Wednesday 10 February 2021

दिल्ली में 1861 में दर्ज हुई थी पहली FIR, अंग्रेजों के जमाने में 'दो आने' की चोरी की भी FIR दर्ज। अपराधियों पर अंकुश लगाने का एकमात्र रास्ता अपराध की सही FIR दर्ज हो।

(Press Club of India की पत्रिका 
The Scribes World)

 






अंग्रेजों के जमाने में 'दो आने' की चोरी की भी एफआईआर दर्ज।
पंडित जवाहर लाल नेहरु के दादा थे दिल्ली के आखिरी कोतवाल। 
मुगल काल के कोतवाल ईमानदारी की मिसाल।

इंद्र वशिष्ठ
पुलिस आज भले ही अपराध कम दिखाने के लिए अपराध के मामलों को सही दर्ज नहीं करती हैं। लेकिन अंग्रेजों के समय में तो दो आने कीमत के संतरे और पैंतालीस आने मूल्य का सामान चोरी होने तक के मामलों की भी रिपोर्ट यानी मुकदमा /एफआईआर दर्ज की जाती थी।
पहली एफआईआर-
दिल्ली में पुलिस ने पहली एफआईआर पैंतालीस आने का सामान चोरी होने की शिकायत पर दर्ज की थी। वर्ष 1861 में यानी आज से करीब 160 वर्ष पहले यह पहली एफआईआर सब्जी मंडी थाने में दर्ज की गई थी।
 हुक्का,बर्तन चोरी-
उत्तरी दिल्ली के सब्जी मंडी थाने में 18 अक्टूबर 1861 को यह पहली एफआईआर उर्दू/फारसी भाषा में दर्ज हुई थी। कटरा शीश महल निवासी मोइनुद्दीन वल्द मोहम्मद यार खान की शिकायत पर यह एफआईआर दर्ज की गई।आठ बर्तन (देगची,देगचा,कटोरा,लोटा), हुक्का, कुल्फी और महिलाओं के वस्त्र चोरी के मामले में यह एफआईआर दर्ज की गई थी। चोरी हुए सामान का मूल्य पैंतालीस आने (2.81 रुपए)था।

ऐतिहासिक 5 थाने-
अंग्रेजों ने 1861 में दिल्ली शहर और देहात में पांच थाने सब्जी मंडी, कोतवाली, सदर बाजार, महरौली और मुंडका(अब नांगलोई) बनाए थे। उस समय एफआईआर/ प्राथमिकी बहुत ही छोटी यानी संक्षिप्त रुप में लिखी जाती थी।जबकि आजकल कई-कई पृष्ठ की होती है। 

"रजिस्टर रूजू-ए-मुकदमात"- 
उर्दू-फारसी में एफआईआर-
एफआईआर/ प्राथमिकी को उस समय "रजिस्टर रूजू-ए-मुकदमात" के नाम से जाना जाता था। एफआईआर में उर्दू और फारसी की मिलीजुली भाषा का इस्तेमाल किया जाता था।


कोतवाली थाने की पहली एफआईआर-
कोतवाली थाने में पहली एफआईआर 4 नवंबर 1861 को दर्ज की गई। उर्दू और फारसी भाषा में लिखी गई इस एफआईआर के अनुवादित कुछ अंश निम्न पंक्तियों में प्रस्तुत हैंं।
 घर में सेंधमारी-
कोतवाली थाना में पहला मुकदमा 4 नवंबर 1861 की सुबह करीब 7 बजे दर्ज किया गया। मोहम्मद अली वल्द शगीर अली बेग ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई कि आज सुबह जब वह सो कर उठा तो उसने अपने घर में सेंध लगी देखी। उसने 24 रुपए नगद और कुछ सामान गायब पाया। पुलिस ने इस संबंध में नकबजनी यानी सेंधमारी का मामला दर्ज किया था।

