाएंगे तो किसके सामने अपना दुखड़ा रोएंगे  ?
संसद भवन पहुंच कर अगर छात्र कानून हाथ में लेने की कोशिश करते तो पुलिस उनके खिलाफ कार्रवाई कर सकती थी। 
छात्र जाना चाहते थे लेकिन पुलिस ने रोका झड़प हुई और इस कारण दिल्ली के अनेक इलाकों में ट्रैफिक जाम हो गया। पांच मेट्रो स्टेशन के गेट बंद कर देने से लोगों को परेशानी का सामना करना पड़ा। 

 प्रदर्शन का हक़ छीनती पुलिस-

पुलिस की काबिलियत का पता इस बात से चलता है कि वह बड़े से बड़े प्रदर्शन के दौरान कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए कितना अच्छा इंतजाम करती है। लेकिन अब तो पुलिस आसान रास्ता अपनाती  है धारा 144 लगा कर लोगों के इकट्ठा होने पर ही रोक लगा देती है। सुरक्षा कारणों के नाम पर मेट्रो के गेट बंद कर या सड़क पर यातायात बंद कर लोगों को परेशान करती है।

पुलिस जब धारा 144 लगा कर लोगों को उनके प्रदर्शन के हक़ से वंचित करने की कोशिश करती है तभी टकराव होता है।  

लोकतंत्र में अपनी समस्याओं और मांगों को अपनी सरकार के सामने शांतिपूर्ण तरीके से रखा जाता है। लेकिन यहां तो उल्टा ही हिसाब है सरकार चाहे किसी भी दल की हो संसद सत्र के दौरान संसद भवन के आसपास धारा 144 लगा कर लोगों को वहां प्रदर्शन करने से ही रोक दिया जाता है। अब ऐसे में कोई कैसे अपनी सरकार तक अपनी फरियाद पहुंचाए।

पुलिस कानून हाथ में लेने वाले ताकतवर लोगों और खास समुदाय के खिलाफ कार्रवाई नहीं करती।
इन मामलों से यह पता चलता है

कमजोर को पीटती और ताकतवर से पिटती पुलिस--

खाकी की छाती पर काले कोट का तांडव-

तीस हजारी कोर्ट परिसर में वकीलों ने आगजनी की तोड़ फोड़ और अफसरों समेत पुलिस वालों को बुरी तरह पीटा उत्तरी जिला पुलिस उपायुक्त मोनिका भारद्वाज हिंसक भीड़ पर काबू पाने के लिए बल प्रयोग करने की बजाए हाथ जोड़कर विनती कर रही थी लेकिन वकीलों ने विनती मानने की बजाय उनके साथ भी भी बदसलूकी की।
मोनिका भारद्वाज ने वकीलों के खिलाफ बदसलूकी की रिपोर्ट तक दर्ज नहीं कराई। इस मामले में विशेष आयुक्त संजय सिंह और उत्तरी जिले के अतिरिक्त उपायुक्त हरेंद्र सिंह का बिना किसी जांच रिपोर्ट के तबादले कर दिए गए।

इस मामले में पुलिस कमिश्नर की भूमिका को लेकर पुलिस में जबरदस्त रोष पैदा हो गया।  पुलिस वालों को पुलिस मुख्यालय पर प्रदर्शन कर अपना गुस्सा जाहिर करना पड़ा।