दुकान में सेंध-
कोतवाली थाना में  दूसरी एफआईआर 8 नवंबर 1861 को दर्ज की गई। दरीबा खुर्द के एक दुकानदार मोतीमल सुपुत्र दौलत राम ने रिपोर्ट दर्ज कराई कि आज सुबह मैंने देखा कि मेरी दुकान में पड़ोसी अमजद अली की दुकान की तरह से सेंध लगाई गई है। लेकिन दुकान से कोई सामान चोरी नहीं हुआ। मोती मल ने इस मामले में अमजद अली के नौकर पर संदेह प्रकट किया।
सब्जी मंडी थाने में दर्ज कई दिलचस्प एफआईआर। 
दो आने के संतरे चोरी की एफआईआर -
सब्जी मंडी थाने में दो आने कीमत के 11 संतरे चोरी का मामला 16 फरवरी 1891 को दर्ज किया गया। शिकायतकर्ता राम प्रसाद ने संतरे चोरी करने वाले राम बक्श सुपुत्र अल्लाह बक्श को रंगे हाथों पकड़ कर पुलिस के हवाले किया था। अदालत ने 23 दिसंबर 1891 को राम बक्श को एक महीना कैद की सजा सुनाई।
खच्चर/ टट्टू चोरी-
30 अप्रैल 1895 को एक खच्चर/ टट्टू चोरी का मामला दर्ज किया गया। शिकायतकर्ता ने अपने पुराने नौकर पर संदेह जताया था। इस मामले को पुलिस सुलझा नहीं पाई। 
जेबतराशी -
एक जेबकतरे को चार आने की चोरी करते हुए पकडे़ जाने की एफआईआर 13 दिसंबर 1894 को दर्ज की गई। तुलसी की जेब से चार आने की चोरी करते हुए हरविंदर रंगे हाथों पकड़ा गया। आदी अपराधी हरविंदर को अदालत ने दो साल कैद की सजा सुनाई।
पायजामा चोर को कोडे़ की सजा-
ज्योति का पायजामा चोरी करने के मामले में 10 मार्च 1897 को राम दयाल को सब्जी मंडी पुलिस ने गिरफ्तार किया। अदालत ने उसे 5 कोड़े लगाने की सजा सुनाई।


कुरान शरीफ चोरी-
महरौली थाने में अल्लादिया ने 23 जून 1899 को गुट्टू के खिलाफ कुरान शरीफ चोरी करने की रिपोर्ट दर्ज कराई। अल्लादिया ने पुलिस को बताया कि गुट्टू मस्जिद में आया और अजमेर शरीफ जाने के लिए उससे मदद मांगी। उसने चंदा एकत्र करके उसे दिया, खाना खिलाया और रात को मस्जिद में ठहराया। गुट्टू सुबह कुरान शरीफ चोरी करके ले गया। सिपाही अब्दुल करीम ने एक दुकान पर गुट्टू को पकड़ लिया। अदालत ने उसे एक सप्ताह कैद की सजा दी। 
इन मामलों से पता चलता है कि अंग्रेजों के जमाने में अपराध के मामले कितनी आसानी से दर्ज किए जाते थे।

अपराध कम दिखाने के लिएआंकड़ों की बाजीगरी बंद हो -
दूसरी ओर दिल्ली पुलिस द्वारा अपराध के आंकड़ों की बाजीगरी से अपराध कम दिखाने की  परंपरा आज भी  कायम है। अपराध कम दिखाने के लिए ही  पुलिस लूट, मोबाइल फोन/पर्स की झपटमारी और जेबकटने/चोरी के सभी मामलों को सही दर्ज नहीं करती या हल्की धारा में दर्ज करती है। पुलिस द्वारा हत्या तक के मामले को भी दर्ज न किए जाने के मामले भी समय समय पर सामने आते रहे हैं। पुलिस द्वारा अपराध को सही दर्ज न करने के कारण ही अपराध और अपराधी बढ़ रहे हैं। जब तक पुलिस अपराध के सभी मामलों को सही तरह से दर्ज करना शुरु नहीं करेगी  अपराध और अपराधियों पर अंकुश नहीं लग पाएगा। अपराध को दर्ज न करके तो पुलिस एक तरह से ही खुद अपराधी की मदद करने का गुनाह करती है।
सदर बाजार थाना-
सदर बाजार थाने में पहली एफआईआर दल्लू माली नामक शख्स ने 31 दिसंबर 1861 को कराई थी। थाना आज भी उसी समय की पुरानी ऐतिहासिक और संरक्षित इमारत में चल रहा है। 

सीटी, वायरलैस सेट- 
दिल्ली पुलिस ने अंग्रेजों के समय में दर्ज एफआईआर के अलावा पुलिस से जुड़ी अनेक ऐतिहासिक वस्तुएं अपने संग्रहालय में संभाल कर रखी हुई है। इनमें पुलिस द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली साल 1926 में ब्रिटेन में बनी सीटी यानी व्हिसल और 1944 में इस्तेमाल किया गया पहला वायरलैस सेट भी शामिल है।