लाठी पर हंगामा, तलवार पर चुप्पी-

 मुखर्जी नगर में ग्रामीण सेवा के टैम्पो के ड्राइवर की पुलिस वाले के साथ कहासुनी हो गई। सिख ड्राइवर द्वारा कृपाण निकाल कर पुलिस को दौड़ाने का दृश्य वीडियो के माध्यम से पूरी दुनिया ने देखा। यह भी देखा कि पहले निहत्थे पुलिस वाले ने ड्राइवर पर काबू पाने के लिए अपनी जान ख़तरे में डाल दी। ड्राइवर ने उस पुलिस वाले के सिर पर तलवार से हमला कर दिया
यहीं नहीं ड्राइवर के बेटे ने पुलिस वालों पर ग्रामीण सेवा का वाहन ही चढ़ा दिया। इसके बाद पुलिस ने ड्राइवर को काबू करने के लिए लाठी/ बल प्रयोग किया और उसे थाने ले गए। इस घटना के बाद ड्राइवर के समर्थन और पुलिस के विरोध में सिख समुदाय एकत्र हो गया। प्रदर्शनकारियों ने एसीपी के जी त्यागी के साथ भी बदसलूकी की। एसीपी को जान बचाने के लिए भागना पड़ा। प्रदर्शनकारियों द्वारा पुलिस के और अन्य वाहनों में भी तोड़ फोड़ की गई। उत्तर पश्चिम  जिले की डीसीपी विजयंता गोयल आर्य के दफ्तर में ही सिख नेताओं ने किस लहजे में बात की इसको भी वायरल वीडियो में सबने देखा।
यह सच है कि पुलिस वालों को किसी को भी पीटने का हक़ नहीं है।  लेकिन मामूली-सी बात पर तलवार निकाल कर पुलिस को धमकाना और हमला करना क्या सही है? 
डीसीपी विजयंता गोयल आर्य के दफ्तर में जिस तरह का व्यवहार किया गया और एसीपी के जी त्यागी के साथ जो किया गया क्या उसे सही ठहराया जा सकता है?
पुलिस ने सिख समुदाय के दबाव में ड्राइवर को तुरंत छोड़ दिया। पुलिस ने वाहनों में तोड़फोड़ करने वाले  प्रदर्शनकारियों के खिलाफ भी कार्रवाई नहीं की।

सिख नेताओं को भी बिना भेदभाव के मामले की निष्पक्ष जांच की मांग करनी चाहिए थी। लेकिन सिख नेताओं ने आंख मूंद कर ड्राइवर की हिमायत की। 

पुलिस कमिश्नर की भूमिका पर सवाल--

पुलिस कमिश्नर ने दबाव के कारण इस मामले में दो पुलिस वालों को नौकरी से ही निकाल दिया जिससे पुलिस में रोष है।

IPS खाकी को ख़ाक में मत मिलाओ- 

सिग्नेचर ब्रिज के उद्घाटन के अवसर पर हंगामा कर रहे भाजपा सांसद मनोज तिवारी को पुलिस ने रोका। सत्ता के नशे में चूर मनोज तिवारी ने उत्तर पूर्वी जिले के तत्कालीन पुलिस उपायुक्त अतुल ठाकुर की गिरेबान पकड़ ली। यहीं नहीं अतिरिक्त पुलिस उपायुक्त राजेंद्र प्रसाद मीणा को धमकाने को भी मीडिया के माध्यम से दुनिया ने देखा। लेकिन डीसीपी अतुल ठाकुर सांसद महोदय को कानूनी सबक सिखाने की हिम्मत नहीं जुटा पाए। पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक भी इस मामले में धृतराष्ट्र बन गए।

रक्षक बने भक्षक-

जेएनयू के छात्रों ने पिछले साल मार्च में भी प्रदर्शन किया था तब भी पुलिस ने लाठीचार्ज किया। यही नहीं पुलिस की बर्बरता की फोटो खींचने वाली महिला फोटोग्राफर/ पत्रकार का कैमरा तक पुलिस ने लूट लिया। 

इस दौरान एक महिला पत्रकार ने दिल्ली छावनी थाने के एस एच ओ विद्या धर पर यौन उत्पीडन का आरोप लगाया। महिलाओं के प्रति संवेदनशील होने का दावा करने वाले पुलिस कमिश्नर अमूल्य पटनायक ने इन दोनों महिलाओं की शिकायत पर एफआईआर तक दर्ज नहीं की। पत्रकारों ने पुलिस मुख्यालय से लेकर संसद भवन तक प्रदर्शन किया। तत्कालीन गृहमंत्री राज नाथ सिंह  मिले तब जाकर पुलिस ने एफआईआर दर्ज की।