पंडित जवाहर लाल नेहरु के दादा थे दिल्ली के आखिरी कोतवाल।

दिल्ली का पहला कोतवाल ईमानदारी की मिसाल।

दिल्ली पुलिस की छवि आज़ भले ही अच्छी नहीं है। लेकिन  पुलिस का इतिहास सुनहरा रहा है। एक समय ऐसा था कि कोतवाल की ईमानदारी की मिसाल दी जाती थी। कोतवाल की ईमानदारी के क़िस्सों का दिल्ली पुलिस ने अपने इतिहास में प्रमुखता से उल्लेख किया है लेकिन आज़ के दौर में ऐसा कोई  नज़र नहीं आता जिसकी तुलना उस समय के कोतवाल से की जा सके। आज़ तो आलम यह है कि पुलिस में व्याप्त भ्रष्टाचार से लोग त्रस्त है। पुलिसवाले ही जबरन वसूली और लूट तक की वारदात में शामिल पाए जाते हैं। 

दिल्ली में पुलिस व्यवस्था की शुरूआत करीब आठ सौ साल पुरानी मानी जाती है। तब दिल्ली की सुरक्षा और कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी शहर कोतवाल पर हुआ करती थी। भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू के दादा गंगाधर दिल्ली के आखिरी कोतवाल थे। उस समय के शहर कोतवाल से आज देश की सबसे ज्यादा साधन सम्पन्न  दिल्ली पुलिस ने लंबी दूरी तय की है।

            मलिक उल उमरा फखरूद्दीन

पहला कोतवाल--

 दिल्ली का पहला कोतवाल मलिक उल उमरा फखरूद्दीन थे । वह सन् 1237 ईसवी में 40 की उम्र  में कोतवाल बने । कोतवाल के साथ उन्हें नायब ए गिब्त(रीजेंट की गैरहाजिरी में )भी नियुक्त किया गया था। अपनी ईमानदारी के कारण ही वह तीन सुलतानों के राज-काल में लंबे अर्से तक इस पद पर रहे। 

आज भले ही दिल्ली पुलिस की छवि दागदार है,पहले के कोतवालों की ईमानदारी के अनेक किस्से इतिहास में दर्ज है।

एक बार तुर्की के कुछ अमीर उमराओं की संपत्ति सुलतान बलवन के आदेश से जब्त कर ली गई। इन लोगों ने सुलतान के आदेश को फेरने के लिए कोतवाल फखरूद्दीन को रिश्वत की पेशकश की।

कोतवाल ने कहा ‘यदि मैं रिश्वत ले लूंगा तो मेरी बात का कोई वजन नहीं रह जाएगा"

 कोतवाल का पुलिस मुख्यालय उन दिनों किला राय पिथौरा यानी आज की महरौली में था। इतिहास में इसके बाद कोतवाल मलिक अलाउल मल्क का नाम दर्ज है। जिसे सुलतान अलाउद्दीन खिलजी ने 1297 में कोतवाल तैनात किया था। सुलतान खिलजी ने एक बार मलिक के बारे में कहा था कि इनको कोतवाल नियुक्त कर रहा हूं जबकि यह है वजीर (प्रधानमंत्री ) पद के योग्य है। इतिहास में जिक्र है कि  एक बार जंग को जाते समय सुलतान खिलजी कोतवाल मलिक को शहर की चाबी सौंप गए थे। सुलतान ने कोतवाल से कहा था कि जंग में जीतने वाले विजेता को वह यह चाबी सौंप दें और इसी तरह वफादारी से उसके साथ भी काम करें।

मुगल बादशाह शाहजहां ने 1648 में दिल्ली को अपनी राजधानी बनाने के साथ ही गजनफर खान  को नए शहर  शाहजहांनाबाद का पहला कोतवाल बनाया था। गजनफर खान को बाद में कोतवाल के साथ ही  मीर-ए-आतिश (चीफ ऑफ आर्टिलरी) भी बना दिया गया ।

                  पंडित गंगाधर नेहरू 

कोतवाल व्यवस्था खत्म- 

1857 की क्रांति के बाद फिंरंगियों ने दिल्ली पर कब्जा कर लिया और उसी के साथ दिल्ली में कोतवाल व्यवस्था भी खत्म हो गई। अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के राज काल में उस समय पंडित जवाहर लाल नेहरू के दादा और पंडित मोती लाल नेहरू के पिता पंडित गंगाधर नेहरू दिल्ली के कोतवाल थे। 1857 की क्रांति के बाद फिरंगियों ने दिल्ली पर कब्जा कर कत्लेआम शुरु किया तो गंगाधर अपनी पत्नी जियो देवी और चार संतानों के साथ आगरा चले गए। फ़रवरी 1861 में आगरा में ही उनकी मृत्यु हो गई। गंगाधर नेहरू की मृत्यु के तीन महीने बाद मोती लाल नेहरू का जन्म हुआ था।

आइने अकबरी के अनुसार जब शाही दरबार लगा होता था तब कोतवाल को भी दरबार में मौजूद रहना पड़ता था। वह रोजाना शहर की गतिविधियों की सूचनाएं चौकीदारों और अपने मुखबिरों के जरिए प्राप्त करता था।

अंग्रेजों ने पुलिस को संगठित रूप दिया-

1857 में अंग्रेजों ने पुलिस को संगठित रूप दिया।  उस समय दिल्ली पंजाब का हिस्सा हुआ करती थी ।  1912 में राजधानी बनने के बाद तक भी दिल्ली में पुलिस व्यवस्था पंजाब पुलिस की देखरेख में चलती रही । उसी समय दिल्ली का पहला मुख्य आयुक्त नियुक्त किया गया था। जिसे पुलिस महानिरीक्षक यानी आईजी के अधिकार  दिए गए थे उसका मुख्यालय अंबाला में था। 1912 के गजट के अनुसार उस समय दिल्ली की पुलिस का नियत्रंण एक डीआईजी रैंक के अधिकारी के हाथ में होता था। दिल्ली में पुलिस की कमान एक सुपरिटेंडेंट(एसपी)और डिप्टीएसपी के हाथों में थी। उस समय दिल्ली शहर की सुरक्षा के लिए दो इंस्पेक्टर,27सब-इंस्पेक्टर,110 हवलदार,985  सिपाही और 28 घुडसवार थे । देहात के इलाके के लिए दो इंस्पेक्टर थे । उनका मुख्यालय सोनीपत और बल्लभगढ़ में था । उस समय तीन तहसील-सोनीपत,दिल्ली और बल्लभगढ़ के अंतर्गत 10 थाने आते थे । दिल्ली शहर में सिर्फ तीन थाने कोतवाली,सब्जी मंडी और पहाड़ गंज थे। सिविल लाइन में पुलिस बैरक थी । कोतवाली थाने की ऐतिहासिक इमारत को बाद में गुरूद्वारा शीश गंज को दे दिया गया ।  देहात इलाके के लिए 1861 में बना नांगलोई थाना 1872 तक  मुंडका थाने के नाम से जाना जाता था ।

1946 में पुनर्गठन -

 दिल्ली पुलिस का 1946 में पुनर्गठन किया और पुलिसवालों की संख्या दोगुनी कर दी गई। 1948 में दिल्ली में पहला पुलिस महानिरीक्षक डी डब्लू मेहरा को नियुक्त किया गया। उनकी नियुक्ति 16 फरवरी को की गई थी इसलिए 16 फरवरी को दिल्ली पुलिस का स्थापना दिवस मनाया जाता है। 1जुलाई 1978 से दिल्ली में  पुलिस कमिश्नर प्रणाली लागू कर दी गई । इस समय यानी  दिल्ली पुलिस बल की संख्या लगभग 81 हजार है और थानों की संख्या 209 हैं।

पुलिस मुख्यालय- 

आजादी के बाद 70 साल बाद दिल्ली पुलिस को अपना मुख्यालय मिला है।

31-10- 2019 को दिल्ली पुलिस का मुख्यालय नई दिल्ली में संसद भवन के पास जयसिंह मार्ग स्थित अपनी नई बनी इमारत में चला गया।

इसके पहले पुलिस मुख्यालय आईटीओ और कश्मीरी गेट में था।

पुलिस का इतिहास इतना गौरवशाली  रहा है। पुलिस में मौजूद ईमानदार अफसरों को इससे प्रेरणा लेकर पुलिस के गौरव को दोबारा स्थापित करने की कोशिश करनी चाहिए। तभी आने वाले समय में पुलिस की छवि फिर से चमकेगी। मुंशी प्रेमचंद की कहानी 'नमक का दारोगा' को भी याद रखना चाहिए ।

   (Press Club of India की पत्रिका 

 The Scribes World में प्रकाशित) 


         (Press Club of India की पत्रिका The Scribes World)







   









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