रामलीला मैदान में पुलिस की बर्बरता-

आईपीएस अफसर भी गुलाम की तरह पुलिस का इस्तेमाल करते है।-- 

देश की राजधानी दिल्ली में ही पुलिस जब नेता के लठैत की तरह काम करती है तो बाकी देश के हाल का अंदाजा लगाया जा सकता है। 4-6-2011 को रामलीला मैदान में रामदेव को पकड़ने के लिए सोते हुए औरतों और बच्चों पर तत्कालीन पुलिस आयुक्त बृजेश कुमार गुप्ता और धर्मेंद्र कुमार के नेतृत्व में पुलिस ने लाठीचार्ज और आंसू गैस का इस्तेमाल कर फिरंगी राज को भी पीछे छोड़ दिया। उस समय ये अफसर भूल गए कि पेशेवर निष्ठा,काबलियत को ताक पर रख कर लठैत की तरह लोगों पर अत्याचार करने का खामियाजा भुगतना भी पड़ सकता है। इसी लिए प्रमुख दावेदार होने के बावजूद अन्य कारणों के साथ इस लठैती के कारण भी धर्मेंद्र कुमार का दिल्ली पुलिस कमिश्नर बनने का सपना चूर चूर हो गया।

धर्म ना देखो अपराधी का -- 

रामलीला मैदान की बहादुर पुलिस को 21 जुलाई 2012 को सरकारी जमीन पर कब्जा करके मस्जिद बनाने की कोशिश करने वाले गुंड़ों ने दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। माहौल बिगाड़ने के लिए जिम्मेदार बिल्डर नेता शोएब इकबाल के खिलाफ पुलिस ने पहले ही कोई कार्रवाई नहीं की थी। जिसका नतीजा यह हुआ कि गुंड़ों ने पुलिस को पीटा, पथराव और आगजनी की। लेकिन अफसरों ने यहां गुंड़ों पर भी  रामलीला मैदान जैसी मर्दानगी दिखाने का आदेश पुलिस को  नहीं दिया।
इस तरह आईपीएस अफसर भी नेताओं के इशारे पर पुलिस का इस्तेमाल कहीं बेकसूरों को पीटने के लिए करते है तो कहीं पुलिस को गुंड़ों से भी पिटने देते है। अफसरों की इस तरह की हरकत से निचले स्तर के पुलिसवालों में रोष पैदा हो जाता है।

पुलिस की लाठी आम आदमी पर ही चलती है-

इन मामलों से यह पता चलता है कि पुलिस कानून हाथ में लेने वाले सत्ताधारी नेताओं, वकीलों और अल्पसंख्यक समुदाय के खिलाफ कार्रवाई करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती। लेकिन दूसरी ओर रामलीला मैदान में सोते हुओं और शांतिपूर्ण प्रदर्शन करने वाले छात्रों और आम आदमी  पर ताकत दिखाने में जरा भी देर नहीं लगाती।
 सत्ता के लठैत की तरह आम आदमी पर अत्याचार करने के कारण ही आम लोगों में पुलिस की छवि खराब हुई हैं। यही वजह है कि वकीलों से पिटने के बावजूद आम आदमी की पुलिस से हमदर्दी नहीं है। हालांकि लोग कानून हाथ में लेने वाले वकीलों के खिलाफ कार्रवाई चाहते हैं।

बुखारी का भी बुखार क्यों नहीं उतारती सरकार ---

दिल्ली पुलिस ने जामा मस्जिद के इमाम को सिर पर बिठाया हुआ है। कोर्ट गैर जमानती वारंट तक भी जारी करती रही हैं लेकिन दिल्ली पुलिस कोर्ट में झूठ बोल  देती है कि इमाम मिला नहीं। जबकि इमाम पुलिस सुरक्षा में रहता है। मध्य जिले में तैनात रहे कई डीसीपी  तक इमाम अहमद बुखारी को सलाम  ठोकने जाते रहे हैं।
दिल्ली पुलिस में आईपीएस कर्नल सिंह ने ही  इमाम की सुरक्षा कम करने की हिम्मत दिखाई थी। शंकराचार्य जैसा व्यक्ति जेल जा सकता है तो इमाम क्यों नहीं? एक मस्जिद के अदना से इमाम को सरकार द्वारा सिर पर बिठाना समाज के लिए खतरनाक है। इमाम को भला पुलिस सुरक्षा देने की भी क्या जरूरत है। कानून सबके लिए बराबर  होना चाहिए। अहमद बुखारी के खिलाफ कितने आपराधिक मामले दर्ज हैं इसका भी खुलासा सरकार को करना चाहिए। 


 र
              सांसद मनोज तिवारी ने डीसीपी अतुल ठाकुर।                        का गिरेबान पकड़ा


                 पुलिस के अत्याचार के शिकार छात्र



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